फर्जी डिग्री से लेकर फर्जी विज्ञापन तक, सब कुछ झूठ पर ही टिका है

2014 के बाद देश की राजनीति में सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन यह आया है कि झूठ या फर्जीवाड़ा, जो पहले लुकछिप पर कुछ अपराध बोध के साथ बोला या किया जाता था, वह अब अयां होने लगा है। खुलकर होने लगा है। राजनीति में सत्य और असत्य का भेद वैसे भी कभी नहीं रहा है और अपने मूल तत्वो साम दाम दंड भेद के ही अनुसार दुनिया भर की राजनीति चलती रही है और अब भी चल रही है, पर जो पहले एक अपराध बोध के कारण, झूठ और फरेब का व्यापार, जो थोड़ा पोशीदा होता था वह अब सरे आम होने लगा है। हमारे शास्त्रों में बिखरे तमाम सुभाषितों के बावजूद हम एक पाखंडी समाज ही बनते जा रहे हैं। सरकारें पहली बार नहीं झूठ बोलने लगीं हैं और न ही उनका यह पतन अचानक हुआ है। सरकारें पहले भी झूठ बोलतीं थी, मिथ्या वादे करती थी, और जनता को बरगलाने की कोशिश करती थीं, पर जनता ऐसे कोशिशों के खिलाफ जब उठती थी तो वे सहम भी जाती थी। अब जनता का एक हिस्से उंस झूठ और फरेब का बचाव करता है, उसके साथ खड़ा दिखता है और उसे राजनीति का स्थायी भाव मान बैठता है।

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इधर एक परिवर्तन साफ साफ दिखने लगा है कि, जनता यह जानते हुए भी कि, सरकार झूठ बोल रही है, झूठा वादा कर रही है, और साफ साफ बरगला रही है, उनमे से सरकार के समर्थक, सरकार के इसी झूठ और फरेब के साथ न केवल निर्लज्जता के साथ खड़े रहते हैं बल्कि उसको बेहद नग्नता और अश्लीलता के साथ डिफेंड भी करते हैं। सरकार का समर्थन करना कोई बुरी बात नही है। सरकार बनती ही है बहुमत में आने पर तो उसके समर्थकों की संख्या भी स्वाभाविक रूप से अधिक ही होगी, पर चिंताजनक यह है कि सरकार के जनविरोधी कदमों और उसके झूठे वादों और दावों का भी समर्थन उनके समर्थकों द्वारा किये जाने की एक अलोकतांत्रिक परिपाटी विकसित हो गयी है जो सरकार को और ढीठ तथा निरंकुश ही बना रही है। सरकार के झूठ, फरेब और फर्जीवाड़े को जानते हुए भी सहन करते रहना तथा इसे डिफेंड करना, दुनियाभर में किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था को, धीरे धीरे निरंकुश तानाशाही में बदल देता है। यह स्थिति जनता के लिये घातक तो होती ही है, अंततः सत्ता भी इसी कीचड़ भरे दलदल में कभी न कभी अधोगति को प्राप्त हो जाती है। पर तब तक देश, समाज और जनता का बहुत कुछ नुकसान हो चुका होता है।

आप को याद होगा, एक बार गृहमंत्री अमित शाह ने जब वे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे तो, गर्व से कहा था कि, उनके पास एक ऐसा तँत्र है कि, जो भी बात वह फैलाना चाहें कुछ ही घँटों में वे पूरे देश मे फैला सकते हैं। मैं उनके इस आत्मस्वीकृति की प्रशंसा करता हूँ कि उन्होंने यह बात झूठ नहीं कही है। निश्चित रूप से उनके इस कथन में गोएबेल की प्रतिध्वनि सुनाई देगी कि एक झूठ को सौ बार बोलो वह सच लगने लगेगा। भाजपा ने एक ऐसे ही आईटी सेल का गठन भी किया, जिसके द्वारा, संगठित रूप से सोशल मीडिया के माध्यम से इतिहास, स्वाधीनता संग्राम, धर्म, राजनीति आदि विविध विषयो पर, जबरदस्त दुष्प्रचार फैलाये जाने लगे। इस दुष्प्रचार ने न केवल युवा मस्तिष्क को ही संक्रमित किया बल्कि पढ़े लिखे और वरिष्ठ लोग भी इस झांसे में आ गए और फिर जो गोएबेलिज़्म फैला वह संगठित झूठ का एक विश्वविद्यालय ही बम गया जिसे नाम दिया गया व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी। यह नामकरण किसने किया है यह मुझे पता नही, पर व्हाट्सएप संगठित झूठ और दुष्प्रचारवाद का आज सबसे बड़ा माध्यम बन गया है। हिटलर के कार्यकाल की तरह इस संगठित झूठ ने भी जनता को बुरी तरह से संक्रमित किया। जब तक इस झूठ की काट या फैक्ट चेक किया जाता, तब तक झूठ आधी दुनिया घूम चुका होता है। यह अधिकांश जनता का मस्तिष्क इसी मिथ्यावाचन को ही सच मानने के लिये प्रोग्राम्ड कर चुका है।

