प्रकाश के. राय
अमेरिका में बढ़ती मुद्रास्फीति तीन दशक के स्तर को पार करने के कगार पर है. राष्ट्रपति बाइडेन की लोकप्रियता का ग्राफ़ गिरता जा रहा है. इस स्थिति में अमेरिकी मीडिया एक सुर में एक व्यक्ति को बहुत भला-बुरा कह रहा है. कोई उस व्यक्ति को ‘पागल हत्यारा’ कह रहा है, तो कोई ‘तानाशाह’, तो कोई और कुछ. मज़े की बात यह है कि यह अमेरिकी मीडिया ऑर्केस्ट्रा तब बज रहा है, जब महँगाई लिबरल डेमोक्रेट राजनीति को झटका दे रही है.
वह व्यक्ति हैं सऊदी अरब के शहज़ादे मोहम्मद (उम्र 36 वर्ष). बाइडेन ने पदभार लेने के बाद से मोहम्मद से बात नहीं की है. माना जा रहा है कि इसी बात से शहज़ादे को नाराज़गी है. मज़े की बात यह है कि एक ओर बाइडेन को मोहम्मद से बात करने में परहेज़ है, लेकिन उन्हें सऊदी अरब को 650 मिलियन डॉलर का हथियार बेचने से कोई परेशानी नहीं है. इसी को कहते हैं अमेरिकी विदेश नीति. पूरा दोहरा चरित्र. यही बाइडेन लोकतंत्र पर सम्मेलन कर रहे हैं. ख़ैर, मुद्दे पर आते हैं.
बाइडेन अनेक बार कह चुके हैं कि सऊदी अरब, रूस और अन्य देशों का तेल उत्पादन और आपूर्ति नहीं बढ़ाना अनुचित है. तेल उत्पादक देश कह रहे हैं कि आपूर्ति पर्याप्त है. अमेरिका और यूरोप वाले अपना उपभोग कम कर सकते हैं. जैसा कहा गया है, संचित भंडार से और आपूर्ति की जा सकती है, अमेरिका स्वयं तेल उत्पादक देश है, उसे निकालना चाहिए, तेल उत्पादक देशों- ईरान, वेनेज़ुएला आदि, पर लगी पाबंदियों को हटाना चाहिए. लेकिन नहीं, बाइडेन प्रशासन और अमेरिकी सत्ता वर्ग को इधर-उधर करना है, पंगा फँसाना है, अमेरिकी जनता को गुमराह करना है और मुनाफ़ा बनाना है.
बीते पाँच साल से मोहम्मद के हाथ में सऊदी अरब की बागडोर है. इस नाते उनका नियंत्रण तेल उत्पादक देशों के समूह पर भी है. इन पाँच सालों में सऊदी अरब की अर्थव्यवस्था को कई हिचकोले खाने पड़े हैं. पीछे कोरोना भी आ गया था. लेकिन सऊदी अरब ने ग़ज़ब सुधार किया है. एक तथ्य देखें, इस साल के बजट में अनुमान लगाया गया था कि देश का बजट घाटा 145 अरब रियाल होगा, लेकिन यह घाटा तीसरी तिमाही में ही केवल 5.4 अरब रियाल रह गया है. अनुमान है कि अगले साल उसे बहुत भारी कमाई होगी.
सऊदी अरब मध्य-पूर्व में और इस्लामिक देशों में अमेरिका और पश्चिम का सबसे बड़ा दोस्त है. उस देश की स्थापना ही पश्चिम ने की है, जैसे अरब के अनेक देशों को बनाया गया है. शहज़ादा मोहम्मद के पैंतरे भी ख़तरनाक रहे हैं, पर इसका दोष पश्चिम को लेना होगा. पत्रकार ख़शोगी के मामले में क्या हुआ, यमन में अमेरिका किसे मदद कर रहा है और देश तबाह हो चुका है, कट्टरपंथी समूहों और आतंकी गिरोहों के मामले में पश्चिम साफ़गोई क्यों नहीं बरत रहा है, अमेरिका व यूरोप हथियार क्यों बेच रहे हैं- ऐसे कई सवाल हैं. ख़ैर, इतिहास की अपनी गति होती है. अभी तो रैजिंग ट्वेंटीज़ शुरू हुआ है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)