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वी एस सिंह का लेख: अब भी वक़्त है, इन जहरीले और धर्मांध गिरोह से कम से कम अपने घर के बच्चों और युवाओं को बचा लीजिए

नरसिंहानंद पर सुप्रीम कोर्ट की मानहानि का क्रिमिनल केस चलेगा। भारत के अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट के बारे में आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल करने पर विवादास्पद धर्मगुरु यति नरसिंहानंद के ख़िलाफ़ शुक्रवार को अदालत की मानहानि का आपराधिक मामला चलाने की इजाजत दे दी है। एक एक्टिविस्ट शची नेल्ली ने भारत के अटॉर्नी जनरल को पत्र लिखकर, हरिद्वार ‘धर्म संसद’ में भड़काऊ बयान और नरसंहार का आह्वान करने वाले,  नेता यति नरसिंहानंद द्वारा की गयी, भारत के संविधान और सर्वोच्च न्यायालय के खिलाफ उनकी एक ‘अपमानजनक टिप्पणी’ पर, संज्ञान लेने और न्यायालय के अवमानना ​​की कार्यवाही शुरू करने के लिए, सहमति मांगी थी। शची नेल्ली के पत्र में कहा गया था कि, “14 जनवरी को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ट्विटर पर वायरल हुए, विशाल सिंह को दिए गए एक साक्षात्कार में, यति नरसिंहानंद, जो अपने मुस्लिम विरोधी नफरत भाषणों के कारण इधर चर्चित हो रहे हैं, ने सुप्रीम कोर्ट और भारत के संविधान के लिए अत्यंत आपत्तिजनक और अपमानजनक बातें कहीं हैं। अटॉर्नी जनरल को, इसे देखते हुए, न्यायालय की अवमानना ​​का वाद चलाने की सहमति दी जानी चाहिए।”

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हरिद्वार धर्म संसद में दिए गए भड़काऊ और संविधान विरोधी भाषणों पर, दुनियाभर से विपरीत प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। ब्रिटेन की संसद में इस आतंकी शब्दावली पर सवाल उठ चुका है, अंतर्राष्ट्रीय संस्था जेनोसाइड वाच ने अपने आकलन में इसे बेहद खतरनाक बताया है, यूएस की विधायिका मे भी इस पर चर्चा करने और भारत को इस संदर्भ में सतर्क करने की सम्भावना भी बलवती होती जा रही है। हर तरफ, इसे लेकर विरोध का स्वर है। पूर्व सेनाध्यक्षों से लेकर प्रबंधन के मेधावी छात्रों तक, इस घृणासभा मे दिए गए भाषणों की शब्दावली और उनके घातक इरादों पर चिंता जता चुके हैं, पर खामोश है तो सरकार, चुप है तो देश का सत्तारूढ़ दल, इस घृणासभा पर एक भी शब्द बोलने से कतरा रहा है तो, आरएसएस, जो खुद को, अखंडता और एकता का स्वघोषित झंडाबरदार मानता है।

सरकार भले ही इस संविधान विरोधी कृत्य पर चुप रहे, पर इस घृणासभा के खिलाफ, सेना के पूर्व सेनाध्यक्षों, सुरक्षा बलों के पूर्व प्रमुखों, आईआईएम अहमदाबाद और बेंगलुरु के छात्रों और फैकल्टी सदस्यों, सुप्रीम कोर्ट के वक़ीलों और सिविल सोसायटी के प्रबुद्ध नागरिकों से लेकर नरसंहार और मानवाधिकार हनन पर अकादमिक शोध करने वाली संस्था जेनोसाइड वाच तक ने न केवल इसकी निंदा की है बल्कि सरकार से इस पर कार्यवाही करने की भी मांग की है। उत्तराखंड पुलिस ने कार्यवाही की भी है।

इसी क्रम में, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज, जस्टिस  रोहिंटन फली नरीमन ने, हाल ही में आयोजित, एक वेबिनार में, देश में अभद्र भाषा के दुर्भाग्यपूर्ण प्रसार के बारे में, अपनी चिंता व्यक्त की है। जस्टिस नारीमन जो एक जाने माने विधिवेत्ता भी हैं ने कहा है,”दुर्भाग्य से, हमारे पास सत्ताधारी पार्टी से जुड़े, अन्य उच्च वर्ग के लोग हैं जो न केवल धर्म संसद में की गई, अभद्र भाषा पर चुप्पी साधे हैं, बल्कि वे, उनके समर्थन में भी हैं।”

