इन दिनों पूरे देश में ‘अग्निपथ’ योजना के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हो रहा है। उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा और तेलंगाना जैसे राज्यों में बेरोजगारी से परेशान युवा सड़कों पर निकल आए हैं। उनका गुस्सा इस बात का संकेत है कि नौजवान बेरोज़गारी की वजह से त्रस्त हैं। ऐसा लगता है कि देश की बुनियादी समस्याओं का समाधान करना भाजपा सरकार की पहली प्राथमिकता नहीं है। उन्हें रोजगार पैदा करने से ज्यादा बड़े बड़े पूंजीपतियों की तिजोरी भरने और चुनाव जीतने की चिंता है। 2014 के आम चुनाव से ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आगरा से एक रैली को ख़िताब करते हुए कहा था कि “अगर भाजपा सत्ता में आती है, तो वह एक करोड़ नौकरियां देगी, जो यूपीए सरकार पिछले लोकसभा चुनाव से पहले घोषणा करने के बावजूद नहीं कर पाई थी।”
देश के युवाओं ने मोदी को एक नहीं बल्कि दो मौके दिए। लेकिन आठ साल सत्ता का सुख भोगने के बाद भी प्रधानमंत्री मोदी जनता को रोजगार देने में बहुत हद तक विफल रहे हैं। एक बार तो उन्होंने पकौड़ा तल कर रोज़गार पैदा करने की बात कर बेरोज़गार नौजवानों के ज़ख़्म पर नमक रगड़ा था। उनके शासनकाल में निजीकरण की गति तेज होती गई है। सरकारी नौकरियों को एक साज़िश के तहत नष्ट किया जा रहा है, जिसकी सब से ज़्यादा मार दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों पर पड़ी है।
सोशल नेटवर्क, जाति और सांस्कृतिक पूँजी का इस्तेमाल कर स्वर्ण जातियाँ अपना काम पब्लिक सेक्टर से लेकर प्राइवेट सेक्टर तक निकाल लेती हैं, मगर बहुजनों की एक मात्र उम्मीद सरकारी नौकरी होती है। व्यापार, फ़िल्म, मीडिया सब जगह ऊँची जाति के लोग ही भरे पड़े हैं। अब फ़ौज की नौकरी को भी चार साल तक सीमित कर सरकार ने देश के नौजवानों की कमर तोड़ दी है। कहने की ज़रूरत नहीं है कि इससे ज़्यादा नुक़सान बहुजन नौजवानों को ही होगा। क्या यह सच नहीं है कि किसी बहुजन के लिए फ़ौज में नौकरी पाना लिए ब्रह्मणवादी मीडिया में नौकरी पाने से ज़्यादा आसान होता है?
फ़ौज की नौकरी करने की बाद, बहुजन और हाशिए के लोग अपनी स्थिति को थोड़ा ‘इम्प्रूव’ करने में कामयाब हुए हैं। जो लोग फ़ौज में जाते हैं, उनकी आने वाली पीढ़ियाँ थोड़ी बहुत बहुत आगे और बढ़ जाती हैं। इतिहास में पीछे जा के देखा जाए तो तो फ़ौज में नौकरी करने की वजह से ही महाराष्ट्र की अछूत महार जातियों की स्थिति बेहतर हुई। अगर डॉ. भीमराव अम्बेडकर के घर वाले फ़ौज में नौकरी नहीं पाते तो शायद अम्बेडकर को वह मौक़ा नहीं मिल पाता जो उन्हें मिला। अन्य वंचित समाज जैसे ईसाई, मोपला, अहीर, जाट, आदिवासी और अछूत जातियों को भी भारत की फ़ौज में जगह मिली और उन्होंने ने भी अपनी स्थिति सुधारी। अब अब फ़ौज के भी दरवाज़े बहुजनों के लिए बैंड किए जा रहे हैं।
