पलश सुरजान का सवाल: लोग अपने बहुसंख्यक हिंदू होने पर अल्पसंख्यकों को सताने का हकदार मानने लगे हैं!

भाजपा की प्रवक्ता रही नूपुर शर्मा की पैगंबर मुहम्मद और इस्लाम के खिलाफ आपत्तिजनक और सांप्रदायिक टिप्पणी करने के बाद 10 जून को उत्तर प्रदेश के कई जिलों में हंगामा हुआ था,  हिंसा हुई थी। इसके अगले दिन उप्र पुलिस ने पत्थरबाजी और हंगामा करने वालों की पहचान कर उन्हें हिरासत में लिया। कुछ जगहों पर उनकी पिटाई भी की गई। थाने में पिटाई का ऐसा ही एक वीडियो भाजपा नेता और देवरिया से विधायक शलभमणि त्रिपाठी ने ट्विटर पर शेयर किया था, जिसमें दो पुलिस वाले हिरासत में लिए गये 9 लोगों को बेरहमी से पीट रहे हैं और वो युवक बचने की गुहार लगा रहे हैं।

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शलभमणि त्रिपाठी ने वीडियो शेयर करते हुए लिखा कि ‘बलवाइयों को ‘रिटर्न गिफ़्ट’!’ श्री त्रिपाठी ने बाद में इस वीडियो को हटा दिया, लेकिन एक निर्वाचित जनप्रतिनिधि होने के बावजूद जिस तरह उन्होंने पुलिस के इस कृत्य को रिटर्न गिफ़्ट करार दिया, वह सोच अफ़सोसनाक है और उससे भी ज़्यादा खौफ़नाक है। पुलिस का काम अपराधियों को पकड़ना, अपराध की रोकथाम करना है, उन्हें सजा देने का काम अदालत का है। और हिरासत में इस तरह का बर्ताव संविधान के प्रावधानों के साथ-साथ मानवाधिकारों का भी हनन है। मगर उप्र पुलिस ने या तो अपने अधिकारों की ताकत या फिर सत्ता की जी हूजूरी में इन नीतिगत बातों पर ध्यान देना शायद जरूरी नहीं समझा। और ये पहली बार नहीं है, जब पुलिस के व्यवहार पर उंगलियां उठी हों। गुजरे सालों में बार-बार उत्तरप्रदेश पुलिस के रवैये से साधारण नागरिकों को जिस तरह कष्ट झेलने पड़े हैं, उस पर सवाल उठे हैं।

बहरहाल, थाने में पिटाई के इस वीडियो के बारे में कहा गया था कि यह शायद सहारनपुर का हो सकता है। लेकिन तब एसएसपी आकाश तोमर ने कहा था कि ‘वायरल हो रहा वीडियो सहारनपुर के किसी थाने का नहीं, बल्कि किसी दूसरे जिले का है। जबकि अब सहारनपुर एसपी राजेश कुमार ने कहा है कि वो वीडियो की सत्यता को जानने के लिए जांच करा रहे हैं। अगर वीडियो सही पाया गया तो आरोपियों के खिलाफ निश्चित रूप से कार्रवाई की जाएगी। एसपी का ये बयान आश्चर्यजनक है क्योंकि इससे पहले उन्होंने कहा था कि हमें नहीं पता कि वीडियो कहां का है,  अगर हमें इस संबंध में कोई शिकायत मिलती है तो हम देखते हैं कि आगे क्या किया जा सकता है।’ कितनी अजीब बात है कि अपराध को आंखों के सामने होते देखने के बावजूद इस बात का इंतज़ार किया जाता है कि शिकायत दर्ज होगी, तब जांच शुरु होगी। ख़ैर, अच्छी बात है कि अब जांच होने की बात की जा रही है। अगर निष्पक्ष तरीके से जांच हुई और दोषी पुलिसकर्मियों के बारे में पता लग जाए, तब भी क्या उन्हें सजा होगी, ये देखना होगा।

