जब अंग्रेज़ों को चकमा देने के लिए ‘मुहम्मद ज़ियाउद्दीन’ बने थे नेता जी

सुभाष बाबू का यह वाक्य देखने और पढ़ने में भले ही सामान्य लगे, वह इतिहास में लड़े गए एक अनोखे स्वाधीनता संग्राम का प्रारंभ था। बांग्ला में कहे गए इस वाक्य का हिंदी में अर्थ है, क्या मेरा एक काम कर सकते हो। यह वाक्य सुभाष बाबू ने अपने प्रिय भतीजे शिशिर बोस से कहा था। शिशिर अपने प्रिय काकू की बात, भला कैसे टालते। उन्होंने हां कर दिया और इतिहास में एक नए तरह के स्वनिर्वासन की शुरुआत हुयी। तब सुभाष अपने घर एल्गिन रोड कलकत्ता में नजरबंद थे। उनके घर के बाहर पुलिस का पहरा था। ख़ुफ़िया विभाग के लोग आने जाने वालों की निगरानी करते थे। सुभाष की डाक सेंसर की जाती थी। उनकी गतिविधियां, उनके अपने कमरे और उस बड़े यूरोपीय शैली के भवन तक ही सीमित थीं।

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वह साल था 1940-41 का। यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ चुका था। फासिस्ट और नाज़ी ताक़तें, मित्र देशों पर मज़बूती से हमला कर रही थी। पूरे यूरोप में अफरातफरी मची थी। भारत मे 1937 में चुनी गईं कांग्रेसी सरकारों ने सरकार से त्यागपत्र दे दिया था। मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा जो द्विराष्ट्रवाद के पैरोकार थे, सरकार में बने रहे और अंग्रेजों के वफादार थे। सुभाष का 1939 में कांग्रेस से मनमुटाव हो चुका था, और उन्होंने वामपंथी झुकाव वाली एक नयी पार्टी फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना कर ली थी। उनका रास्ता, कांग्रेस की मुख्य धारा से अलग हो गया था।

नज़रबंदी के दौर में शिशिर अपने चाचा सुभाष के ही पास अधिक रहते थे। वे हमेशा आपने चाचा को विस्मय भरी निगाह से देखा करते थे, जो उस समय, आधी बढ़ी हुई घनी दाढ़ी के साथ पीले और पतले दिखते और सदैव अपने बिस्तर पर तकिये के सहारे अधलेटे कुछ पढ़ते रहते थे। दिसम्बर का ही ऐसा कोई दिन था, जब सुभाष ने अपने भतीजे को बिस्तर पर अपनी दाईं ओर बैठने को कहा।  कुछ मिनटों तक शिशिर को गौर से देखने के बाद सुभाष ने पूछा, ” आमार एकटा काज कोरते पारबे ?” बिना यह जाने कि काम क्या है, शिशिर ने हां कर दिया। शिशिर ने बाद में यह बताया कि, सुभाष ने घर से पलायन कर जाने की योजना का हमराज उन्हें बनाया था। शिशिर को रात के अंधेरे में अपने चाचा को कलकत्ता से काफी दूर एक रेलवे स्टेशन तक ले जाना था। सुभाष ने शिशिर को कहा कि देश छोड़ने के लिये एक फुलप्रूफ स्कीम बनाने की जरूरत है। यह भी कहा कि, शिशिर की बहन इला को छोड़कर, इस योजना की भनक किसी को नहीं लगनी चाहिए। इला यह सुनिश्चित करेगी कि, लोग इस भ्रम में पड़े रहें कि सुभाष, अभी भी घर में ही है।  चाचा और भतीजे के बीच योजना मुकम्मल हुयी। शिशिर, बोस परिवार के एक दूसरे घर जो, 1 वुडबर्न रोड पर, जहां शरत बोस रहते थे, वहां रहते थे।

