विश्वदीपक
दिलीप कुमार के ‘ट्रेजडी किंग’ होने के सूत्र भारत विभाजन की त्रासदी में छिपे हैं। पेशावर का पठान जब पर्दे पर रोता था तो असल में उसके भीतर पूरा पाकिस्तान और भारत एक साथ हो रहा होता था। ठीक वैसे ही जैसे पाकिस्तान में पैदा हुआ महान धावक मिल्खा जब दौड़ता था तो उनके साथ पाकिस्तान और भारत दोनों दौड़ रहे होते थे।
दिलीप कुमार के दोस्त राजकपूर भी पेशवार के ही थे। दिलीप कुमार के आंसुओं में अगर भारत-पाकिस्तान विभाजन का दर्द था तो राजकपूर के रोमांस में सतलज-सिंध जैसी रवानगी और बहाव था। सिर्फ दिलीप कुमार और राजकपूर ही क्यों? बलराज साहनी, उनके भाई भीष्म साहनी से लेकर से लेकर सतीश गुजराल (पूर्व प्रधानमंत्री आई के गुजराल के भाई) तक हज़ारों ऐसे लोग पाकिस्तान से भागकर भारत आए थे जिन्होंने संभवत: धरती का सबसे नृशंस बंटवारा झेला था फिर भी अपनी मनुष्यता को मरने नहीं दिया। इनमें से हर किसी ने अपनी त्रासदी को सृजन में बदला। जितनी गहरी उनकी त्रासदी थी, उतना ही महान उनका सृजन था।
मनुष्यता पर इस यकीन को बचाए रखने के पीछे एक आदमी का योगदान था और वो था नेहरू। इस बात को ऐसे भी समझ सकते हैं कि विभाजन के बाद भारत से भी बहुत से लोग भागकर पाकिस्तान गए थे लेकिन वहां कोई दिलीप कुमार नहीं बन सका। वहां कोई राजकपूर जैसा शो मैन नहीं हुआ। कोई मिल्खा सिंह नहीं हो सका। वहां का सिनेमा, हिंदी फिल्म की तरह उद्योग का रूप नहीं ले सका।
विभाजन ने अगर भारत को दिलीप कुमार, राजकपूर, साहनी, सतीश गुजराल जैसे सितारे दिए तो पाकिस्तान के हिस्से आया हाफिज सईद। (उसका परिवार विभाजन के बाद भारत से भागकर पाकिस्तान गया था। पूर्वज हरियाणा के गुर्जर थे। विभाजन के दौरान मचे कत्लेआम में उसके परिवार के 36 लोग मारे गए थे)।
पंडित नेहरू और दिलीप कुमार की यह तस्वीर तीन मूर्ति भवन में साल 1962 में खीची गई थी। इस तस्वीर को दुनिया के सामने लाने का श्रेय अमिताभ बच्चन को है।
(लेखक पत्रकारिता से जुड़े हैं, ये उनके निजी विचार हैं)