उन्होंने यह भी कहा कि,”ऐसे भी लोग हैं जो “वास्तव में एक वर्ग के नरसंहार का आह्वान कर रहे हैं” और “हम यह भी देख रहे हैं कि, ऐसे लोगों के खिलाफ कार्यवाही करने के लिए अधिकारियों में किसी भी तरह का एक अनिच्छा भाव भी हैं।” जस्टिस नारीमन ने उपराष्ट्रपति के एक भाषण का उल्लेख करते हुए कहा कि, “यह जानकर खुशी हुई कि कम से कम थोड़ी देर बाद, देश के उपराष्ट्रपति ने एक भाषण में कहा कि अभद्र भाषा असंवैधानिक है। न केवल यह असंवैधानिक है बल्कि यह एक आपराधिक कृत्य भी है। धारा 153 ए और  आईपीसी की धारा 505 (सी) में, दुर्भाग्य से, अभियुक्त को, 3 साल तक की कैद की सजा ही दी जा सकती है। यह अधिकतम सज़ा है। पर, ऐसा कभी होता नहीं है, क्योंकि कानून में इस अपराध में, कोई न्यूनतम सजा निर्धारित नहीं है। यदि आप वास्तव में कानून के शासन को मजबूत करना चाहते हैं, जैसा कि इस प्राविधान का उद्देश्य है तो, मैं दृढ़ता से सुझाव दूंगा कि संसद, इस अधिनियम में, न्यूनतम सजा प्रदान करने के लिए संशोधन करे, ताकि यह इस तरह के घृणास्पद भाषण देने वाले व्यक्तियों के लिए एक प्रभावी निवारक हो।”

निश्चित रूप से कानून को गम्भीर अपराधों की श्रेणी, यानी 7 साल से अधिक सज़ा के प्राविधान वाले अपराधों में, नही रखा जाता है पर समाज की कानून व्यवस्था और लोक व्यवस्था, पब्लिक ऑर्डर पर इसका दुष्प्रभाव, किसी भी गम्भीर अपराध से अधिक पड़ता है। हेट स्पीच या भड़काऊ भाषण, की विपरीत प्रतिक्रिया बहुत तेजी से होती है और इससे व्यापक दंगे भड़क सकते हैं और अतीत में भड़के भी हैं। इसीलिए, अपराध की गुरूता में न्यून होने के बावजूद, सरकार, ऐसे मामलों में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून यानी एनएसए के अंतर्गत अभियुक्त को निरुद्ध करती है। एनएसए का प्राविधान ही इसलिए लाया गया है कि, पब्लिक ऑर्डर को तुरंत हानि पहुंचाने वाली गतिविधियों पर उसके माध्यम से नियंत्रित कर दिया जाय।

जस्टिस नारीमन, इस वेबिनार में एक ऐतिहासिक संदर्भ में भी जाते हैं और मुग़ल सम्राट बाबर के एक बहुचर्चित पत्र का उन्होंने उल्लेख करते हुये कहते हैं कि, ‘बाबर ने, अपनी मृत्यु से पहले अपने बेटे हुमायूँ को एक पत्र लिखा था, जिसमे, उसने अपने बेटे को हिंदुस्तान पर शासन करने का तरीका बताया था। बाबर का पत्र इस प्रकार था – “हे मेरे बेटे, हिंदुस्तान का क्षेत्र विविध पंथों से भरा है…  , और विशेष रूप से गौहत्या से बचना चाहिए।” इसके अतिरिक्त और भी बहुत सी नसीहतें उसने दी थीं। इसी संदर्भ में अकबर का उल्लेख करते हुए अकबर की धार्मिक नीति के बारे में जस्टिस नारीमन ने कहा, ” बाबर के उक्त एक सुंदर पत्र, को उनके पोते ने व्यवहार में लागू किया। उनने 1575 में प्रसिद्ध इबादत खाना बनाया था, जहां दुनिया के सभी धर्मों के लोग, जिसमें चार्वाक स्कूल, जो कि प्राचीन हिंदू भौतिकवादी स्कूल है, मौजूद थे। धर्म और दर्शन पर वहां, सब पहले स्वतंत्र रूप से बहस करते थे।”

