शरीफ मोहम्मद खिलजी
आज देशभर में महात्मा गांधी की 152वीं जयंती मनाई जा रही है। 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर में जन्में महात्मा गांधी ने अहिंसावादी सिद्दांत के दम पर स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई लड़ी और देश को आजाद कराया. गांधी के इसी सिद्धांत की आज दुनिया भर में सराहना होती है.यही कारण है कि गांधी जयंति को विश्व अंहिसा दिवस के रूप में भी मनाया जाता है।
विदेशों में महात्मा गाँधी के नाम को भुनाने वाले हमारे देश के प्रधानमंत्री और बीजेपी शाषित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को देखे तो ये लोग हर रोज गांधीजी की आत्मा को चोट पहुंचा रहे है। अग्रेंज भारत के किसानों से नील की खेती करवाते थे। जिसका स्वरूप आज के कृषि बील है। उस समय किसानों को बचाने के लिए गांधीजी सडकों पर उतर गए थे लेकिन आज के तानाशाही नेता स्वयं ही किसानों का वजूद मिटाने पर तुले हुए है। गांधीजी लोकतंत्र में विश्वास रखते थे। लेकिन कल देश के मुख्य विपक्षी दल के मुख्य नेता के साथ जबरन पुलिसिया कार्यवाही, लाठीचार्ज एवं गीरेबानं में हाथ डालने की कोशिश हुई इससे प्रतित हो रहा है कि देश हिटलरशाही की तरफ बढ रहा है। शोषित, पीडित एवं उत्पीड़न के शिकार परिवार के साथ खड़े होना गांधीजी का मुख्य लक्ष्य रहा लेकिन आज आजादी के सात दशक बाद गांधीजी की आत्मा को सबसे ज्यादा चोट हिटलरशाही सरकारों द्वारा पहुंचाई जा रही है।
हिंदु मुस्लिम एकता और साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए अपना जीवन अर्पण करने वाले गांधीजी के भारत में हिटलरशाही सरकार सिर्फ और सिर्फ हिंदू मुस्लिम ध्रुवीकरण की राजनीति कर रही है।
देश के तमाम भाड़े के चैनलों के माध्यम से देशवासियों को साम्प्रदायिकता का डोज परोसा जाता है। टीवी चैनलों पर बैठे दलाल एंकर दिन रात हिंदु मुसलमान की साम्प्रदायिकता में देशवासियों को उलझाकर वास्तविक मुद्दों से जनता को परे रखते है। मॉब लींचीग, महिला उत्पीड़न, किसान मजदूर हित एवं साम्प्रदायिकत सौहार्द जैसे तमाम मुद्दे जिन पर महात्मा गांधी जीवन पर्यन्त संघर्ष करते रहे उन पर आज की हिटलरशाही सरकारें गांधीजी की आत्मा को चोट पहुंचाती नजर आती है।
महात्मा गांधी जिन्हें राष्ट्रपिता की उपाधि दी गयी, जो जन-जन के नायक थे और जिन्होंने देश के उत्थान के लिए अपना जीवन लगा दिया, हर परिस्थिति में अहिंसा का समर्थन करने वाले गांधीजी की 30 जनवरी 1948 को गोली मारकर हत्या कर दी गई थी।गांधीजी की हत्या से पहले भी कई बार उन्हें जान से मारने की की कोशिश की जा चुकी थी। ऐसी ही एक कोशिश उनकी हत्या से 10 दिन पहले की गई थी।
बापू की काफी करीबी सहयोगी रहीं मनुबेन ने अपनी डायरीनुमा पुस्तक अंतिम झांकी में इसका जिक्र किया है। अपनी डायरी के 20 जनवरी 1948 तारीख वाले पन्ने पर उन्होंने बताया है कि 20 जनवरी की शाम बापू की प्रार्थना के बाद प्रवचन के वक्त एकाएक जोर का धमाका हुआ और सब-लोग यहां-वहां भागने लगे। उन्होंने आगे लिखा है कि वह भी इस धमाके से काफी डर गईं और बापू के पैर पकड़ लिए थे। इस पर बापू ने उनसे कहा – क्यों डर गई? कोई सैनिक लोग गोलीबारी की तालीम ले रहे होंगे। ऐसा कहकर बापू ने प्रवचन जारी रखा।
मनुबेन ने आगे लिखा कि जब सब लोग प्रार्थना के बाद अंदर गए तब पता चला कि यह बापू को मारने का षडयंत्र था। प्रार्थना के दौरान ही 25 वर्षीय मदनलाल नाम के एक शख्स ने यह बम फेंका था। बम फेंककर भागते हुए मदनलाल को प्रार्थना में आयी एक पंजाबी महिला ने पकड़ लिया। पूछताछ में मदनलाल ने बताया कि उसे गांधीजी की सुलह-शांति पसंद नहीं थी। इसलिए गांधीजी को मार डालने के लिए ही उसने यह बम फेंका है। अगले दिन गांधीजी की सुरक्षा के लिए बिड़ला भवन में मिलिट्री रखी गई और तय किया गया कि प्रार्थना में आने वाले लोगों की तलाशी ली जाएगी। लेकिन बापू ने इससे साफ-साफ इनकार कर दिया। सरदार पटेल से काफी वाद-विवाद के बाद उन्होंने कुछ मिलिट्री का पहरा रहने देने की बात मान ली। बाद में मदनलाल के बारे में बोलते हुए महात्मा गांधी ने कहा कि उसे कोई नफरत से न देखे। उसे लगता है कि मैं हिंदू धर्म का दुश्मन हूं जबकि मैं बचपन से ही सभी धर्मों के प्रति समादर दिखाता आया हूं। उन्होंने कहा कि जो दुष्ट होगा उसे सजा देने के लिए भगवान बैठा है।
