लखीमपुर खीरी जिले में, देश के गृह राज्यमंत्री अजय मिश्र टेनी के बेटे, आशीष मिश्र मोनू के ऊपर किसानों की भीड़ पर गाड़ी चढ़ा कर मार देने का आरोप है। वह जेल में है, और इस केस की तफ्तीश पर सुप्रीम कोर्ट में लंबे समय से सुनवाई चल रही है। अदालत ने यह तय किया है कि, एक एसआइटी का गठन किया जाएगा, जिसमे यूपी कैडर के वे, वरिष्ठ आईपीएस अफसर रहेंगे जो यूपी के मूल निवासी न हों और इस तफ्तीश का सुपरविजन हाईकोर्ट के एक रिटायर्ड जज करेंगे जो न तो इलाहाबाद हाईकोर्ट के होंगे और न ही यूपी के मूल निवासी होंगे।
सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश, एक न्यायिक और निष्पक्ष आदेश तो है, पर यह कुछ ऐसे सवाल भी खड़े कर रहा है जो प्रदेश के पुलिस सिस्टम की साख के लिए घातक है। सुप्रीम कोर्ट क्या यह मान चुका है कि यूपी सरकार द्वारा गठित एसआईटी और नियुक्त जज, बिना राजनीतिक दबाव के, इस महत्वपूर्ण और हाई प्रोफाइल हत्या के मामले की जांच नहीं कर सकेंगे ? अगर सुप्रीम कोर्ट इस धारणा पर पहुंच गया है तो इसके लिये कौन दोषी है? ज़ाहिर है पुलिस का नेतृत्व और सरकार। आज तक गृह राज्यमंत्री अजय मिश्र टेनी को उनके पद से हटाया नहीं गया, जबकि उन पर धारा 120 बी, आपराधिक षड़यंत्र का मुकदमा दर्ज है।
1980 में ही धर्मवीर की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय पुलिस कमीशन ने, एक विस्तृत रिपोर्ट में पुलिस पर बढ़ते राजनीतिक दबाव को समझा था और उसके निराकरण के लिये उपाय भी सुझाये थे। पर आज तक कमीशन की उन संस्तुतियों को सरकार ने लागू नही किया जो पुलिस को राजनीतिक शिकंजे से मुक्त कर के एक पेशेवराना रूप देती हैं। यह संदर्भ राज्य पुलिस का है। पर जब राजनीतिक दखलंदाजी की बात की जाएगी तो, हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के प्रमुख, एसके मिश्र का कार्यकाल बढ़ाने के लिये आनन फानन में लाये गए, सेवा विस्तार अध्यादेश की चर्चा ज़रूर होगी।
सुप्रीम कोर्ट में, 14 नवंबर, 2021 को, सरकार द्वारा, केंद्रीय सतर्कता आयोग (संशोधन) अध्यादेश, 2021 के अंतर्गत निदेशक, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के कार्यकाल को 5 साल तक बढ़ाने वाले अध्यादेश को चुनौती देते हुए एक रिट याचिका दायर की गई है। यह कानून के अंतर्गत, 17 नवंबर, 2021 को जारी किए गए एक कार्यालय आदेश के अनुसार, ईडी निदेशक का कार्यकाल, एक वर्ष की अवधि के लिए, यानी 18 नवंबर, 2022 तक बढ़ाने के लिए या आगे तक, जो भी पहले हो, बढ़ा दिया गया है।
अध्यादेश के अनुसार, केंद्रीय सतर्कता आयोग अधिनियम, 2003 की धारा 25 में एक क्लॉज़ जोड़कर, अब पहले के दो साल के कार्यकाल को, 5 साल की अवधि तक बढ़ाने का प्राविधान कर दिया गया है। अध्यादेश के अनुसार, “बशर्ते कि जिस अवधि के लिए प्रवर्तन निदेशक अपनी प्रारंभिक नियुक्ति पर पद धारण करता है, सार्वजनिक हित में, खंड (ए) के तहत समिति की सिफारिश पर और लिखित रूप में दर्ज किए जाने वाले कारणों के लिए, एक एक साल तक बढ़ाया जा सकता है। परंतु यह और कि, प्रारंभिक नियुक्ति में उल्लिखित अवधि सहित कुल मिलाकर पांच वर्ष की अवधि के पूरा होने के बाद ऐसा कोई सेवा विस्तार प्रदान नहीं किया जाएगा।”