जनता और क़ानून के रक्षक कैसे खुद लोगों को डराने का काम करते हैं, इसका एक और उदाहरण उप्र की बुलडोज़र कार्रवाई में सामने आया है, जिस में अब जमीयत उलेमा ए हिंद की याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार से कहा है कि निर्माणों को ढहाए जाने की कार्रवाई कानून के मुताबिक ही की जानी चाहिए और वह बदले वाली नहीं होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को 3 दिन का वक़्त दिया है। जिसमें उत्तर प्रदेश सरकार को शीर्ष अदालत को यह बताना होगा कि हाल ही में निर्माणों को ध्वस्त करने की जो कार्रवाई हुई है, क्या उसमें पूरी प्रक्रिया और नगरपालिका के कानून का पालन किया गया है। पाठकों को याद होगा कि इससे पहले दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाके में हुई बुलडोजर कार्रवाई में भी शीर्ष अदालत ने उत्तरी दिल्ली नगर निगम को यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया था और नोटिस भी जारी किया था।

सरकार के फ़ैसले और पुलिस के कृत्य अदालत तक पहुंचें, यह सुशासन की पहचान नहीं है। लेकिन इस वक़्त भारत में जिस तरह के हालात बनते जा रहे हैं, उसमें यही दिख रहा है कि लोगों को सरकार पर यह भरोसा नहीं रह गया कि वह विचारधारा, जाति, धर्म या संप्रदाय की भिन्नता के बावजूद सबके साथ निष्पक्ष व्यवहार रखेगी। जो सरकार के विरोधी हैं, उनका उत्पीड़न होगा, यह आम भावना बन चुकी है। पुलिस भी अब लोगों की मदद करने की जगह उन्हें डराने के काम में लाई जा रही है।

उत्तरप्रदेश के साथ-साथ दिल्ली में भी पुलिस का लाठीतंत्र लगातार देखने मिल रहा है। अभी राहुल गांधी के समर्थन में उतरे कांग्रेस नेताओं के साथ पुलिस जिस तरह का व्यवहार कर रही है, वह किसी नजरिए से सही नहीं कहा जा सकता। बुधवार को तो दिल्ली पुलिस सरकार के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन रोकने के लिए कांग्रेस मुख्यालय के भीतर ही पहुंच गई और वहां मौजूद पत्रकारों से भी बदसलूकी हुई। इससे अच्छी मिसाल नहीं बन रही है।

अभी देश में कई जगहों पर अग्निपथ योजना के खिलाफ युवाओं का गुस्सा फूट पड़ा है और विरोध-प्रदर्शन कई जगह सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने वाला और हिंसक भी हो चुका है। युवाओं के आक्रोश को थामने के लिए फिर से सरकार पुलिस को ही आगे करेगी, जैसे अब तक सीएए, एनआरसी, शाहीन बाग, किसान आंदोलन या नौकरी के लिए परीक्षाओं में गड़बड़ी पर प्रदर्शन के दौरान किया गया है।

पुलिस का काम देश में कानून व्यवस्था और शांति बनाए रखना ही है, लेकिन इस फ़र्ज़ पर जब सरकार के हुक्म बजाने का मर्ज चढ़ जाए, तो इससे पूरा देश बीमार हो जाएगा। इस वक्त इस बीमारी के तरह-तरह के लक्षण हम देख रहे हैं, जिसमें कहीं राजनेता अपने हाथ में कानून ले रहे हैं, जैसे उमा भारती ने शराब दुकान पर पत्थर फेंकने के बाद अब गोबर फेंका, या फिर लोग अपने बहुसंख्यक हिंदू होने पर अल्पसंख्यकों को सताने का हकदार मानने लगे हैं, जैसे गौरक्षा के नाम पर भीड़ की हिंसा, या कि खुद पुलिस सत्ता-साधन संपन्न लोगों को बचाने के लिए कमजोरों का उत्पीड़न करने लगी है। कानून व्यवस्था को अशक्त बनाने वाली इस धौंस वाली महामारी की जल्द रोकथाम जरूरी है।

(लेखक देशबन्धु अख़बार के संपादक हैं)