लोकतंत्र में मीडिया की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है जो जनता को अभिव्यक्त करने के लिये न केवल एक प्लेटफार्म उपलब्ध कराती है बल्कि वह सभी झूठ और फरेब को बेनकाब कर के सच जनता के सामने लाती है। अधिकांश मीडिया यह दावा भी करती है कि वे सच ही दिखाते और पढ़ाते हैं। पर इसी अवधि में हमने कुछ मीडिया हाउस का एक ऐसा उभरता हुआ चेहरा भी देखा है जो न केवल, गोएबेलिज़्म को संरक्षित करते हुए दिख रहा है, बल्कि वह उस का शरीके जुर्म भी है। याद कीजिए जब कुछ बेहद लोकप्रिय और नम्बर एक का दावा करने वाले न्यूज चैनलों ने ₹ 2000 के नोट में चिप की बात की थी। यह भी कहा था कि कहीं भी यह नोट रखे रहें तो, उन्हें एक तक तकनीक के माध्यम से जाना जा सकता है। इस विलक्षण और विचक्षण रिपोर्टिंग पर, तब भी किसी को यकीन नहीं हुआ और न आज भी किसी को यकीन है, पर हम सबने इसे स्वीकार कर लिया। निर्लज्जता की पराकाष्ठा भी देखिए आज तक उन चैनलों ने यह झूठा प्रोपेगेंडा दिखाने के लिये अपने दर्शकों से माफी तक नही मांगी। दरअसल मीडिया का यह गोएबेलवादी कबीला यह समझ चुका है हम, यह सब आसानी से झूठ है, जानते हुए भी, स्वीकार करने के लिये प्रोग्राम्ड हो चुके है और इसे भी नजरअंदाज कर जाएंगे। दुष्प्रचारवाद का पहला ही सिद्धांत यह होता है कि जनता का मस्तिष्क किसी भी कूड़ा करकट को स्वीकार कर ले, बिना एक भी सवाल उठाए और बिना उसकी पड़ताल किये। सवाल उठाना धीरे धीरे ईशनिंदा की तरह समझा जाने लगता है और तर्क न करने, सवाल न उठाने की एक घातक आदत हमारे मस्तिष्क को पड़ जाती है, जिसका लाभ सत्ता उठाती है और वह धीरे धीरे ठस, अहंकारी और गैरजिम्मेदार होते हुए तानाशाही में बदलने लगती है। इसमे दोष सत्ता का कम, हमारी चुप्पी का अधिक होता है।

 

एक स्थिति ऐसी भी आ जाती है जब इन सब मिथ्यावाचनों को नियति मानकर हम, स्वीकार करने लगते हैं। सरकार का समर्थन करना यदि मजबूरी हो तो भी, ऐसे झूठ और फरेब का बचाव करना कौन सी मजबूरी है, यह  सवाल, सरकार के समर्थकों से पूछा जाना चाहिए। दरअसल सत्ता चाहे लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनी जाय या जबरन जनता पर लद जाय वह मूलतः अहंकारी और एकाधिकारवादी होती है। जबरन लद जाने वाली सत्ता को तो जबरन उतारना पड़ता है पर लोकतान्त्रिक रूप से चुनी हुयी सरकार को देश के संविधान और सत्तारूढ़ दल के घोषणापत्र के अनुसार काम करने के लिये लोकतांत्रिक रूप से बाध्य करना पड़ता है। यह तभी संभव है जब, लोग, सतर्क, सजग औऱ सचेत रहे। लोग न तर्कयुक्त रहे, न जगे रहें और न ही चैतन्य रहें, यह अधिकतर वे सरकारें चाहती हैं, जिनके अवचेतन में तानाशाही के वायरस संक्रमित हो रहे होते हैं। आज यदि किसी भी संगठित झूठ और फरेब, चाहे वह सरकार की तरफ से आये या मीडिया की तरफ से या किसी संगठन की तरफ से या किसी दल की तरफ से, के प्रति आप सजग, सचेत और सतर्क नहीं हैं तो, निश्चय ही यह देश, समाज और भविष्य के प्रति घातक होगा।