यानी जब भी नियुक्ति होगी, तब कार्यकाल, कम से कम 2 वर्ष का होगा, जो पहले भी था। पर अब इस अध्यादेश के अनुसार, एक एक साल कर के और बढ़ाया जा सकता है, पर यह अवधि अधिकतम 5 साल तक ही बढाई जा सकेगी। यानी 2 साल और 1+1+1 कुल 5 साल तक की अवधि रखी जा सकेगी। कॉमन काज की याचिका में कहा गया है कि इस अध्यादेश का उद्देश्य मौजूदा ‘निदेशक ईडी, श्री संजय कुमार मिश्रा का कार्यकाल नवंबर, 2021 में बिना किसी और विस्तार के समाप्त होने वाला था, को आगे बढ़ाना है।’ जबकि विनीत नारायण और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य,1998, 1 एससीसी 226, के केस में, सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई निदेशक के लिए कार्यकाल तय करने की आवश्यकता पर जोर दिया था। याचिकाकर्ताओं ने यह भी बताया कि श्री संजय कुमार मिश्रा, निदेशक ईडी 17/11/2021 को सेवानिवृत्त होने वाले थे और उक्त सरकारी आदेश के द्वारा निदेशक ईडी के रूप में उनके कार्यकाल के लिए एक एक्सटेंशन, उन्हें प्रदान किया गया है। यह सेवा विस्तार, याचिका के अनुसार, उनकी सेवानिवृत्ति से ठीक 3 दिन पहले ही दिया गया है, जो सुप्रीम कोर्ट के विनीत नारायण मामले में दिए गए निर्देशों का स्पष्ट उल्लंघन है साथ ही, यह फंडामेंटल रूल्स, 56 सहित अन्य विभिन्न वैधानिक प्रावधानों के विपरीत है, जिनके अनुसार, निदेशक, ईडी की सेवा का कोई विस्तार नहीं किया जा सकता है। केवल कुछ अपवादों को छोड़ कर, और यह अध्यादेश, किसी अपवाद का उल्लेख भी नहीं करता है।
2006 में, प्रकाश सिंह पूर्व डीजीपी उत्तरप्रदेश, असम और डीजी बीएसएफ ने सुप्रीम कोर्ट में पुलिस सुधारों को, जो राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशें थीं को लागू करने के लिये एक याचिका, सुप्रीम कोर्ट में दायर की थी। उसके निस्तारण में, सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा था कि, पुलिस महानिदेशकों का कार्यकाल तय होना चाहिए यदि वे अपनी अधिवर्षता यानी 60 वर्ष की आयु पूरी करते हैं तब भी उन्हें 2 साल का कम से कम तय कार्यकाल मिलेगा। उसी के बाद केंद्रीय पुलिस बलों में बीएसएफ सीआरपीएफ, और शीर्ष जांच एजेंसियों, सीबीआई, एनआईए के प्रमुखों पर भी यही आदेश लागू हुआ। सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति में तो सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई की भी भूमिका रहती है। याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में इसी मुक़दमे, प्रकाश सिंह और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य, का हवाला दिया है।
याचिकाकर्ताओं ने अपनी याचिका में यह तर्क दिया कि, ‘सेवानिवृत्ति की तारीख से आगे की विस्तारित अवधि निर्धारित होनी चाहिए।’ यह भी याचिका में कहा गया है कि, प्रकाश सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को सेवानिवृत्ति की अंतिम तिथि पर डीजीपी नियुक्त करने की प्रथा को हतोत्साहित किया जाना चाहिए, क्योंकि यह, उक्त अधिकारी को, उसकी सेवानिवृत्ति की तारीख के बाद, दो साल तक जारी रखने की अनुमति देना, सुप्रीम कोर्ट के आदेश की भावना के विपरीत होगा। यह भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि, ‘डीजीपी के पद पर नियुक्त अफसर के लिए सेवानिवृत्ति से पहले कम से कम, छह महीने की सेवा शेष रहनी चाहिए।’ याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया है कि, ईडी निदेशक की नियुक्ति, डीजीपी के समकक्ष होने के कारण, प्रकाश सिंह केस में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन न करना, शीर्ष न्यायालय के निर्देशों की घोर अवहेलना होगी।