अग्निपथ की यह योजना संविधान के उद्देशिका में लिखित मूल्य समाजवाद और राज्य की नीति निर्देशक तत्व के भी ख़िलाफ़ है, जो लोक कल्याण की बात करता है। अर्थात् यह संविधान विरोधी योजना है। यह इसलिए कि इससे लोगों में बेरोज़गारी और असमानता फैलेगी। इस योजना की ख़ामी यह है कि अब सैनिकों की भर्ती सिर्फ़ चार साल के लिए की जाएगी। केवल 17.5 साल से 21 वर्ष की आयु के भीतर ही युवा सेना में काम कर सकेंगे। जब विरोध तेज हुआ तो ऊपरी उम्र सीमा को दो साल बढ़कर 23 साल कर दिया गया। मगर फिर भी इस से न्याय नहीं हो पर रहा है। जहां पहले जवान अपना पूरा जीवन सेना में गुजारता था, अब उनको वहाँ सिर्फ़ चार साल तक ही रोजगार मिल रहा है। चार साल पूरे होने के बाद, सेना में भर्ती हुए कुल जवानों का सिर्फ 25% ही आगे रखे जाएँगे और बाकी सब जवान को रिटायर कर दिया जाएगा। सबसे दुखद बात यह है कि अग्निवीरों को कम वेतन दिया जाएगा। इसके अलावा उन्हें कोई पेंशन नहीं मिलेगा।
इस तरह की योजना से न केवल युवाओं में बेरोजगारी पैदा करेगी, बल्कि सेना के प्रदर्शन पर भी नकारात्मक प्रभाव छोड़ेगी। सरकार पैसा बचाने के लिए युवाओं के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। भारत जैसे देश में सेना के सामने कई चुनौतियां हैं और उसके सामने अलग अलग समस्याएं हैं. यह अपेक्षा करना ठीक नहीं है कि एक युवक चार साल के भीतर सब कुछ सीख लेगा और सेना की सारी आवश्यकताओं के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन करेगा।
अग्निपथ योजना को बनाने वाले इस बात को नज़र अन्दाज़ कर रहे हैं कि अनुभव से ही इंसान कुछ सीखता है। फ़ौज में लम्बा समय गुजरने वाला सिपाही मुश्किल के हालात से मुक़ाबला करने के लिए ज़्यादा तैयार रहता है। इस योजना का एक प्रमुख खतरा यह है कि चार साल के भीतर जब एक युवा को हथियार चलाने के लिए प्रशिक्षित होते ही उसे सेवानिवृत्त कर दिया जाएगा तो वह “हीन” भावना से ग्रसित हो सकता है। यह भी संभव है कि कोई कट्टरपंथी संस्था इन युवाओं को गुमराह करने की कोशिश करे और इनको धर्म के नाम पर लामबंद कर कोई मिलिशिया बना डाले। अभी तक भारतीय फ़ौज को काफी पेशेवर माना जाता है और अब तक वह राजनीतिक नेतृत्व के अधीन काम करती रही है। क्या अग्नि पथ योजना से फ़ौज के कामकाज पर पर नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ेगी?