अगली शाम शिशिर फिर सुभाष के पास आये और दोनों इस योजना की तैयारियों में जुट गए। शिशिर का अपने बीमार चाचा से इस प्रकार नियमित मिलने आना, न तो खुफिया को और न ही पुलिस को संदिग्ध लगा। तब सुभाष का अधिकतर समय, विदेशी रेडियो सुनने में बीत रहा था और शिशिर इसमें उनकी मदद कर रहे थे। वे, लंदन, बर्लिन, मॉस्को और रोम से समाचार सुनते थे उनके विश्लेषण भी कर रहे थे। जर्मन, ब्लिट्जक्रेग के बाद, फ्रांस ने समर्पण कर दिया था। ब्रिटेन, जर्मन बमबारी से जूझ रहा था, और 1939 में की गयी, जर्मन-सोवियत संधि अभी बरकरार थी। सुभाष, 1939 मे ही इस मत के थे कि, विश्वयुद्ध में फंसे ब्रिटेन के खिलाफ आज़ादी की निर्णायक जंग छेड़ दी जाय पर गांधी तब सहमत नहीं थे। दोनों नेताओं में मतभेद का यह एक बड़ा कारण था। इस समय उनकी पहली चुनौती यह तय करने की थी कि अंतर्राष्ट्रीय संकट का, कैसे लाभ उठाया जाए।

16 दिसंबर 1940 को, सरकार के ख़ुफ़िया एजेंटों में से एक ने खबर दी कि, नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर से एक मियां अकबर शाह,  सुभाष चंद्र बोस से मिलने के लिए वहां से आ रहे हैं। अकबर शाह एनडब्ल्यूएफ के नौशेरा के रहने वाले थे और 1939 में सुभाष बाबू द्वारा गठित फॉरवर्ड ब्लॉक के प्रांतीय प्रमुख थे। बोस ने ही अकबर शाह को कलकत्ता आने के लिए आमंत्रित किया था और यह खबर, पुलिस ने सरकार को बता दी थी। अकबर ने अपनी युवावस्था में, 1920 में, सोवियत संघ तक पहुंचने के लिए आदिवासी क्षेत्रों और अफगानिस्तान के अंदरूनी क्षेत्रो का पर्याप्त भ्रमण किया था और उन्हें उधर के रास्तों की अच्छी जानकारी थी। सुभाष बोस ने, उनको पेशावर से काबुल तक जाने के मार्ग की रेकी कर, देश से निकल भागने की योजना बनाने के लिए परामर्श हेतु बुलाया था। लेकिन ज़ाहिरा तौर पर यह कहा गया कि, अकबर को इसलिए बुलाया गया है कि, अकबर ने फ्रंटियर में फॉरवर्ड ब्लॉग का एक सम्मेलन आयोजित किया है और सुभाष चूंकि नज़रबंद हैं और वे जा नहीं सकते तो अकबर उनसे परामर्श करने के लिये आ रहे है। जबकि, ऐसा कोई सम्मेलन होना भी नहीं था। यही सूचना खुफिया अधिकारी ने अपने अधिकारियों को भी दी। अधिकारी सतर्क तो थे, पर अकबर को कुछ देर के लिए सुभाष से मिलने की इजाज़त दे दी गयी।

अकबर शाह आये और सुभाष ने शिशिर का उनसे परिचय कराया। दोनों एक साथ मध्य कलकत्ता में वचेल मोल्ला के डिपार्टमेंटल स्टोर में गए, जहाँ अकबर शाह ने सुभाष बाबू के लिए कुछ बैगी शलवार और एक काली फ़ेज़ टोपी खरीदी। इसके बाद शिशिर ने अकबर शाह को हावड़ा रेलवे स्टेशन छोड़ा, जहां से उन्हें वापसी के लिये एक ट्रेन पकड़नी थी। अकबर को विदा कर के शिशिर फिर बाजार आये और यात्रा के लिये एक सूटकेस, एक अटैची, और एक बेडरोल, साथ ही दो फलालैन शर्ट, प्रसाधन सामग्री, तकिए और रजाई खरीदी। इसके बाद वे एक प्रिंटिंग प्रेस में गये और कुछ विजिटिंग कार्ड छपवाने का ऑर्डर दिया। विजिटिंग कॉर्ड का मज़मून था, “मोहम्मद जियाउद्दीन, बीए, एलएलबी, ट्रैवलिंग इंस्पेक्टर, द एम्पायर ऑफ इंडिया लाइफ  एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड, परमानेंट एड्रेस: ​​सिविल लाइंस, जबलपुर।”