आखिर, डीजीपी और इन संवेदनशील जांच एजेंसियों के प्रमुख के तयशुदा कार्यकाल रखने के पीछे सुप्रीम कोर्ट की मंशा क्या थी ? सुप्रीम कोर्ट की मंशा थी कि, जब एक तयशुदा कार्यकाल, इन अधिकारियों को मिलेगा तब वे, अपने दायित्वों का निर्वहन, बिना किसी बाहरी या सरकारी दबाव के कर सकेंगे। चाहे विनीत नारायण का केस हो या प्रकाश सिंह द्वारा दायर याचिका, दोनो में यही प्रार्थना की गयी थी कि, इन महत्वपूर्ण एजेंसियों और राज्य पुलिस के डीजीपी साहबान को, किसी भी प्रकार के, राजनैतिक हस्तक्षेप से मुक्त रखते हुए, अपने प्रोफेशनल दायित्व के निर्वहन के लिये उचित वातावरण प्रदान किया जाय। और सुप्रीम कोर्ट ने यह किया भी।
ईडी यानी प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक की स्थिति बेहद महत्वपूर्ण होती है और उनकी नियुक्ति, सेवा शर्तों, सेवा विस्तार को लेकर कोई विवाद नहीं होना चाहिए। पर इस अध्यादेश से यह साफ जाहिर हो रहा है कि, सरकार ईडी के निदेशक को अपने दबाव में रखना चाहती है। सरकार के आधीन और सरकार के दबाव में रहने का मूल अंतर यह है कि, सरकार ईडी के आंतरिक प्रोफेशनल मामलो में सीधा दखल देना चाहती है। जबकि, ईडी को, बिना भय के, कानूनी प्राविधानों के अनुसार, अपने कर्तव्यों के निर्वहन में सक्षम होना चाहिए और यह तभी सम्भव है जब उसके प्रमुख की नियुक्तियों और सेवा शर्तों में, सरकार का बेजा दखल न हो।
याचिकाकर्ताओं का तर्क है “निदेशक, ईडी जैसी महत्वपूर्ण नियुक्तियों को विभिन्न वैधानिक प्रावधानों के अनुपालन में और इस तरह से किया जाना चाहिए जो हमारी संवैधानिक मशीनरी के अनुरूप हो। वास्तव में, निदेशक ईडी की नियुक्ति भी, सीबीआई के निदेशक के समान, एक पैनल जिंसमे, प्रधान मंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश या उनके नामांकित व्यक्ति से मिलकर बनी एक समिति होनी चाहिए। प्रवर्तन निदेशालय एक शक्तिशाली जांच एजेंसी है, जिसका सीबीआई की तरह ही एक राष्ट्रव्यापी अधिकार क्षेत्र है। एनआईए और प्रवर्तन निदेशालय के प्रमुखों को भी, वही सेवा सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए जो केन्द्रीय जांच ब्यूरो सीबीआई के लिए मौजूद है।”
ईडी के सेवा विस्तार के आदेश में यह अपरिहार्यता नहीं बताई गयी है कि, आखिर वर्तमान ईडी निदेशक, एसके मिश्र को, उनके रिटायरमेंट के ठीक कुछ दिन पहले ही, सेवा विस्तार की ज़रूरत क्यों पड़ी ? याचिका में कहा गया है कि, “यह विस्तार आदेश, विशेष रूप से संस्थागत अखंडता के क्षेत्र में दिमाग के इस्तेमाल का (ऍप्लिकेशन ऑफ माइंड) के प्रयोग का कोई उचित आधार, नहीं दिखाता है। विस्तार के ऐसे आदेशों तर्कपूर्वक प्रस्तुत किया जाना चाहिए। किस समिति की अनुशंसा पर यह सेवा विस्तार किया गया है उसके मिनट्स को भी रिकॉर्ड में रखा जाना चाहिए।”
याचिकाकर्ताओं ने आगे इस जल्दबाजी और मनमानी तरीके पर भी सवाल उठाया है जिसमें अध्यादेश पारित किया गया है क्योंकि, संसद का सत्र दो सप्ताह के भीतर होना था, तो यह कानून संसद में भी तो रखा जा सकता था। लेकिन तब वर्तमान ईडी निदेशक का कार्यकाल नहीं बढ़ाया जा सकता था, क्योंकि वह तो इस आदेश के अभाव में रिटायर हो जाते। यह तो यही बात प्रमाणित करता है कि, सरकार ईडी प्रमुख के रूप में वर्तमान निदेशक एसके मिश्र को ही सेवा विस्तार देना चाहती थी। और तभी यह सवाल उठता है कि आखिर इन्ही को क्यों सरकार ईडी प्रमुख को बनाये रखना चाहती है?