ऐसा नहीं है कि मुस्लिम सामन्तो ने अकबर के इस जिज्ञासु उदार भाव को बहुत पसंद किया। कट्टर मौलाना समाज ने अकबर की निंदा और विरोध भी किया। पर वे कुछ कर न सके। विडम्बना देखिए, वही कट्टरपंथी उलेमा ने औरंगजेब की सराहना की क्योंकि औरंगजेब कट्टर इस्लामी नीति पर चलता था। इन कट्टरपंथी उलेमा ने उदार मनोवृत्ति के मुग़ल शहजादा दाराशिकोह के खिलाफ षडयंत्र रचे। और अंत मे दाराशिकोह को दिल्ली में बेहद अपमानजनक मृत्यु मिली। बाबर देश की सामाजिक स्थिति और तानेबाने को समझ गया था और एक विदेशी आक्रमणकारी होने के नाते वह यह बात भी समझ गया था कि प्रजा के मन को विभाजनकारी दमन से नहीं बल्कि प्रजावत्सलता से ही, उसके सामाजिक तानेबाने को बिना छेड़े, राज किया जा सकता है। हालांकि, हुमायूँ को शासन करने का अधिक समय नहीं मिला, पर बाबर की इस सीख को उसके पौत्र अकबर ने राज्य की धार्मिक नीति बनाई और उससे मुग़ल साम्राज्य स्थिर हुआ। पर जैसे ही औरंगजेब ने राज्य को कट्टरता की ओर ले जाना शुरू हुआ, उत्तर में, सिखों से लेकर दक्षिण में शिवाजी तक नए नए रणक्षेत्र खुलने लगे और शिवाजी ने औरंगजेब को लगभग पचीस साल तक दक्षिण में ही उलझाये रखा और मराठा साम्राज्य की नींव डाल दी। औरंगजेब की कट्टर धर्मान्ध नीति ने मुग़ल साम्राज्य के पतन की शुरुआत भी कर दी।

वेबिनार में, न्यायमूर्ति नरीमन ने सबरीमाला मन्दिर के मुकदमे का भी उल्लेख किया और इस पर कहा कि,”सुप्रीम कोर्ट के पांच विद्वान न्यायाधीशों द्वारा यह निर्धारित करने के बावजूद कि 10 से 50 वर्ष की आयु की महिलाएं सबरीमाला मन्दिर में प्रवेश कर सकती हैं, महिलाओं को मन्दिर प्रवेश नहीं करने दिया गया, और दुर्भाग्य से, सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही एक समीक्षा याचिका के माध्यम से इस फैसले को नौ न्यायाधीशों की एक संविधान पीठ को कुछ अन्य मामलों के साथ तय करने के लिए भेज दिया।”

यहां यह महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि कानून के राज में अदालती फैसलों को क्या, केवल धार्मिक परम्पराओं के आधार पर लागू नहीं करने दिया जाएगा ? अब यही बात 9 सदस्यीय पीठ को तय करनी है। इसी वेबिनार में, जस्टिस नारीमन आगे कहते हैं, “इसलिए हम पाते हैं कि, संवैधानिक शासन के संदर्भ में हम जो कुछ भी मानते हैं, उसे कभी भी हल्के में नहीं लिया जा सकता है। यह याद रखना बहुत महत्वपूर्ण है कि, न केवल स्वतंत्रता के लिए, बल्कि अदालतों को स्वतंत्रता के लिए शाश्वत सतर्क रहना आवश्यक है। देश के कानून का पालन एक प्रगतिशील लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपरिहार्य है।