दुष्प्रचार या गोएबेलिज़्म का संक्रमण केवल मीडिया के इन चाटुकारिता भरे प्रोग्राम और हाल ही में दिए गए यूपी सरकार द्वारा इंडियन एक्सप्रेस में छपे विज्ञापन में ही नही है बल्कि वह इतिहास में भी गहरा पैठ गया है। इतिहास में गोएबेलिज़्म कितना गहरा और कितनी बड़ी साजिश के साथ इंजेक्ट किया गया है, इस पर एक किताब लिखी जा सकती है, पर मैं यहां एक उदाहरण भगत सिंह से जुड़ा देना चाहूंगा। सोशल मीडिया पर एक तस्वीर, पिछले दिनों

खूब दिखी, जिंसमे, दिख रहे व्यक्ति के हाथ बंधे हैं और उसके पास एक पुलिस अफ़सर खड़ा हुआ दिख रहा है। यह दावा किया जा रहा है कि,  तस्वीर में खड़े युवा, शहीदे आज़म  भगत सिंह हैं, और खड़ा पुलिस अफसर, ब्रिटिश पुलिस का है, जो उन्हें कोड़े मार रहा है। तस्वीर के नीचे लिखा है, “आज़ादी के लिए कोड़े खाते भगत सिंह जी की तस्वीर उस समय के अखबार में छपी थी ताकि और कोई भगत सिंह ना बने हिन्दुस्थान में..क्या गांधी-नेहरू की ऐसी कोई तस्वीर आपके पास? फिर केसे उनको राष्ट्र पिता मान लू? कैसे मान लूं कि चरखें ने आजादी दिलाई?”

इस फोटो की सच्चाई की जांच प्रतीक सिन्हा की फ़ैक्टचेक वेबसाइट ऑल्टनयूज़ ने की। ऑल्टनयूज़ की वेबसाइट पर किंजल ने एक लेख लिखा और उसमे इस फोटो जो दुष्प्रचार का ही एक माध्यम है को झूठ पाया। इस फ़ोटो को कुछ लोगों ने ट्वीट भी किया। औऱ लिखा, अपने देश की आजादी के लिए कोड़े खाते भगत सिंह की तस्वीर। और हमें झूठ पढ़ाया गया कि अंग्रेजों की बग्गी में घूमने वालों ने देश आजाद कराया।

pic.twitter.com/sIHWDGlWOo

— DK Chauhan (@dkchauhan2021) July 20, 2021

2020 में ट्विटर यूज़र उमंग ने ये तस्वीर भगत सिंह की बताते हुए ट्वीट की थी। ऑल्टनयूज़ की किंजल ने इस खबर और फ़ोटो की फ़ैक्ट-चेक की तो यह तथ्य सामने आए। “रिवर्स इमेज सर्च करने पर ऑल्ट न्यूज़ को 17 अप्रैल 2019 के सबरंग इंडिया के एक आर्टिकल में ये तस्वीर मिली। इस आर्टिकल में कहीं भी भगत सिंह का ज़िक्र नहीं हैं। बता दें कि ये आर्टिकल जलियावाला नरसंहार के बारे में है। 13 अप्रैल 1919 को जनरल डायर ने अमृतसर के जलियावाला बाग में मौजूद लोगों पर गोलियां चलाने का आदेश दिया था।”