याचिका में इसे ही इन शब्दों में कहा गया है, “जिस तरीके और जल्दबाजी के साथ प्रतिवादी संख्या 4 (निदेशक, ईडी) का कार्यकाल बढ़ाया गया है, यह बताता है कि विस्तार बाहरी कारणों से किया गया है और जनहित को सर्वोपरि ध्यान में रखते हुए नहीं बनाया गया है। यह राष्ट्रीय हित में है कि महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त अधिकारियों के कार्यकाल का विस्तार पारदर्शी तरीके से और कानून के नियम के अनुसार किया जाता है और ऐसी नियुक्तियों को पक्षपातपूर्ण उद्देश्यों और राजनीतिक संरक्षण से अलग किया जाता है।” यह याचिका, चमन लाल, एमजी देवसहयम, अदिति मेहता ने दायर की है और यह सभी पूर्व नौकरशाह रहे हैं।
वर्तमान ईडी निदेशक, एसके मिश्रा को अंतरराष्ट्रीय कराधान मुद्दों से निपटने के लिए वित्त मंत्रालय में संयुक्त सचिव के रूप में कार्य करने के अलावा, आयकर विभाग की जांच विंग में महत्वपूर्ण कार्य करने का अनुभव है। पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम के अधीन वे, गृह मंत्रालय में, संयुक्त सचिव के रूप में भी वे काम कर चुके हैं। उन्हें वोडाफोन अंतरराष्ट्रीय कराधान मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पूर्ववत करने के लिए वित्त मंत्री के रूप में प्रणब मुखर्जी के कार्यकाल के दौरान पूर्वव्यापी संशोधन करने का श्रेय दिया जाता है। वे एक अच्छे और योग्य अधिकारी हैं पर जिस प्रकार से यह अध्यादेश लाया गया है और दो वर्ष के कार्यकाल के बाद टुकड़ों में एक एक साल के सेवा विस्तार का प्राविधान है, उसमे सरकार की नीयत में खोट स्पष्ट दिखता है। ईडी को राजस्व विभाग, वित्त मंत्रालय के अंतर्गत, 1956 में गठित किया गया था। इसका प्रमुख, आम तौर पर, भारत सरकार के अतिरिक्त सचिव के पद और स्थिति के समकक्ष, एक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी को होता है।
जिस तरह से, राज्य पुलिस से लेकर अत्यंत महत्वपूर्ण जांच एजेंसियां, सीबीआई, एनआईए, ईडी आदि पर राजनीतिक दखलंदाजी के आरोप लग रहे है, वह क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम, आपराधिक न्याय प्रणाली की निष्पक्षता और साख के लिए घातक है। सुप्रीम कोर्ट बराबर इस खतरे को महसूस करते हुए अपनी बात कह रहा है, पर जिस प्रकार से राफेल मामले में जांच की मांग पूर्व मंत्री, यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट प्रशांत भूषण द्वारा किये जाने पर, रातोरात सरकार ने तत्कालीन सीबीआई प्रमुख, आलोक वर्मा को हटा दिया था, उससे इस महत्वपूर्ण जांच एजेंसी की साख पर असर पड़ा है। सीबीआई को तो 2013 में ही एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने केज्ड पैरेट (पिंजरे का तोता) कहा था। अब यह अध्यादेश भले ही, कितनी ही सदाशयता से लाया गया हो, पर दो साल के बाद, एक एक साल बढ़ाने का प्राविधान पारदर्शी नहीं है। या तो इसे एकमुश्त 5 साल का कर दिया जाय या फिर फिलहाल जो स्थिति है, उसे ही बरकरार रखी जाए।
(लेखक पूर्व आईपीएस हैं)