ज़हरजीवियों के ख़िलाफ सख्त कार्रावाई नहीं होती, यानी सरकार इस नफरती कारोबार की सहयोगी है!

एक तरफ भगवान राम के मंदिर के बहाने अयोध्या में चंदे के अरबों रुपये और जमीनों की मची लूट सामने आई है तो दूसरी तरफ भगवान शिव के दरबार हरिद्वार में एक ” अधर्म संसद” का आयोजन करके सरेआम नरसंहार का आह्वान किया गया है। धर्म की राजनीति ने दुनिया में कहीं भी, किसी कौम का भला नहीं किया। धर्म की राजनीति बिना घृणा के संभव नहीं होती और अंततः यह तबाही लाती है। भारत तेजी से उस तबाही की ओर बढ़ रहा है।

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दो साल से ज्यादा वक्त हो चुका है। कोरोना आने के पहले से अर्थव्यवस्था ध्वस्त चल रही है। बेरोजगारी ने 50 साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। करोड़ों लोग बेरोजगार हो गए हैं। देश के 23 करोड़ लोग एक साल के अंदर गरीबी रेखा से नीचे चले गए हैं। हालात सुधरने की जगह दिन-ब-दिन और खराब हो रहे हैं। 50 साल बाद भारत फिर मास पावर्टी यानी सामूहिक गरीबी में चला गया है।

केंद्रीय सत्ता के पास आपको देने के लिए अब कुछ नहीं है। वे अपना सर्वश्रेष्ठ दे चुके हैं। उनके पास सबसे अच्छी एक ही चीज है, वह है नफरत। उन्होंने पूरे समाज को नफरत से भर देने की भरपूर कोशिश की है, अब भी कर रहे हैं। मंच सजा कर खुलेआम नरसंहार का आह्वान किया गया लेकिन एक अदद केस तक दर्ज नहीं हुआ है। यानी सरकार इस नफरती कारोबार की सहयोगी है।

पहले हमसे कहा गया कि हिंदू एकजुट होकर वोट करें। आपको विकास का लालच दिया गया। इससे उनको सत्ता मिल गई। अब वे कह रहे हैं कि दूसरे समुदाय से नफरत करो और उन्हें मारने का आह्वान कर रहे हैं। अब हम सबके सामने वे सवाल सिर उठाएंगे कि हिंदुओं का धर्म क्या है? क्या सरेआम नरसंहार का आह्वान करना धर्म है?  क्या अपने ही देशवासियों से नफरत करना धर्म है? क्या निर्दोष-निरीह लोगों को मारना धर्म है? क्या कमजोर को कुचलना धर्म है? क्या लोगों में धार्मिक विभाजन पैदा करके कुर्सी हथियाना धर्म है?

यह धर्म नहीं है। यह अधर्म है। यह हिंदुओं की आस्था नहीं है। यह संघियों का हिंदुत्व है। यह एक राजनीतिक विचारधारा है। इसका एक राजनीतिक मकसद है। वे हिंदू नहीं हैं। वे हिंदुओं की आस्था, उनके धर्म, उनकी संस्कृति के सियासी लुटेरे हैं। हिंदू और हिंदुत्व की बहस को एक न एक दिन खुलकर सामने आना था। बुद्धिजीवी और राजनीतिक पार्टियां इससे बच रही थीं। वे ध्रुवीकरण से घबरा रही थीं। लेकिन हिंदुत्ववादी जिस तरह लगातार धर्म और लोगों की आस्थाओं का दोहन कर रहे हैं, जिस तरह से लूट रहे हैं, यह बहस अब और टाली नहीं जा सकती थी।

अब देश के हर हिंदू को यह तय करना पड़ेगा कि उसका धर्म क्या है। धर्म ईश्वर में आस्था को धरना करने का नाम है या मन में, विचार में, कृत्य में नफरत धारण करके किसी संगठन को सत्ता में पहुंचाना?

(लेखक पत्रकार एंव कथाकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)