कुल जमा बात ये है कि 60 शहादतों के बाद भी किसानों के साथ छल किया गया। फटाफट एक कमेटी गठित हुई और कुछ ही घंटों में जनता को पता चल गया कि कमेटी के चारों मेंबर इस कानून के समर्थक हैं। उससे भी बुरा ये है कि ऐसा कोर्ट के माध्यम से हुआ। इस छलकपट में सरकार की निर्विवाद भूमिका है और तमाम लोग सुप्रीम कोर्ट पर भी टिप्पणियां कर रहे हैं। क्या सरकार कोर्ट को भी अंधेरे में रखा? 50 दिन से चल रहे आंदोलन का मसला कोर्ट में गया था। कल कोर्ट ने सरकार पर तल्ख टिप्पणी की थी और तभी आशंकाएं उठने लगी थीं।
यह कितना खतरनाक है कि सुप्रीम कोर्ट जैसी पवित्र संस्था के बारे में लोग ये प्रिडिक्ट करने लगें कि निर्णय न्याय के पक्ष में नहीं होगा। यह बहुत दुखद है और खतरनाक भी कि कोर्ट से जनता का भरोसा उठ जाए। जहां कोई विपक्ष नहीं है, वहां किसानों की बात कौन रखेगा? जहां कोई असहमति नहीं है, वहां विचारविमर्श किस बात पर होगा? जिस कमेटी में किसानों से सहानुभूति रखने वाला कोई नहीं है, उस कमेटी के सामने किसान अपनी बात कैसे रखेंगे? क्या सुप्रीम कोर्ट ने ये कमेटी अनजाने में बनाई? क्या ये नाम उसे सरकार ने दिए थे? क्या कमेटी पर किसानों की राय लेनी कोर्ट ने जरूरी नहीं समझी? किसान तो पहले से कह रहे हैं कि हमें मध्यस्थता नहीं समाधान चाहिए। फिर ये कमेटी बनाई क्यों गई? और अगर बनी भी तो एकतरफा कमेटी का मतलब क्या है?
कमेटी में शामिल भूपिंदर सिंह मान सरकार को चिट्ठी लिखकर कानून का समर्थन कर चुके हैं। अनिल घनवंत कानून वापसी के पक्ष में नहीं हैं, सिर्फ संशोधन के पक्षधर हैं। अशोक गुलाटी की भूमिका ये कानून बनवाने में ही रही है और वे तीनों कृषि कानूनों के पक्ष में हैं। प्रमोद जोशी भी नए कानूनों की तारीफ में कसीदे पढ़ चुके हैं।
अचानक ये हम कहां गए हैं जहां लाखों लोग सड़क पर हैं और इतने बड़े देश में उनकी कोई सुनने वाला नहीं है। सरकार उनसे ठीक ढंग से बातचीत करने और समाधान खोजने की बजाय किसानों को ही भटकाने, बदनाम करने और उल्लू बनाने में पूरा संशाधन झोंक रही है। इससे बुरा कुछ नहीं है कि जनता को हर तरफ से अकेला और निराश कर दिया जाए। इन उदास आंखों को इस छल से क्या उम्मीद की कोई रोशनी मिल सकती है?
(लेखक कथाकार एंव पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)