आगे लेख में वे लिखती हैं, “4 अप्रैल 2019 के हिस्ट्री टुडे के आर्टिकल में ऐसी ही एक तस्वीर मिली. तस्वीर के साथ बताया गया था कि 1919 के अमृतसर नरसंहार के मद्देनज़र एक व्यक्ति को कोड़े मारे गए। इस आर्टिकल में किम वैगनर की उस किताब का ज़िक्र है जो उन्होंने जलियावाला नरसंहार के बारे में लिखी थी. किम वैगनर ने इस किताब में बताया था कि ये नरसंहार ब्रिटिश राज का पतन की ओर पहला कदम था।”

 

किम वैगनर, ब्रिटिश इतिहासकार है. जिन्होंने 22 मई 2018 को 2 तस्वीरें ट्वीट की थीं और बताया था कि पंजाब के कसूर में लोगों को सार्वजनिक रूप से कोड़े मारे गये थे. उन्होंने बताया कि बेंजामिन होर्निमेन 1920 में ये तस्वीरें चोरी-छिपे भारत से लाये और उन्हें छापा था। बेंजामिन एक ब्रिटिश पत्रकार थे। ट्वीट इस प्रकार है।

 

 

किंजल के लेख के अनुसार, भारतीय इतिहासकार मनन अहमद ने 10 फ़रवरी 2019 को कुछ तस्वीरें ट्वीट की थीं जिसमें ये तस्वीर भी शामिल थी. तस्वीर के साथ बताया गया कि सिख छात्र-सैनिक को सार्वजनिक रूप से कोड़े मारे गए थे।

अब एक ऐतिहासिक तथ्य की ओर ध्यान दें। भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 में हुआ था. यानी, 1919 में भगत सिंह की उम्र 12 साल की रही होगी, जबकि तस्वीर में दिख रहे शख़्स की उम्र 12 से ज़्यादा मालूम होती है।  यहां से यह स्पष्ट दिख रहा है, कि ब्रिटिश पुलिस जिस व्यक्ति को कोड़े मार रही थी वो भगत सिंह नहीं थे। ऑल्टनयूज़ के अनुसार, 2020 में ही द लॉजिकल इंडियन, इंडिया टुडे और फ़ैक्ट क्रेसिंडो ने इस तस्वीर के बारे में फ़ैक्ट-चेक रिपोर्ट छापी थी।

ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि ऐसा दुष्प्रचार करने वाले के मन मे भगत सिंह के प्रति अतिरिक्त अनुराग है और वह भगत सिंह की विचारधारा के साथ है। न ही वह स्वाधीनता संग्राम की किसी धारा के साथ है। उसका एक ही उद्देश्य है गांधी की स्वाधीनता संग्राम में जो भूमिका थी उसे कमतर दिखाना। गांधी की स्वाधीनता संग्राम में क्या भूमिका थी इस पर यदि कोई स्वस्थ और सारगर्भित अलोचना होती है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। कोई भी व्यक्ति आलोचना से परे नहीं है। पर महज अलोचना करने के लिए इतिहास को दुष्प्रचारवाद या गोएबेलिज़्म का माध्यम बनाया जाय यह अनुचित और अनैतिक तो है ही घातक भी है।

अजीब गवर्नेंस है। अखबार अपनी मर्जी से फर्जी फ़ोटो वाला विज्ञापन छाप दे रहा है। न जाने कौन,पेगासस घुसा कर, पत्रकारों, अफसरों, सुप्रीम कोर्ट के जज से लेकर क्लर्क तक की जासूसी कर ले रहा है। दिल्ली पुलिस टीवी रिपोर्ट के आधार पर चार्जशीट लगा दे रही है। इस झूठ का वे बचाव भी कर रहे हैं! वे झूठ ही नही बोलते हैं और न सिर्फ फ्रॉड और फर्जीवाड़ा ही करते हैं, वे इस झूठ और फर्जीवाड़े को अपनी पूरी ताकत के साथ डिफेंड भी करते हैं। उनके समर्थक, इस झूठ पर ही गर्व करते हैं। फर्जी डिग्री से लेकर फर्जी विज्ञापन तक, सब कुछ झूठ पर ही टिका है, पर यह भी देर तक टिक नहीं पाता है।

(लेखक पूर्व आईपीएस हैं)