देश की सुरक्षा के अलावा, यह योजना देश के संविधान की मूल भावना का भी उल्लंघन करती है। फिर से गौर कीजिए भारत के संविधान का उद्देशिका क्या कहता है,
“हम, भारत के लोग,
भारत को एक
सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य
बनाने के लिए और
उसके समस्त नागरिकों को
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म व उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता
प्राप्त कराने के लिए तथा
उन सब में व्यक्ति की गरिमा और
राष्ट्र की एकता तथा अखंडता
सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए…”
संविधान की उद्देशिका का यह सार यह है कि सरकार को लोगों के कल्याण के लिए काम करना चाहिए। उद्देशिका में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि राज्य का कार्य एक समाजवादी समाज की स्थापना करना है और सभी के लिए न्याय देना है। यह न्याय सामाजिक और आर्थिक और राजनीतिक है। यह सच है कि समाजवाद की धारणा पर एक सहमति नहीं है, मगर इतना तो कहा ही जा सकता है कि समाजवादी व्यवस्था का मतलब यह है कि राज्य जनता के कल्याण और समृद्धि के लिए काम करे। गरीब से गरीब और हाशिए के लोगों को शिक्षा, रोजगार और सार्वजनिक स्वास्थ्य की सुविधाएं उपलब्ध कराए। सरकार पर रोजगार पैदा करने की भी ज़िम्मेदारी है और उसे आर्थिक समस्याओं का समाधान करना चाहिए। सरकार को अहम पब्लिक सेक्टर को खुद चलाना चाहिए। सरकार को बाज़ार को भी नियंत्रित करना चाहिए, क्योंकि बाजार अक्सर मुनाफ़ा कमाने के लिए लोगों का शोषण करता है। सरकार को जितना हो सके सार्वजनिक क्षेत्र को बढ़ावा देना चाहिए।
देश के संसाधन और संपत्ती पर लोगों के स्वामित्व होना चाहिए। इसे हम ‘राष्ट्रीयकरण’ भी कहते हैं, जिसका अर्थ है कि सरकार देश के संसाधनों को अपने हाथ में ले। इसके पीछे मक़सद यह होता है कि जब किसी देश के संपत्ती का राष्ट्रीयकरण किया जाता है तो वे किसी एक की निजी संपत्ति नहीं रह जाती , बल्कि देश की संपत्ति बन जाती है। फिर इसका उपयोग मुनाफ़ा कमाने के लिए नहीं बल्कि सभी की भलाई के लिए किया जाता है। उदाहरण के लिए, यदि ट्रेन का किराया कम रखा जाता है, तो इससे यात्रियों को लाभ होता है। यदि ट्रेन का किराया थोड़ा बढ़ा दिया जाता है और इससे रेलवे का राजस्व बढ़ जाता है। यह कमाई किसी की जेब में नहीं जाता, बल्कि रेलवे कर्मचारियों की सैलरी और बुनियादी ढांचे और सुविधाओं के सुधार पर खर्च होता है।
लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि भाजपा सरकार संविधान की इस भावना के खिलाफ काम कर रही हैं और सार्वजनिक संसाधनों को निजी कंपनियों को लीज़ पर देकर उसे एक तरह से बेच दे रही हैं। रोजगार सृजित करना सरकार की बड़ी जिम्मेदारी है, मगर यह बात भाजपा सरकार को बिलकुल ही समझ में नहीं आती। उनके नज़दीक धर्म का झगड़ा और मंदिर मस्जिद की लड़ाई बेरोजगारी दूर करने से ज़्यादा अहम है। उनकी पॉलिसी से युवाओं का भविष्य अंधकारमय हो गया है। भारत के संविधान में ही राज्य के नीति निर्देशक तत्व लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना की बात कहता है। उदाहरण के लिए अनुच्छेद 38 में कहा गया है कि “राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा-राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करे, भरसक प्रभावी रूप में स्थापना और संरक्षण करके लोक कल्याण की अभिवृद्धि का प्रयास करेगा।”
इन बातों पर अमल करने के बजाय आज सरकारें गलत दिशा में आगे बढ़ रही हैं। हर विभाग में नौकरियों में कटौती की जा रही है। सब से पहले ठेके की नौकरी की मार देश के दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों पर पड़ी थी, क्योंकि सब से पहले क्लास फोर्थ की सरकारी नौकरियों को समाप्त किया गया था। धीरे धीरे ठेकेदारी प्रथा हर क्षेत्र में घुसने लगा। ठेकेदारी प्रथा के तहत अगर कुछ लोगों को काम पर रखा भी जा रहा हो, उनसे ज्यादा काम लिया जा रहा है और कम से कम मजदूरी दी जा रही है। नौकरी में कोई ‘सोशल सिक्यरिटी’ नहीं है और कोई पेंशन है। सब कुछ ठेका प्रणाली पर चलता है। देश का दुर्भाग्य देखिए कि सरकारों के पास पूंजीपतियों की तिजोरी भरने के लिए धन है, लेकिन उनके पास जनता की समस्या के लिए बजट नहीं है। इस अन्याय और अपने अधिकारों के लिए हमें शांतिपूर्ण तरीके से विरोध करना चाहिए।
(लेखक जेएनयू से इतिहास में पीएचडी हैं।)