आगरा: उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनावों में पिछली बार आगरा की सभी नौ सीटों पर विजय पताका फहराने वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए वर्ष 2022 के विधानसभा चुनावों की राह आसान नहीं रहने वाली है। इस बार न केवल समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) उसके लिए बड़ी अवरोधक साबित होंगी बल्कि कांग्रेस भी उसके वोटों के प्रतिशत को कम करने में भूमिका निभाएगी।
वर्ष 2017 के चुनावों में ऐतिहासिक जीत का बड़ा कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लहर होने और सपा,बसपा और कांग्रेस जैसे दलों के प्रति मतदाता की उदासीनता को माना गया था। अब हालात उतने आसान नहीं रह गए हैं। एक ओर मतदाता विधायकों के पिछले पांच सालों के रिपोर्ट कार्ड की समीक्षा करने में लगे हैं, दूसरी ओर विपक्षी दलों ने सेंधमारी की पूरी तैयारी कर ली है। शहरी क्षेत्रों में भाजपा का वोट बैंक मजबूत होने के कारण उसे नुकसान की सम्भावना कम है, लेकिन देहाती क्षेत्रों में प्रदर्शन प्रभावित होने की आशंका बनी हुई है।
जिले में आगरा छावनी,आगरा उत्तर,आगरा ग्रामीण,आगरा दक्षिण,बाह,एत्मादपुर,फतेहाबाद,फतेहपुरी सीकरी और खेरागढ़ में चुनाव परिणामों को अपनी ओर मोड़ने के लिए राजनीतिक दलों ने ताकत झोंकना शुरू कर दिया है। राजनीतिक यात्राओं का दौर शुरू हो चुका है। लुभावने वायदे किये जा रहे हैं। सपा और बसपा सीटों को छीनने की पुरजोर कोशिश में हैं। कांग्रेस की कोशिश भाजपा के वोट बैंक में सेंध लगाकर अपने पिछले प्रदर्शन को सुधारने की है।
कुछ विधायकों के प्रति मतदाताओं की नाराजगी भाजपा को भारी पड़ सकती है। इन विधायकों पर जनता के कार्यों के प्रति निष्क्रिय रहने, घोटालेबाजों का साथ देने और अकड़ व घमण्ड में बड़बोलेपन के आरोप हैं। भाजपा आलाकमान के पास भी इन विधायकों की शिकायतें पहुंचती रही हैं। ऐसे विधायकों को पुनः मैदान में उतारने पर सीट खो देने का भी खतरा है।
पिछले विधानसभा चुनावों में जिले की अधिकांश सीटों पर दूसरे स्थान रही सपा को कुछ सीटों पर मतदाताओं की सत्तारूढ़ विधायकों के प्रति नाराजगी का लाभ मिल सकता है। एतमादपुर, छावनी, खेरागढ़, फतेहाबाद व फतेहपुर सीकरी की सीटों पर यदि सपा ने मजबूत प्रत्याशी उतारे तो तसवीर का रुख उसकी ओर हो सकता है। आगरा दक्षिण पर भी कमोबेश यही स्थिति है।
भाजपा के लिये एक राहत की बात यह है कि 2012 में बसपा के दम पर विधायक बने जिले के सभी छह विधायक 2022 के चुनाव से पहले बसपा छोड़ चुके हैं। इनमें से चार भाजपा का दामन थाम चुके हैं। एक सपा और एक रालोद में शामिल हो चुके हैं। एक का निधन हो चुका है। वर्ष 2012 में एत्मादपुर से डा. धर्मपाल सिंह, छावनी से गुटियारी लाल दुबेश, आगरा ग्रामीण से कालीचरन सुमन, फतेहपुरसीकरी से सूरज पाल, खेरागढ़ से भगवान सिंह कुशवाहा और फतेहाबाद से छोटे लाल वर्मा बसपा के टिकट पर चुनाव जीते थे। गुटियारी लाल दुबेश, छोटे लाल वर्मा और भगवान सिंह कुशवाह भाजपा में शामिल हो गए।
सूरज पाल ने भी भाजपा का दामन था लेकिन कुछ दिनों बाद ही हृदयघात की वजह से उनका निधन हो गया। डा. धर्मपाल सिंह सपा में शामिल हो गए हैं। वह पूर्व में सपा में ही थे। वहीं, कालीचरन सुमन रालोद के साथ हैं। ऐसे में आगामी चुनाव में बसपा को लगभग सभी सीटों पर नये चेहरे उतारने होंगे।
विधानसभा चुनावों के दौरान जिले में ऊंट किस करवट बैठेगा, इसके पर समीक्षक अपनी-अपनी राय व्यक्त कर रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इन परिस्थितियों में भाजपा को अपना गढ़ बचाये रखने के लिए कड़ी मशक्कत करनी होगी और विवादित या निष्क्रिय रहे विधायकों को बदलना होगा, तभी पार्टी बढ़त की उम्मीद कर सकती है।
राजनीतिक समीक्षक विनोद भारद्वाज मानते हैं कि भाजपा को पिछला प्रदर्शन दोहराने में खासी मुशकिलों का सामना करना होगा। पांच सालों में आगरा की प्रमुख चार-पांच जरूरतों में से कोई पूरी नहीं हो सकी है। लोगों में नाराजगी है। सपा और बसपा ने समझदारी के साथ प्रत्याशियों का चयन किया तो तस्वीर बदल सकती है।
राजनीतिक विश्लेषक हरीश सक्सेना चिमटी भी कहते हैं कि मतदाताओं में बेरोजगारी, महंगाई जैसे प्रमुख मुद्दों को लेकर बड़ी नाराजगी है। सरकारी विभागों में जनता के काम अटके पड़े हैं। उनका कहना है कि आर एस एस भी आम लोगों के बीच पैठ बनाने की अपनी पुरानी परिपाटी भुला बैठा है। ऐसे में भाजपा के पक्ष में एक ही बात रह जाती है और वह है मतदाताओं की भाजपा को लेकर प्रतिबद्धता। एक यही फेक्टर भाजपा की मदद करेगा। यदि भाजपा का परम्परागत वोटर मतदान के लिए घरों से नहीं निकला तो पासा पलट भी सकता है।
जिले के प्रमुख मुद्दे कई सालों से लम्बित हैं। इनमें यमुना नदी पर बैराज, अंतर्राष्ट्रीय स्टेडियम, उच्च न्यायालय की खंडपीठ और अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा स्थापित किये जाने की मांगें प्रमुख हैं। ताज ट्रिपेजियम जोन में प्रतिबन्धों के कारण उद्योग-धंधे न लग पाना भी बड़ा मुद्दा है। लोकसभा के चुनाव हों या विधानसभा के, सभी चुनावों में मतदाताओं से इन मुद्दों का निकालने का आश्वासन दिया जाता है, लेकिन वर्षों बाद भी कोई ठोस काम नहीं हो सका है।