यह तैयारी चल रही थी और इसकी भनक न तो घर मे किसी को लगी न बंगले के बाहर बैठे पुलिस को और न सबकी खबर रखने वाले, ख़ुफ़िया विभाग को। सुभाष और शिशिर के बीच इस योजना पर नियमित मंत्रणा चल रही थी। उसी में यह भी तय हुआ कि, 38/2 एल्गिन रोड से बाहर निकलने के लिये मुख्य ड्राइववे और मेन गेट से ही साधारण रूप से निकला जाय, न कि पीछे या किसी अन्य रास्ते से। सुभाष बाबू के घर मे, दो कारें थीं। एक, अमेरिकी स्टडबेकर प्रेसिडेंट जो उनकी मां विभावती के नाम पर रजिस्टर्ड थी और दूसरी शिशिर के नाम पर पंजीकृत वांडरर नामक एक जर्मन कार थी। अमेरिकी स्टेडबेकर प्रेसिडेंट कार बड़ी थी और उसका इंजन भी अधिक शक्तिशाली था। लेकिन वह पूरे कलकत्ता में सुभाष बोस के बड़े भाई शरत चन्द्र बोस की गाड़ी के रूप में अधिक जानी पहचानी थी। उसे ले जाना निरापद नहीं था। सुभाष और शिशिर ने वांडरर कार को ही अपनी भावी यात्रा के लिए अधिक उपयुक्त समझा।

जब यह तय हो गया कि कैसे घर से निकलना है तो अब बस फ्रंटियर से अकबर शाह के संदेश का इंतजार था, और कुछ और तैयारियां होनी थीं। क्रिसमस के छुट्टी के दिन, 25 दिसंबर 1940 को शिशिर ने यह जांचने के लिए की वह कार से लंबी ड्राइव कर पाएंगे कि नहीं, सुबह कलकत्ता से बर्दवान रेलवे जंक्शन, तक कार चला कर गए और फिर वे वहां पर खाना खाकर वापस लौट आये। नए साल, 1941 की जनवरी की शुरुआत में वह अपनी मां और परिवार के अन्य सदस्यों को लाने के बहाने धनबाद के पास अपने सबसे बड़े भाई अशोक से मिलने गये, और आते जाते समय गाड़ी खुद ही चलाई, ताकि वह यह इत्मीनान कर सकें कि, ज़रूरत पड़ने पर वह लंबी यात्रा बिना रुके सुगमता से कर सकते हैं।  उसी समय, शरत बोस कालिम्पोंग से तीन सप्ताह की छुट्टी बिताकर वापस कलकत्ता आ गए थे और सुभाष ने उन्हें भी, सबसे बड़े भाई होने के नाते, अपने पलायन की योजना बता दी।

