स्वाधीनता संग्राम की पहली चिंगारी भड़का कर इतिहास के सुनहरे पन्नो में क्रांति धरा के रूप में हमेशा के लिये अपना नाम दर्ज कराने वाले मेरठ आजादी के बाद से अब तक उत्तर प्रदेश में राजनीति की दिशा तय करने में अहम योगदान देता रहा है हालांकि मिश्रित आबादी वाले इस जिले में राजनीतिक दलों ने अपने फायदे के लिये विकास के मुद्दे से ज्यादा ध्रुवीकरण की राजनीति को हवा दी और उन्हे इसका फायदा भी मिला है।
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से महज 70 किमी की दूरी पर स्थित मेरठ का इतिहास बहुत पुराना और समृद्ध रहा है। स्वतंत्रता संग्राम की पहली चिंगारी भड़काने में इस जिले की अहम भूमिका रही थी और यहीं गांधी आश्रम से पूरे देश में खादी आंदोलन का नेतृत्व और दिशा तय की जाती थी।
राज्य में अभी चुनाव घोषित नहीं हुए है लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश का गढ़ कहे जाने वाले मेरठ की सातों विधानसभा सीटों पर तमाम सियासी पार्टियां कमर कसे बैठी हैं और समीकरण बैठाने का खेल शुरु हो चुका है। इसी तरह टिकट के दावेदार भी अपने हक में जमीन बनाने की जी तोड़ कोशिश में जुट गये हैं। हर तरफ शह और मात का खेल चलता नजर आने लगा है। बहरहाल, जीत का सेहरा किसके सिर बंधेगा यह तो मतदाता ही तय करेंगे लेकिन इससे पहले यह जानना जरूरी है, कि देश के सबसे बड़े सूबे में मेरठ की सातों सीटों का सियासी गणित क्या है। मेरठ जिले से 25 लाख 64 हजार 852 वोटर इस बार सात विधायकों को चुनेंगे। जिनमें 14 लाख एक हजार 932 पुरुष और 11 लाख 62 हजार 711 महिला मतदाता शामिल हैं। इसके अलावा 209 अन्य वोटर भी हैं।
कभी कांग्रेस का गढ़ मानी जाती थी मेरठ शहर सीट
मेरठ की शहर सीट कभी कांग्रेस का गढ़ मानी जाती थी लेकिन बदलते समय के साथ ये सीट भी कांग्रेस के हाथ से निकलती चली गई। जैसे जैसे कांग्रेस यहां कमजोर हुई, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए इसे काफी बेहतर माना जाने लगा। तीन लाख 7 हजार 799 मतदाताओं वाली इस सीट पर एक लाख से ज्यादा मुस्लिम वोटर हैं जो चुनावों में अहम भूमिका निभाते आये हैं। आंकड़े बताते हैं कि जब जब मुस्लिम वोटों का बटवारा हुआ तब ही भाजपा ने इस सीट पर कब्जा बनाए रखा।
1989 में इस सीट पर भाजपा के डॉ. लक्ष्मीकांत वाजपेयी ने सबसे पहले कांग्रेस का वर्चस्व तोड़ा था। उसके बाद वह 1996, 2002 और 2012 में भाजपा से ही जीत हासिल करते रहे। वर्ष 2017 के चुनावों में मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण हो जाने से शहर सीट अकेली ऐसी सीट रही जहां समाजवादी पार्टी (सपा) के रफीक अंसारी ने जीत दर्ज करवाई। जबकि बाकी छह सीटों पर भाजपा का ही कब्जा रहा। फिलहाल किसी भी पार्टी ने अभी टिकट बंटवारे पर कोई निर्णय नहीं लिया है लेकिन दावेदार अपनी अपनी जीत दिखाकर समीकरण बैठाने में लग गये हैं। भाजपा और सपा दोनों के ही लिये यह सीट हासिल करना इस बार आसान नहीं होगा क्योंकि आखिरी समय में धार्मिक ध्रुवीकरण अपना रंग न दिखाये, इसमें शक है।
कैंट में भाजपा का दबदबा
