आक्रामक राष्ट्रवाद: फासिज़्म की तासीर ऐसी ही होती है!

भारत की अर्थव्यवस्था और शिक्षा की भूमिका पर दिए अपने व्याख्यान में, अर्थशास्त्री कौशिक बसु ने भारत की तुलना अर्जेंटीना से करते हुए कहा कि, “1862 के बाद अर्जेंटीना की अर्थव्यवस्था में तगड़ी वृद्धि दर देखने को मिली थी। 1920 के दशक में अर्जेंटीना की अर्थव्यवस्था काफ़ी मज़बूत हो गई थी और तब अर्जेंटीना अमीर देशों में गिना जाने लगा था। अर्जेंटीना की अर्थव्यवस्था में उभार का श्रेय वहाँ के बुद्धिजीवियों को दिया गया लेकिन 1930 के दशक में एक रूढ़िवादी और तानाशाही प्रवृत्ति की सरकार वहा सत्ता में आई और वहा की अर्थव्यवस्था में गिरावट आनी शुरू हो गई। इस सरकार ने अंध-राष्ट्रवाद की वकालत की, नतीजा यह हुआ कि देश की अर्थव्यवस्था पटरी से उतर गई। अर्जेंटीना ने अंधराष्ट्रवाद के कारण शिक्षित लोगों के लिए दरवाज़ा बंद कर दिया था और इसका सीधा असर वहाँ की अर्थव्यवस्था पर पड़ा। अर्जेंटीना का यह संदर्भ भारत के लिए एक चेतावनी है।”

Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!

कौशिक बसु के इस भाषण का संदर्भ बीबीसी की एक रिपोर्ट में है। फिलहाल देश की सत्ता जिस राजनीतिक दल की है, उसकी राजनीतिक विचारधारा, अंध राष्ट्रवाद और धार्मिक कट्टरता के इर्दगिर्द घूमती है। अर्जेंटीना की तुलना में हम एक बहुजातीय, बहुधार्मिक, बहुभाषिक, बहुसांस्कृतिक बहुलतावादी समाज हैं जिसकी सदियों पुरानी एक प्रवाहमान सभ्यता रही है। जिस राष्ट्रवाद की आज पैरवी की जा रही है वह राष्ट्रवाद, भारतीय परंपरा से उद्भूत राष्ट्रवाद नहीं बल्कि बीसवीं सदी का यूरोपियन फासिस्ट राष्ट्रवाद के मॉडल से प्रेरित और उस पर आधारित है। उस राष्ट्रवाद में राष्ट्र की आर्थिक उन्नति, विकास, सामाजिक समानता और समरसता की बात ही नहीं की जाती है बल्कि एक उन्मादित, अतार्किक और प्रतिशोधात्मक समाज का सपना देखा जाता है।

आप को इस पागल राष्ट्रवाद ने ऐसे दुष्चक्र में फंसा दिया है कि, यदि आप की कोई तयशुदा, नियमित कमाई, वेतन या पेंशन है तो थोड़ी गनीमत है, पर उसपर भी कुछ बचा कर गाढ़े वक़्त के लिये रखना चाहें तो, उस बचत मे कोई वृद्धि नहीं होनी है, बल्कि वह धन धीरे धीरे कम ही होती जाएगी।

एक आर्थिक आकलन पढ़िए

देश में महंगाई 8% है और बैंक में जमा करने पर 4.8% रिटर्न मिलता है। अब या तो जनता अपनी गाढ़ी कमाई शेयर में डाले तो व्यापारी के पास रखे। बैंक में डाला तो भी कम ब्याज की वजह से, व्यापारी के पास गया। लोन लेके कम्पनी डूबी तो सरकार Write Off कर देगी। और शेयर डूबे तब भी नुकसान।

राष्ट्रवाद कोई विचारधारा नहीं है। यह मूलतः यूरोपीय फासिज़्म के समय की विकसित सोच है जो श्रेष्ठतावाद पर आधारित है। श्रेष्ठतावाद, हर दशा में भेदभावमूलक समाज ही बनाता है। इसी कौमी श्रेष्ठतावाद की सोच पर जिन्ना और सावरकर का द्विराष्ट्रवाद खड़ा हुआ था और परिणामस्वरूप, भारत विभाजित हुआ। 1940 से 1945 तक के इन पांच सालों का इतिहास पढियेगा, विशेषकर सुभाषचंद्र बोस औऱ हिन्दू महासभा के बीच के रिश्तों का तो आप सत्य से रूबरू होंगे और एक फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद जो जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद का ही सहोदर था का भी असल चेहरा देखेंगे। कमाल का राष्ट्रवाद है इनका। कभी सारी खूबी ब्रिटिश साम्राज्यवाद में इन्हे दिखाई देती थी। इतनी खूबी कि, आजादी के आंदोलन का विरोध, उनकी मुखबिरी, और तो और फंडिंग भी उन्हीं की। अब आज़ादी के अमृत काल में सारी खूबियां इन्हे, इजराइल में दिखने लग रही हैं। फासिज़्म की तासीर ऐसी ही होती है।

कौशिक बसु की बात पर यदि गंभीरता से मनन किया जाय तो आज की बिगड़ती आर्थिक स्थिति के कारणों तक पहुंचा जा सकता है। आज आर्थिक स्थिति के बिगड़ने का ही एक परिणाम है कि हम सेना जैसी महत्वपूर्ण संस्था का खर्च बचाने के लिए सैनिकों की नियमित भर्ती न करके राग अग्निपथ का गुणगान कर रहे हैं और संविदा पर नौकरी का एक नया चलन लगभग सभी सेवाओं में लाने की बात भी उठने लगी है। सरकार को यह सोचना चाहिए कि आठ सालों के कार्यकाल में सरकार का वित्तीय प्रबंधन इतना अकुशल क्यों रहा कि वित्त के हर मोर्चे से बुरी खबरें ही आ रही है?

(लेखक पूर्व आईपीएस हैं)