फांसी से ठीक पहले भगत सिंह के वकील प्राण नाथ मेहता उनसे मिलने पहुंचे. भगत सिंह ने मुस्कराते हुए स्वागत किया और पूछा, आप मेरी किताब ‘रिवॉल्युशनरी लेनिन’ लाए हैं? मेहता ने उन्हें किताब थमा दी और वे तुरंत पढ़ने लगे. मेहता ने पूछा कि क्या आप देश को कोई संदेश देना चाहेंगे? भगत सिंह ने किताब से पढ़ते हुए ही जवाब दिया, “सिर्फ़ दो संदेश… साम्राज्यवाद मुर्दाबाद और ‘इंक़लाब ज़िदाबाद!”
इसके बाद भगत सिंह ने मेहता से कहा कि वो पंडित नेहरू और सुभाष बोस को मेरा धन्यवाद पहुंचा दें, जिन्होंने मेरे केस में गहरी रुचि ली थी. तीनों क्रांतिकारियों को फांसी के लिए उनकी कोठरियों से बाहर निकाला गया. भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने अपने हाथ जोड़े और अपना प्रिय आज़ादी गीत गाने लगे-
कभी वो दिन भी आएगा, कि जब आज़ाद हम होंगे
ये अपनी ही ज़मीं होगी, ये अपना आसमां होगा.
जेल प्रशासन ने तीनों साथियों का वजन कराया तो तीनों के वज़न बढ़ गए थे. शाम के 6 बजे, कोई धीमी आवाज में गा रहा था, ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है…’ कैदियों को अधिकारियों के आने की आहट चुनाई दी, जेल में ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ और ‘हिंदुस्तान आज़ाद हो’ के नारे गूंजने लगे. तीनों साथियों को ले जाकर एक साथ फांसी के तख्ते पर खड़ा कर दिया गया.
भगत सिंह ने अपनी मां से वादा किया था कि वे फांसी पर चढ़ते हुए ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ का नारा लगाएंगे. लाहौर जिला कांग्रेस के सचिव पिंडी दास सोंधी का घर लाहौर सेंट्रल जेल बगल में ही था. भगत सिंह ने इतनी ज़ोर से ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ का नारा लगाया कि उनकी आवाज पिंडी दास के घर तक सुनाई दी. भगत सिंह की आवाज सुनते ही जेल के सारे कैदी भी इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाने लगे.
एक जेल अधिकारी से कहा गया कि वो मृतकों की पहचान करे. लेकिन फांसी के बाद उस पर इतना बुरा असर हुआ कि उसने पहचान करने से इनकार कर दिया. उसे उसी जगह पर निलंबित कर दिया गया.
जेल के वॉर्डन चरत सिंह से भगत सिंह की खूब छनती थी. फांसी के बाद चरत सिंह धीरे धीरे चलते हुए अपने कमरे में गए और फूट-फूट कर रोने लगे. अपने 30 साल के पुलिसिया जीवन में उन्होंने सैकड़ों फांसियां देखी थीं, लेकिन किसी को ऐसी बहादुरी से मौत को गले नहीं लगाते नहीं देखा था.
भगत सिंह को जब पता चला कि उनके पिता फांसी की सजा को माफ करने के लिए अपील करने वाले हैं तो वे पिता पर बहुत नाराज हुए. उनका कहना था कि ‘इसके लिए मैं आपको माफ नहीं करूंगा.’
भगत सिंह के पिता से लेकर महात्मा गांधी तक ने बार बार यह कोशिश की कि भगत सिंह माफी मांग लें और हिंसा छोड़ने का वादा करें. इस आधार पर अंग्रेजों पर उनकी सजा कम करने या माफ करने का दबाव डाला जा सके. लेकिन भगत सिंह और उनके दो कॉमरेडों ने बार बार पुलिस के सामने, जज के सामने, हर कहीं ऐलान किया था कि ‘युद्ध छिड़ा हुआ है और हम इस युद्ध का हिस्सा हैं. हमें इस पर गर्व है.’ अंतत: तीनों नायकों ने मौत को भी जीत लिया.
यह शहादत बेकार नहीं गई. भगत सिंह और साथियों की शहादत ब्रिटिश साम्राज्य की ताबूत में आखिरी कील थी. इस महान शहादत के 16 साल बाद भारत की जनता ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को दफना दिया. देश के सच्चे हीरो को शत शत नमन!