अब इस योजना के तीन राजदार हो गए, शरत बोस, शिशिर बोस और इला बोस। शरत इस बात से राजी नहीं थे कि, इला को इस योजना में शामिल किया जाय। उनका सोचना था कि, पुलिस बाद में इला को सारी बात जानने के लिए परेशान कर सकती है। सुभाष ने अपने मित्रों, रिश्तेदारों और राजनीतिक सहयोगियों के साथ अपनी सभी बातचीत और पत्राचार में यह बताया कि उन्हें नज़रबंदी से हटा कर जल्दी ही जेल में भेजा जा सकता है। सरकार में अपने स्रोतों से वह अन्य गतिविधियों का पता करते रहते थे और शिशिर, ड्यूटी पर नियुक्त पुलिस की गतिविधियों से यह जानने का प्रयास करते थे, कि कही पुलिस को उनके योजना की कोई भनक तो नहीं लग गयी है। उनके दरवाजे पर ही दो चारपाइयों पर पुलिस के जवान बैठे रहते थे जो सर्द रात में कहीं आड़ में छुप जाते। इस बीच, सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी के बीच पत्राचार का सिलसिला जारी था और दोनों ही जानते थे कि, यह डाक सेंसर हो रही है तो पत्र निजी और पारिवारिक ही अधिक होते थे। 23 दिसंबर, 1940 को, बोस ने गांधी को किसी भी आंदोलन के लिए बिना शर्त समर्थन की पेशकश करते हुए लिखा था कि,  महात्मा ही भारत की स्वतंत्रता संग्राम का सक्षम नेतृत्व कर सकते हैं। 29 दिसंबर को, गांधी ने, सुभाष के पत्र का उत्तर दिया कि, “जब तक उनमें से एक स्वतंत्रता पाने के सर्वोत्तम उपाय के सवाल पर दूसरे को परिवर्तित नहीं कर सकता, तब तक उन्हें “अलग-अलग नावों में सफर करना चाहिए।” गांधी आगे सुभाष को लिखते हैं, “तुम नहीं बदल सकते, चाहे बीमार रहो या स्वस्थ रहो।” गांधी ने सुभाष को सम्बोधित करते हुए उन्हें अपना विद्रोही बेटा लिखा, और लिखा कि, “आतिशबाजी के लिए जाने से पहले स्वस्थ  हो जाओ।”  3 जनवरी, 1941 को, सरकारी सेंसर ने इस पत्र को खोला और पढ़ा।” वे भांप ही नही पाए कि गांधी किस आतिशबाजी का उल्लेख कर रहे हैं। यह रहस्य कम ही लोगों को पता था कि, गांधी के  विद्रोही बेटे ने अपनी “आतिशबाजी” की तैयारी पूरी कर ली है और बस फ़्यूज़ को जलाने के लिए वह सही समय की प्रतीक्षा कर रहे थे।

सर्वधर्म समभाव के आदर्श पर चलने वाले सुभाष, अपने निजी जीवन में देवी मां के रूप में, परमपिता परमात्मा के प्रति आस्थावान थे। सुभाष के कहने पर, एक शाम, शिशिर ने इला के साथ दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में  जाकर, इस मिशन की सफलता के लिये काली मां का आशीर्वाद लिया। घर छोड़ने के दो दिन पहले, सुभाष ने शिशिर को बेडरोल  एल्गिन रोड तक लाने के लिये कहा। उन्होंने वुडबर्न पार्क वाले घर में अटैची में पैक करने के लिए पवित्र कुरान के दो संस्करण और कुछ दवाएं शिशिर से मंगाई। घर छोड़ने से एक रात पहले, सुभाष को लगा कि, जो सूटकेस खरीदा था वह बड़ा है और कार में नहीं आ पायेगा तो फिर उसका सामान छोटे सूटकेस में रखा गया। उसपर सुभाष बाबू का नाम एससीबी लिखा था, उसे हटा कर एमज़ेड किया गया। 16 जनवरी को शिशिर ने कार की सर्विस कराई और  उस शाम, उन्होंने वुडबर्न पार्क की छत पर अपने पिता शरत से बातचीत की। शरत को इस बात की चिंता थी कि रास्ते मे चन्दननगर की फ्रेंच कॉलोनी पड़ती है जो फ्रांस के आधीन है तो कहीं वहां की पुलिस न उन्हें पकड़ ले और फिर कलकत्ता पुलिस को सौंप दे। शिशिर ने जल्दी डिनर किया, और उनकी माँ ने उन्हें यात्रा के लिए कुछ पैसे दिए और एक फीकी मुस्कान के साथ कहा, “भगवान ही जाने, तुम लोग क्या कर रहे हो।” यह मातृसुलभ स्वाभाविक चिंता थी। कार में सारा सामान रखने के बाद, शिशिर ने वुडबर्न पार्क से एल्गिन रोड, लगभग 8:30 बजे आये और कार को घर के पिछले दरवाजे के पास पार्क कर दिया।

