बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में सीबीआई की विशेष अदालत के ‘निर्णय’ से न्यायप्रिय दुखी हैं। कोर्ट के फैसले का ‘सम्मान’ के साथ साथ न्यायप्रिय लोगो ने इस फैसले पर सवाल भी उठाए हैं। सवाल लाज़मी हैं, क्योंकि यह ऐसा मामला है जिसके आरोपी बार बार कहते रहे कि उन्होंने बाबरी को ढहाकर ‘ग़ुलामी’ के क्लंक को हटाया था। तमाम वीडियो, फोटो मौजूद हैं लेकिन इसके बावजूद अदालत ने तमाम आरोपियों को बरी कर दिया गया। बाबरी मस्जिद विध्वंस के दृश्य को हजारों–लाखों लोगों ने प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से देश–विदेश में देखा था. इसके बावजूद देश की प्रमुख जांच एजेंसी सीबीआई करीब 28 साल बाद भी उस आपराधिक कृत्य के दोषियों की पहचान कर पाने में असमर्थ रही। उसने बेशर्मी के साथ अदालत को अपने निष्कर्ष से अवगत कराया और पूरी तत्परता से हाईकोर्ट ने उसे स्वीकार कर देश के न्यायिक इतिहास में एक और काला पन्ना जोड़ दिया। यह पहला अवसर नहीं है जब इस तरह का निर्णय आया है। इससे पहले बथानी टोला जन संहार समेत कई दूसरे मामलों में साक्ष्यों का अभाव कहकर अपराधियों को बरी किया जा चुका है। इससे यह भी जाहिर होता है कि बहुमत की सरकारों में जांच एजेंसियां न्याय के वृक्ष की जड़ में मट्ठा कैसे डालती हैं।
30 नवंबर और एक दिसंबर, 1997 की रात को बिहार के लक्ष्मणपुर बाथे मे रणवीर सेना ने 58 लोगो की हत्या की थी। पटना की एक विशेष अदालत ने 7 अप्रैल,2010 को 16 दोषियो को फांसी और 10 को उम्र कैद की सजा सुनाई थी। लेकिन पटना हाइकोर्ट के 9 अक्तूबर, 2013 के फैसले मे सभी दोषियो को बरी कर दिया था। 25 जनवरी 1999 की रात बिहार के जहानाबाद जिले में हुए शंकर बिगहा नरसंहार में 22 दलितों की हत्या कर दी गई थी। घटना के 16 वर्षों बाद साल 2015 में 13 जनवरी को इस मामले में फैसला सुनाया गया। जहानाबाद जिला अदालत ने सबूतों के अभाव में सभी 24 अभियुक्तों को बाइज्जत बरी कर दिया था। जातीय नरसंहारों से जुड़ा यह शायद पहला मामला था जिसमें सभी अभियुक्त निचली अदालत से ही बरी कर दिए गए थे।
साल 1996 में बिहार के भोजपुर जिले के बथानी टोला गांव में दलित, मुस्लिम और पिछड़ी जाति के 22 लोगों की हत्या कर दी गई। माना जाता है कि बारा गांव नरसंहार का बदला लेने के लिए ये हत्याएं की गई थी। गया जिले के बारा गांव में माओवादियों ने 12 फरवरी 1992 को अगड़ी जाति के 35 लोगों की गला रेत कर हत्या कर दी थी। साल 2012 में उच्च न्यायालय ने इस मामले के 23 अभियुक्तों को भी बरी कर दिया था। इस मामले में निचली अदालत ने तीन अभियुक्तों को फांसी और 20 अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सजा दी थी। औरंगाबाद जिले के मियांपुर में 16 जून 2000 को 35 दलित लोगों की हत्या कर दी गई थी। इस मामले में जुलाई 2013 में उच्च न्यायलय ने साक्ष्य के अभाव में 10 अभियुक्तों में से नौ को बरी कर दिया था। इतिहास में दर्ज ये घटनाएं भारतीय लोकतंत्र का मुंह तो चिड़ातीं ही हैं, इसके साथ साथ भारतीय अदालतों के चरित्र को भी कठहरे में खड़ा करतीं हैं। ताक़तवर समाज को कभी न्याय के लिए जद्दोजहद नहीं करनी पड़ती, इंसाफ की लड़ाई सिर्फ, अल्पसंख्यक, ग़रीब, दलित के हिस्से में आतीं हैं। देश की अदालतें अत्याचार, अन्याय, शोषणग्रस्त वर्ग के ज्यादातर मामलों न्याय देने में असमर्थ रहीं हैं। ऐसे घटनाएं सिर्फ उंगलियों पर ही गिनी जा सकतीं हैं जिनमें न्याय हुआ है। मिसाल के तौर पर यूपी के मेरठ के हाशिमपुरा जनसंहार के तमाम आरोपी पीएसी के जवान साल 2015 में निचली अदालत से बरी हो गए, वह तो भला हो समाजिक संगठनों का जो इस मामले को हाईकोर्ट ले गए और 31 साल बाद तमाम आरोपियों को दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई। सवाल फिर वही है, अदालतें या तो न्याय देने मे असमर्थ रहीं, या फिर इतनी देर से न्याय दिया कि न्याय का महत्तव ही खत्म हो गया।
ऐसा क्यों है? इसके क्या कारण तलाशने होंगे? आखिर क्या वजह है कि शोषित, ग़रीब एंव अल्पसंख्यकों से जुडे मामलों में अदालतों का रवैय्या ऐसा क्यों है? क्या इसकी वजह न्यायपालिका में इस समाज के लोगों का प्रतिनिधित्व कम होना है? अगर यह वजह है तब पढे लिखे न्यायधीश, एंव वकीलों को अपना मूल्यांकन करना चाहिए कि संविधान उन्हें जो ज़िम्मेदारी दी है क्या वे उसका बिना किसी भेदभाव के निर्वहन कर रहे हैं?
(लेखक जाने माने पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)