मेरठ जिले की सात विधानसभा सीटों में मेरठ कैंट भी शामिल है। वैसे इस सीट को भाजपा का गढ़ माना जाता है। वर्ष 1989 से इस सीट पर काबिज हुई भाजपा करीब तीन दशक बीत जाने के बाद आज भी कायम है। भाजपा विधायक सत्यप्रकाश अग्रवाल गत चार चुनावों से जीतते आ रहे हैं। कभी इस सीट पर कांग्रेस का दबदबा हुआ करता था। कांग्रेस ने कैंट सीट पर सात बार अपना झंडा फहराया लेकिन हालात बदलते गये और 1985 के बाद कांग्रेस दोबारा इस सीट पर कभी वापसी नहीं कर पाई।
चार लाख 20 हजार 419 मतदाताओं वाली इस सीट पर करीब 70 हजार वैश्य, 50 हजार पंजाबी, 40 हजार दलित, 25 हजार मुस्लिम 15 हजार जाट समेत कई अन्य वोटर मौजूद हैं। माना जाता रहा है कि इस सीट पर दलित मुस्लिम और जाट फैक्टर असाधारण असर डालता है। यहां भाजपा के लिये इस बार भी हालात काफी साजगार माने जा रहे हैं। लेकिन पिछले चार चुनावों से जीतते आ रहे सत्यप्रकाश अग्रवाल को उनकी उम्र के तकाजे पर अगर बदला जाता है तो पार्टी का भितरघात जीत को प्रभावित कर सकता है।
मेरठ दक्षिण पर भी भाजपा का कब्ज़ा
वर्ष 2012 में परिसीमन के बाद अस्तित्व में आई मेरठ दक्षिण सीट पर अब तक भाजपा का ही कब्जा रहा है। चार लाख 61 हजार 5 मतदाता वाली यह सीट जिले का सबसे बड़ा विधानसभा क्षेत्र है। वर्ष 2012 के पहले चुनाव में यहां भाजपा के रव्रिद्र भड़ाना ने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के राशिद अखलाक को पराजित कर जीत हासिल की थी। जबकि सपा और राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) क्रमश: तीसरे और चौथे स्थान पर रहे।
2017 के चुनाव में भाजपा के डॉ. सोमेंद्र तोमर ने पूर्व मंत्री एवं बसपा उम्मीदवार हाजी मोहम्मद याकूब को हरा कर जीत दर्ज करवाई थी। इस बार कांग्रेस तीसरे और रालोद चौथे स्थान पर रहे थे। अब लोगों की निगाहें इस बात पर लगी हुई हैं कि क्या भाजपा जीत की हैट्रिक लगा पाएगी या मतदाता किसी दूसरी पार्टी के उम्मीदवार को मौका देते है। फिलहाल मौजूदा विधायक सोमेंद्र तोमर की दावेदारी की संभावनाएं सबसे परबल मानी जा रही हैं। जबकि जाट, गुर्जर, मुस्लिम, वैश्य और दलित मतदाताओं की काफी बड़ी संख्या को देखते हुए विपक्ष द्वारा मुस्लिम उम्मीदवार पर दांव लगाने की भी चर्चायें हैं।
किठौर में देखने को मिलेगी कांटे की टक्कर
मेरठ जिले की किठौर विधानसभा सीट पर साढ़े तीन लाख 57 हजार 827 मतदाता नये विधायक का भविष्य तय करेंगे। फलों के राजा आम उत्पादन के लिये मशहूर इस सीट पर वर्ष 2002, 2007 और 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा के शाहिद मंजूर विधायक रहे। जो समाजवादी पार्टी सरकार में श्रम मंत्री भी थे और लगातार 15 साल तक इस सीट से विधायक रहने का रिकार्ड बना चुके हैं।
वर्ष 2012 में शाहिद मंजूर ने बसपा के लखीराम नागर को हराकर जीत हासिल की थी। जबकि दूसरे स्थान पर रालोद और चौथे पर भाजपा रहे। जबकि 2017 के चुनावों में भाजपा के सत्यवीर त्यागी ने अप्रत्याशित जीत हासिल करके सभी को हैरान कर दिया था। सपा के शाहिद मंजूर दूसरे, बसपा तीसरे और रालोद चौथे स्थान पर रहे। अब देखना है कि क्या भाजपा इस बार फिर अपना प्रदर्शन दोहराती है या सियासी जोड़ तोड़ से कोई और पार्टी अपनी जीत दर्ज करवाने में सफल होती है।
एक दशक से संगीत सोम का जलवा