सुभाष और शिशिर को दुर्भाग्य से अपनी बुजुर्ग मां से भी यह सब छुपाना पड़ा। शिशिर जब कार लेकर एल्गिन रोड पहुंचे तो सुभाष, रेशम की धोती और चादर में बैठे हुए परिवार के साथ रात्रिभोज कर रहे थे। उस दिन यह तय था कि परिवार के सारे सदस्य एक साथ डिनर करेंगे। खाना खाने के बाद, सुभाष ने सबसे कहा कि, वह कुछ दिन, आध्यात्मिक एकांत में बिताएंगे। यह भी कहा कि, किसी को चिंतित होने की ज़रूरत नहीं है और उन्हें जो खाना दिया जाएगा वह कमरे के बाहर से अंदर खिसका दिया जाएगा और वे उस दौरान न तो किसी से मिलेंगे और न ही बात करेंगे। सुभाष ने कागज के छोटे-छोटे टुकड़ों पर, अपने आगन्तुकों को विभिन्न नोट लिखे जो आगंतुकों को उनके आने पर, सौंपे जाने थे। उन्होंने कई पोस्टडेटेड पत्र भी लिखे थे, जिनमें से ज्यादातर जेल में उनके साथियों को, उनके बाहर चले जाने के बाद क्रम से भेजे जाने थे।  उन्होंने हरिविष्णु कामथ को पत्र लिखा, “मैं बहुत जल्द जेल में वापस आऊंगा, क्योंकि मेरे खिलाफ दो मामले चल रहे हैं।” यह पत्र पुलिस और खुफिया को, भ्रमित करने के लिए लिखा गया था, क्योंकि उन्हें पता था कि यह पत्र खोल कर पढ़ा जाएगा। इस पत्र में 18 जनवरी, 1941 की तारीख़ दर्ज थी और उसी दिन इसे डाक से भेजा जाना था। अब सुभाष और शिशिर को बस, परिवार के लोगो के सो जाने का इंतजार था। यह सुभाष की अपने घर मे आखिरी रात थी। 16/17 जनवरी की रात जब वह घर से निकले तो फिर कभी वापस नहीं आ पाये।

17 जनवरी हो चुकी थी और रात लगभग डेढ़ बजे गया।  सुभाष अपने नए वेश में, जो एक फ्रंटियर के पठान का था, कमरे से बाहर आये। अब उनका नाम, मुहम्मद जियाउद्दीन था, और उन्होंने, एक लंबे, भूरे, बंद कॉलर वाला कोट, बैगी शलवार और एक काले रंग की फेज़ टोपी पहन रखी थी। आंखों पर सुनहरे फ्रेम का चश्मा, जिसे उन्होंने पिछले दस साल से पहनना छोड़ दिया था, था। लेकिन इस पठान के लिये शिशिर ने जो काबुली चप्पलें (अफगानी सैंडल) खरीदी थीं, उनमें वह असहज महसूस कर रहे थे, इसलिए उसने अपने यूरोपीय फैशन के जूते पहनने का फैसला किया। द्विजेंन ने बंगले के आसपास देख कर, ऊपर खड़े सुभाष को संकेत दिया कि आसपास कोई भी सरकारी आदमी या राहगीर नहीं हैं। सुभाष ने अपनी भतीजी इला को प्यार किया और नीचे उतर कर बंगले के पीछे पार्क की गयी, शिशिर की कार में पिछली सीट पर बैठ गए। चाँदनी रात थी। उनका सामान शिशिर ने कार में रखा, और खुद वह ड्राइविंग सीट पर बैठे। कार स्टार्ट हुयी और वांडरर, बीएलए 7169, सुभाष को लेकर अंतिम बार, 38/2 एल्गिन रोड से बाहर निकल गयी। सड़क पर सन्नाटा पसरा था। सुभाष के कमरे की लाइट जली हुयी थी। यह जानबूझकर कर किया गया था।

कार, एल्गिन रोड और वुडबर्न रोड के बीच के कोने से बचते हुए, एलेनबी रोड पर दक्षिण की ओर मुड़ गयी। कलकत्ता सोया पड़ा था और, चाचा और भतीजे लोअर सर्कुलर रोड, सियालदह, हैरिसन रोड होते हुए, हुगली नदी पर बने हावड़ा ब्रिज को पार कर लिलुआ की ओर निकल गए। अब तक दोनों चुप थे। शिशिर ने कॉफी का थर्मस सुभाष को दिया और फिर दोनों में बातचीत शुरू हुयी। सुभाष ने शिशिर से पूछा कि क्या उसे, 1919 में लिंकन जेल से इमोन डी वलेरा के भागने की कहानी पता है ? शिशिर हामी भरी। बातचीत इसी विषय पर होने लगी। आयरिश क्रांति पर बात होते होते कार एक बंद रेलवे क्रॉसिंग पर पहुंच कर रुक गयी। इस व्यवधान से दोनों चिंतित तो हुये पर कोई बात नहीं हुयी। चन्दननगर फ्रेंच एन्क्लेव पर जहां शरत बोस को डर था कि, पुलिस चेक कर सकती है, वहां से उनकी कार सुरक्षित निकल गयी  और किसी ने भी कार को नहीं रोका।