संविधान की प्रस्तावना पर बोलते हुए उन्होंने कहा, “46वें संशोधन द्वारा जोड़े गए दो शब्द- ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’- संविधान सभा में प्रोफेसर केटी शाह द्वारा प्रस्तावित किए गए थे। तब, डॉ अम्बेडकर ने कहा ‘नहीं, ‘समाजवादी’ या ‘धर्मनिरपेक्ष’ जोड़ना आवश्यक नहीं था क्योंकि  ‘समाजवाद’ एक पंथ था जिसे आप राज्य नीति के किसी भी निर्देशक सिद्धांत में पा सकते हैं और ‘धर्मनिरपेक्ष’ तो हमारा संविधान है ही। इसलिए उन्होंने उस समय इसका उल्लेख, प्रस्तावना में करना अनावश्यक लगा।” प्रस्तावना में यह दो शब्द न भी होते तो भी संविधान की लोककल्याणकारी और सेक्युलर स्वरूप पर कोई भी असर नहीं पड़ता। प्रस्तावना की व्याख्या करते हुए, उन्होंने कहा, इसका मतलब है कि राज्य सभी लोगों के साथ समान सम्मान के साथ व्यवहार करेंगा। हम दो अर्थों में एक ‘धर्मनिरपेक्ष’ राज्य हैं।

  • राज्य अपने आप में कोई धर्म नहीं है, और
  • राज्य किसी भी तरह से एक धर्म के पक्ष में और दूसरे धर्म को घृणा की दृष्टि से नहीं देखता है।

संक्षेप में, सभी धर्मों को समान रूप से माना जाना चाहिए। यह आज के समय में एक बहुत ही महत्वपूर्ण अवधारणा है। स्वतंत्रता का भाव, अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह न केवल विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, बल्कि विश्वास, और उपासना की स्वतंत्रता भी है, जो संविधान के सेक्युलर शब्द को ताकत देती है। यानी नागरिकों को बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और हर कोई धर्म के संदर्भ में जो भी उसकी आस्था, विश्वास और उपासना पद्धति है, उसे मानने का हक संविधान देता है।

संविधान के इन दोनों प्रमुख मूल ढांचे पर, पिछले कुछ सालों से लगातार प्रहार किया जा रहा है। यह प्रहार संघ और सत्तारूढ़ दल के समर्थकों द्वारा किया जा रहा है और सरकार इस पर चुप्पी साधे है। सरकार, सत्तारूढ़ दल और मीडिया, जिस तरह से एक षडयंत्र के तहत देश मे चुनाव के ठीक पहले, हिंदू मुस्लिम के बीच दंगाई माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं, वह देश के हित मे नहीं है। यह एक जाना पहचाना, तयशुदा एजेंडा है, मुद्दों से भटकाने का, जनता को भरमाने का और अपने निकम्मेपन को छिपाने का, जिसपर सरकार अक्सर खामोश रहती है और गोदी मीडिया, उस पर प्रोपैगेंडा फैला रहा है।

आज तक किसी भी चुनाव में या तो जनता की मूल समस्याओं से जुड़े वादे किये जाते थे या विकास कार्यों के। पर इस अलबेले चुनाव में, उत्तरप्रदेश भाजपा ने साफ कहा है कि यह चुनाव, 80 बनाम 20 का है। यह एजेंडा तय किया है उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री जी ने। अस्सी कौन है और बीस कौन यह समझना कोई कठिन बात नहीं है। ज़ाहिर है 80 बहुसंख्यक हिन्दुओ के लिये है तो 20 अल्पसंख्यकों के लिये। याद कीजिए क्या कभी आज से पहले धार्मिक ध्रुवीकरण का, इस प्रकार का कोई निर्लज्ज प्रयास किया गया था ? काशीराम जी 85 और 15 की बात करते थे, जो सामाजिक न्याय के सिद्धांत पर आधारित था, अमीर गरीब के अनुपात की बात होती है, जो आर्थिक विषमता पर आधारित है, पर 80/20 का यह सिद्धांत केवल धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण के उद्देश्य से किया जा रहा है। इसका कोई भी सरोकार जनता के मूल जीवन से जुड़े मुद्दे से नहीं है। यह बयान न केवल संविधान की मूल अवधारणा, सेक्युलर के खिलाफ है, बल्कि यह आदर्श चुनाव संहिता और रिप्रेजेंटेशन ऑफ पीपुल्स एक्ट के कानूनो के भी विपरीत है। इस पर चुनाव आयोग को नोटिस जारी कर के भारतीय जनता पार्टी से जवाबतलब करना चाहिए था।