गांधी की हत्या इसलिए हुई कि धर्म का नाम लेने वाली सांप्रदायिकता उनसे डरती थी. भारत-माता की जड़ मूर्ति बनाने वाली, राष्ट्रवाद को सांप्रदायिक पहचान के आधार पर बांटने वाली विचारधारा उनसे परेशान रहती थी. गांधी धर्म के कर्मकांड की अवहेलना करते हुए उसका मर्म खोज लाते थे और कुछ इस तरह कि धर्म भी सध जाता था, मर्म भी सध जाता था और वह राजनीति भी सध जाती थी जो एक नया देश और नया समाज बना सकती थी।गांधी अपनी धार्मिकता को लेकर हमेशा निष्कंप, अपने हिंदुत्व को लेकर हमेशा असंदिग्ध रहे. राम और गीता जैसे प्रतीकों को उन्होंने सांप्रदायिक ताकतों की जकड़ से बचाए रखा, उन्हें नए और मानवीय अर्थ दिए. उनका भगवान छुआछूत में भरोसा नहीं करता था, बल्कि इस पर भरोसा करने वालों को भूकंप की शक्ल में दंड देता था.गांधी की इसी धार्मिकता के आगे धर्म के नाम पर पलने वाली सांप्रदायिकता खुद को कुंठित पाती थी. गोडसे इस कुंठा का प्रतीक पुरुष था जिसने धर्मनिरपेक्ष नेहरू या सांप्रदायिक जिन्ना को नहीं, धार्मिक गांधी को गोली मारी।
लेकिन मरने के बाद भी गांधी मरे नहीं. आम तौर पर यह एक जड़ वाक्य है जो हर विचार के समर्थन में बोला जाता है. लेकिन ध्यान से देखें तो आज की दुनिया सबसे ज़्यादा तत्व गांधी से ग्रहण कर रही है. वे जितने पारंपरिक थे, उससे ज़्यादा उत्तर आधुनिक साबित हो रहे हैं. वे हमारी सदी के तर्कवाद के विरुद्ध आस्था का स्वर रचते हैं. हमारे समय के सबसे बड़े मुद्दे जैसे उनकी विचारधारा की कोख में पल कर निकले हैं. मानवाधिकार का मुद्दा हो, सांस्कृतिक बहुलता का प्रश्न हो या फिर पर्यावरण का- यह सब जैसे गांधी के चरखे से, उनके बनाए सूत से बंधे हुए हैं।
अनंत उपभोग के ख़िलाफ़ गांधी एक आदर्श वाक्य रचते हैं- यह धरती सबकी ज़रूरत पूरी कर सकती है, लेकिन एक आदमी के लालच के आगे छोटी है. भूमंडलीकरण के ख़िलाफ़ ग्राम स्वराज्य की उनकी अवधारणा अपनी सीमाओं के बावजूद इकलौता राजनीतिक-आर्थिक विकल्प लगती है. बाज़ार की चौंधिया देने वाली रोशनी के सामने वे मनुष्यता की जलती लौ हैं जिनमें हम अपनी सादगी का मूल्य पहचान सकते हैं.
गांधी को मारने वाले गोडसे की चाहे जितनी मूर्तियां बना लें, वे गोडसे में प्राण नहीं फूंक सकते. जबकि गांधी को वे जितनी गोलियां मारें, गांधी जैसे अब भी हिलते-डुलते, सांस लेते हैं, उनकी खट-खट करती खड़ाऊं रास्ता बताती है।
आज उनकी जयंती पर नज़ीर बनारसी द्वारा लिखी गई नज्म आह गाँधी/ नज़ीर बनारसी
तेरे मातम में शामिल हैं ज़मीन ओ आसमाँ वाले
अहिंसा के पुजारी सोग में हैं दो जहाँ वाले
तेरा अरमान पूरा होगा ऐ अम्न-ओ-अमाँ वाले
तेरे झंडे के नीचे आएँगे सारे जहाँ वाले
मेरे बूढ़े बहादुर इस बुढ़ापे में जवाँ-मर्दी
निशाँ गोली के सीने पर हैं गोली के निशाँ वाले
निशाँ हैं गोलियों के या खिले हैं फूल सीने पर
उसी को मार डाला जिसने सर ऊँचा किया सब का
न क्यूँ ग़ैरत से सर नीचा करें हिन्दोस्ताँ वाले
मेरे गाँधी ज़मीं वालों ने तेरी क़द्र जब कम की
उठा कर ले गए तुझ को ज़मीं से आसमाँ वाले
ज़मीं पर जिन का मातम है फ़लक पर धूम है उन की
ज़रा सी देर में देखो कहाँ पहुँचे कहाँ वाले
पहुँचता धूम से मंज़िल पे अपना कारवाँ अब तक
अगर दुश्मन न होते कारवाँ के कारवाँ वाले
सुनेगा ऐ ‘नज़ीर’ अब कौन मज़लूमों की फ़रियादें
फ़ुग़ाँ ले कर कहाँ जाएँगे अब आह-ओ-फ़ुग़ाँ वाले
(लेखक गांधीवादी विचारधारक है)