बर्दवान से आगे दुर्गापुर जंगल, पार करते हुए  आसनसोल के बाहरी इलाके में पहुँचते पहुंचते, सुबह हो गयी। आसनसोल से धनबाद तक की यात्रा दिन के उजाले में हो रही थी। लगभग सुबह साढ़े आठ बजे, शिशिर ने सुभाष को बरारी, स्थित अपने बड़े भाई अशोक के घर से कुछ सौ गज की दूरी पर उतार दिया, और खुद गाड़ी लेकर अशोक के घर चले गये। सुभाष को यहां से पैदल, अशोक के घर, मुहम्मद जियाउद्दीन (सुभास भेष बदलकर) के रूप में पहुंच कर परिचय देना था। शिशिर ने पहुंच कर अशोक को सच बता दिया था, पर यह सच सबको न पता चल जाए, इसलिए, अशोक ने, सुभाष से एक अपरिचित की तरह व्यवहार किया। उन्होंने कहा कि, मुहम्मद जियाउद्दीन साहब, अभी आप आराम करें और वे अपने काम पर जा रहे हैं शाम तक लौटेंगे। अशोक बोस धनबाद कोयला खदान में एक अधिकारी थे।

शाम को अशोक जब अपने काम से वापस आये तब सुभाष ने अपने निर्णय के बारे में उन्हें बताया और कहा कि वे बंगाल के आसनसोल रेलवे स्टेशन के बजाय बिहार के गोमो रेलवे स्टेशन से कालका मेल पकड़ कर दिल्ली निकल जाएंगे। चूंकि शिशिर को गोमो जाने का रास्ता नहीं पता था, तो वह चाहते थे अशोक भी उनके साथ गोमो तक चलें। रात में खाना खाने के बाद, अशोक और उनकी पत्नी मीरा, सुभाष और शिशिर के साथ, गोमो के लिये बरारी जो धनबाद के पास था से रवाना हुए। सुभाष घर से पहले ही पैदल निकल कर कुछ दूर इनका इंतजार कर रहे थे। उन्हें रास्ते से कार में शिशिर ने बिठाया और तब तक मीरा को यह पता नहीं चला था कि, मुहम्मद जियाउद्दीन, उनके काकू सुभाष हैं।

हावड़ा-दिल्ली-कालका मेल उस रात काफी देर से गोमो स्टेशन पर आयी। सब लोग स्टेशन के बाहर ही रुक गए थे। थोड़ी देर में जब ट्रेन के आने की सूचना मिली तो केवल सुभाष उतरे। शिशिर ने उनका सामान निकाला।  चांदनी रात में पारसनाथ पहाड़ी की छाया दिख रही थी। गोमो स्टेशन पर एक कुली मिला और उसने सामान उठाया। सुभाष ने शिशिर से कहा कि, अब मैं चलता हूँ, तुम वापस जाओ। शिशिर, ने सुभाष को, कुली के पीछे धीरे-धीरे ओवरब्रिज पर चढ़ते हुए देखा। सुभाष धीर गम्भीर और आत्मविश्वास से भरे कदमों से स्टेशन की सीढ़ियां चढ़ रहे थे। शिशिर तब तक देखते रहे, जब तक सुभाष आखों से ओझल नहीं हो गए। थोड़ी देर के बाद,  शिशिर ने ट्रेन की सीटी सुनी और फिर कालका मेल ने गोमो स्टेशन छोड़ दिया। अब शिशिर, अशोक और मीरा, गोमो से, सुभाष को विदा कर वापस बरारी जा रहे थे। पर कार में सन्नाटा था। तीनो खामोश थे। स्वाधीनता संग्राम के एक अमर और अनोखे संघर्ष की कहानी शुरू हो चुकी थी।

(लेखक पूर्व आईपीएस हैं)