यह भी एक खुला तथ्य है कि सरकार और सत्तारूढ़ दल जो भी एजेंडा तय करते हैं, गोदी मीडिया उसी का दुंदुभिवादन करने लगता है। और सरकार, तो शायद यह किसी भी देश की पहली सरकार होगी, जो अपने ही देश प्रदेश को दंगाग्रस्त और अशांत देखना ही नहीं चाहती है, बल्कि उसे ऐसी दशा मे पहुंचा देना चाहती है कि वह विखंडित होने की राह पर चल पड़े। लेकिन जनता का एक बड़ा वर्ग, जो रोजी रोटी शिक्षा स्वास्थ्य के मुद्दे पर अपनी बात बराबर कह रहा है, इस साम्प्रदायिक जहर से फिलहाल खुद को बचाये हुए हैं। यदि साम्प्रदायिक तनाव नहीं होते हैं, दंगे नहीं भड़कते हैं, तो यह भाजपा और संघ की विफलता और उनकी पराजय होगी। यह वे भी जानते हैं।

यति नरसिंहानंद की धर्मसंसद इसी 80/20 के एजेंडे के लिये रची गई साज़िश है। ओवैसी, तौकीर रजा आदि को धर्मसंसद की एन्टी थीसिस के रूप समझिये। उन्माद शून्य में नहीं उपजता। करार चाहिए, बेकरार होने के लिये। हिंदू हो या मुस्लिम या कोई भी, न तो उसका धर्म खतरे में है और न पहचान। खतरे में है, उसकी रोजी, रोटी, शिक्षा स्वास्थ्य, बाल बच्चों का भविष्य। पर इन सब पर न तो आज भाजपा बोल रही है और न सरकार अपनी उपलब्धियां गिना रही है। दोनो की पूरी कोशिश है साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और 80/20 के एजेंडे पर चुनाव को घसीट कर ले आना। गोदी मीडिया की भूमिका एक उत्प्रेरक की है। घृणास्पद और धार्मिक उन्माद फैला कर समाज मे अशांति फैलाने की कोशिश चाहे नरसिंहानंद करें या तौकीर रजा, दोनों के ही खिलाफ सरकार को सख्ती से पेश आना पड़ेगा। दोनों पर, यह लगाम अभी खींचनी पड़ेगी अन्यथा, इनकी कट्टरता की यह जुगलबंदी , देश को देर सबेर, बर्बादी की ओर धकेल देगी। एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह भी है कि, सरकार और भाजपा इस हेट स्पीच पर आज ही चुप नहीं है, बल्कि गौरक्षा के नाम पर होने वाली भीड़ हिंसा पर भी वह चुप थे और यही नहीं एक मंत्री ने तो सार्वजनिक रूप से मॉब लिंचिंग करने वाले अभियुक्तों का माला पहना कर, अभिनंदन किया था। पर न तो संघ ने और न ही भाजपा ने उस पर आलोचना के दो शब्द भी कहे थे।

अभी हाल ही में, ट्विटर पर क्लब हाउस में मुस्लिम महिलाओं के लिए अश्लील विमर्श करने के आरोप में मुम्बई पुलिस ने फरीदाबाद के तीन लड़कों को पकड़ा है। वे हैं, यश पराशर, उम्र 22 साल जो मॉडरेटर है,  आकाश, उम्र 19 साल और शनब कक्कड़, उम्र 21 साल। यह सभी लड़के कानून के छात्र हैं। कट्टरपंथियों ने वैमनस्यता का जो जहर फैलाना शुरू किया था, वह अब हमारे आपके घर परिवार और परिवेश में भी आ गया है। यह जहर सत्ता के लिये धर्म के नाम पर फैलाया गया है, जिसका धर्म और आस्था से लेश मात्र भी लेना देना नहीं है। चाहे सुल्ली बुल्ली गैंग के गिरफ्तार लड़के हों,या क्लब हाउस कांड में गिरफ्तार छात्र, इनकी गिरफ्तारी पर, इन्हें धर्मांधता की आग में झोंकने वाले, आज क्या इनकी मदद में दिख रहे हैं? अब भी वक़्त है, इन जहरीले और धर्मांध गिरोह से कम से कम अपने घर के बच्चों और युवाओं को तो बचा ही लीजिए।

(लेखक पूर्व आईपीएस हैं)