आज़मगढ़: शहरों से गावों की तरफ मजदूरों का पलायन जारी है। बिना किसी टेस्ट के मजदूरों की गाँव वापसी से आने वाले मजदूरों की कुआरंटीन की कोई व्यवस्था नहीं है। बहुसंख्य मजदूरों के पास अपने घरों में होम कुआरंटीन होने की सुविधा नहीं है। ऐसे कई मामले सामने आए हैं जहां लौटने वाले मजदूर गावों के बाहर खेतों और बंजरों में खुले आसमान के नीचे कुआरंटीन हैं।
रिहाई मंच प्रभारी मसीहुद्दीन संजरी ने कहा कि इन परिस्थितियों में होम कुआरंटीन होने की सलाह देकर खुले तौर पर राज्य अपने दायित्वों से फरार है। सरकार नहीं चाहती कि मजदूर सड़कों पर दिखाई दें। उसे अपनी बदनामी का भय है। सही भी है हमारी सड़कों का नजारा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनामी का कारण बन रहा है। यह स्थिति क्यों और कैसे पैदा हुई इस पर बहस होती रहेगी और हो भी रही है। लेकिन इस समय सबसे बड़ा सवाल मजदूरों के साथ-साथ जिन आबादियों में वे जा रहे हैं उनको संक्रमण से बचाना है।
मजदूर जिस अमानवीय स्थिति में रहे हैं उससे यह संभावना बिल्कुल बनती है कि उनमे कई संक्रमित भी हों। इन मजदूरों का कोई लेखाजोखा अभी भी नहीं रखा जा रहा है। सबसे बड़ी ग़लती तो यह की गई कि घर का रुख करने से पहले इनका कोरोना टेस्ट नहीं कराया गया। उससे बड़ी ग़लती यह की जा रही है कि इनके कुआरंटीन करने की पर्याप्त व्यवस्था नहीं की गई है।
एक तरफ कुआरंटीन सेंटरों की अव्यवस्था ने मजदूरों में इन सेंटरों के प्रति भय उत्पन्न कर दिया है तो दूसरी तरफ ग्रामवासी संक्रमण फैलने के डर से ग्रस्त हो रहे हैं। इसी भय और अज्ञानता के चलते कई मजदूर कुआरंटीन सेंटरों के नाम से ही भयभीत हैं। यह स्थिति सामाजिक त्रासदी का रूप न ले-ले इससे पहले स्थिति से निपटने के लिए बहुत कुछ करने के जरूरत है। 50 दिनों तक अमानवीय जीवन जीने के बाद मजबूरी में किसी तरह घर लौटने वाले मजदूरों के सिर संक्रमण फैलाने का ठीकरा नहीं फोड़ा जाना चाहिए।