मेरठ जिले की सरधना विधानसभा सीट ऐसी सीट है जहां पिछले दो चुनावों से विधायक चुने आ रहे संगीत सोम का ही सिक्का चलता है। तीन लाख 49 हजार 338 मतदाता इस बार विधायक का भविष्य तय करने वाले हैं। वर्ष 2012 के चुनावों में भाजपा के संगीत सोम ने रालोद के हाजी याकूब कुरैशी को काफी बड़े अंतर से हराया था। तीसरे स्थान पर सपा और चौथे पर बसपा रहे थे। वर्ष 2017 में संगीत सेाम ने एक बार फिर जीत हासिल करते हुए सपा के अतुल प्रधान को पराजित कर दिया था। तीसरे स्थान पर बसपा और चौथे पर रालोद रहे। अब देखना है कि संगीत सोम क्या अपनी जीत की हैट्रिक बना पाते हैं या किसानों के इस गढ़ में किसान आंदोलन का फायदा विपक्ष लेने की कोशिश करता है।
हस्तिनापुर का मिथ्य
हस्तिनापुर विधानसभा सीट एक ऐसी सीट मानी जाती है जहां जिस पार्टी की भी जीत होती है, उसी की सरकार प्रदेश में बन जाती है। पांडवों की राजधानी कहे जाने वाले हस्तिनापुर का यह करिश्मा कोई नया नहीं है। वर्ष 1957 से 1967 तक हस्तिनापुर की इसी सीट पर कांग्रेस के विधायक रहे तो प्रदेश में कांग्रेस की सरकार रही। उसके बाद इस पर क्रांति दल को विजय प्राप्त हुई, तो चौधरी चरण सिंह सत्ता के गलियारों तक पहुंच गए। 1977-1980 के बीच जनता पार्टी के उम्मीदवार ने जीत दर्ज करवाई और पार्टी की पहली बार सरकार बनी। इसके अलावा समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव, मायावती और भाजपा की सरकारें प्रदेश में बनीं दिखाई दी, लेकिन हस्तिनापुर ने अपनी परंपरा को कायम रखा।
इस आरक्षित सीट पर 2012 में सपा के प्रभुदयाल वाल्मीकि दूसरी बार विधायक चुने गये। उन्होंने पीस पार्टी के योगेश वर्मा को पराजित किया था। तीसरे स्थान पर कांग्रेस, चौथे पर बसपा और भाजपा पांचवें स्थान पर रहे थे। 2017 के चुनाव में भाजपा के दिनेश खटीक ने बसपा में पुन: शामिल हुए योगेश वर्मा को पराजित कर दिया। तीसरे पर सपा और चौथे स्थान पर रालोद रहे। 3 लाख 37 हजार 252 मतदाताओं वाली इस क्षेत्र के गंगा किनारे बसे होने की वजह से बाढ़ की चपेट में आना और किसानों की फसलें बर्बाद होना जैसे कई मुद्दे हैं जिनपर स्थानीय लोग संतुष्ट कभी नहीं हो पाये। यहां भाजपा और सपा के बीच कांटे की टक्कर तो हो ही सकती है और अगर बसपा का कोई कद्दावर चेहरा मैदान में उतारा जाता है तो इसमें शक नहीं कि मुकाबला त्रिकोणीय भी हो सकता है।
सिवाल खास सीट का मिथ्य
जिले की सिवालखास विधानसभा सीट की खासियत रही है कि पिछले छह विधानसभा चुनावों के दौरान यहां कोई भी पार्टी लगातार दूसरी बार चुनाव नहीं जीत पाई। वर्ष 2012 के चुनाव में सपा के गुलाम मोहम्मद ने रालोद के यशवीर सिंह को पराजित किया था। जबकि तीसरे पर बसपा और चौथे स्थान पर भाजपा रहे थे। 2017 के चुनाव में भाजपा के जितेंद्र पाल सिंह ने सपा के गुलाम मोहम्मद को 11 हजार 421 वोटों से पराजित कर दिया। तीसरे पर रालोद और चौथे पर बसपा रहे। इस बार 3 लाख 31 हजार 212 मतदाता नये विधायक को चुनाव करेंगे।
यह सीट 2007 तक आरक्षित रही थी लेकिन 2012 में इसे अनारक्षित कर दिया गया। 1974 के चुनाव से 1985 तक इस सीट पर कांग्रेस का कब्जा रहा। अब देखना है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में इस सीट की विशेषता इतिहास दोहराती है या नहीं वरना भाजपा, सपा और रालोद में यहां त्रिकोणीय मुकाबला हो सकता है।