गौतम शर्मा
जो हार कर भी जीत जाये उसे बाज़ीगर कहते है। आपको शाहरुख़ खान याद आ गए, हमें उनके नाना मेजर जर्नल शाहनवाज़ और उनके पिता ताज मोहम्मद खान। एक नेताजी सुभाष चंद्र बोस का बन्दुक लिए सिपाही तो दूसरा खान अब्दुल गफार खान का अहिंसक सिपाही। भारतीय आजादी आंदोलन के दो वीर, जो देश के लिए कुर्बान होने निकले और बिना माफ़ी मांगे अनन्त कष्ट सहते हुए आजादी को खींच लाये।
आजाद हिंद फ़ौज मे मेजर जर्नल शाहनवाज़ की टीम मणिपुर के मोरांग मे तिरंगा लहरा अभी आगे बढ़े ही थे कि जापान युद्ध हार गया। भारी बरसात के कारण एक साथ दो मोर्चे पर लड़ रहे आजाद हिंद फ़ौज के ये योद्धा गिरफ्तार कर लिए गए। इन्हे लाल किला ला देशद्रोह का मुकदमा क़ायम किया गया। कांग्रेस के नेतृत्व मे इनके बचाव के लिए वकीलों की फ़ौज खड़ी की गई, जिसमें जवाहरलाल नेहरू स्वम मौजूद रहे।
देश मे उसी समय साम्प्रदायिक ताकते भी अपने उरोज पर थी। जो आजादी की लड़ाई से बाहर रहते हुए देश को दंगो मे झोकने के ताक मे थे, मेजर जनरल शाहनवाज को मुस्लिम लीग और ले कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लन को अकाली दल ने अपनी ओर से मुकदमा लड़ने की पेशकश की, लेकिन इन वतनपरस्त सिपाहियों ने कांग्रेस द्वारा जो डिफेंस टीम बनाई गई , उसी को ही अपने मुकदमे की पैरवी करने की मंजूरी दी।
57 दिनों तक चला यह मुकदमा कौमी एकता का प्रतिक बन कर उभरा | इस मुकदमे के दौरान जब लाल किले में कांग्रेस बहस कर रही होती तो सड़कों पर हजारों नौजवान नारे लगा रहे होते ‘लाल किले से आई आवाज…सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज़’।
शाहनवाज़ जो पहली बार लाल किले से यूनियन जैक उतार तिरंगा लहरा दिए, उसको अपने दोस्त सुभाष चंद्र बोस की याद मे नेहरू ने जिंदा रखा। 15 अगस्त 1947 को आजाद भारत मे लाल किले से तिरंगा फहरा कर।
जब देश बटवारे के दर्द से गुजर रहा था ये दोनों देशभक्त पाकिस्तान छोड़ भारत आये, सांप्रदायिक विचार को हरा सेक्युलर भारत मे, जिन्ना को छोड़ गाँधी के भारत मे, जहाँ गाँधी की हत्या कर दी गई, जहाँ सेक्युलरिज्म की हत्या की जा रही है। लाइन स्पष्ट है जो आजादी आंदोलन मे लड़ रहे थे वो फिर लड़ रहे हैं। जो आजादी आंदोलन मे साम्प्रदायिकता फैला रहे थे वो आज भी वही कर रहे हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)