गहलोत सरकार के दो साल, लेकिन वहीं की वहीं खड़ी हैं उर्दू टीचर्स और पैराटीचर्स की समस्याएं

एम फारूक़ ख़ान

राजस्थान में बरसों से उर्दू टीचर्स व मदरसा पैराटीचर्स अपनी विभिन्न मांगों को लेकर आन्दोलन कर रहे हैं तथा इस आन्दोलन में शुरू से ही उर्दू तालीम व मदरसा तालीम से मुहब्बत करने वाले लोग उनका साथ दे रहे हैं। लेकिन सरकार इन मांगों व समस्याओं को लेकर गम्भीर नहीं है और सिर्फ आश्वासन देकर टरका देती है। वर्तमान गहलोत सरकार से इन आन्दोलनकारियों को ज्यादा उम्मीद थी, क्योंकि कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में इन मुद्दों को शामिल किया था। लेकिन गहलोत सरकार को दो साल हो गए फिर भी समस्याएं वहीं की वहीं खड़ी हैं।

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उल्टा कोढ में खाज वाली कहावत चरितार्थ दो सितम्बर को शिक्षा निदेशक ने एक पत्र जारी करके कर दी। हालांकि बाद में उन्होंने इसकी सफाई में संशोधित आदेश भी निकालें हैं। लेकिन बात घूम फिरकर वहीं की वहीं है। बात सीधी सी यह है कि शिक्षा विभाग में बैठे उर्दू विरोधी मानसिकता के अधिकारी इसे मुसलमानों की भाषा मानते हैं, इसलिए वे पूरा प्रयास करते हैं कि उर्दू का भला नहीं हो। जबकि उर्दू एक भाषा है और वो सबकी है। इसी मानसिकता के तहत शिक्षा निदेशक सौरभ स्वामी ने उक्त आदेश निकाला और शिक्षा मन्त्री गोविन्द सिंह डोटासरा ने इस आदेश पर गोलमोल बातें कह दी। इससे यह प्रतीत होता है कि उर्दू विरोधी मानसिकता वाले अधिकारियों के खिलाफ़ कार्रवाई करने की बजाए शिक्षा मन्त्री उनका बचाव कर रहे हैं। बचाव करने का सीधा सा मतलब यह है कि इस पूरे प्रकरण में शिक्षा मन्त्री की मिलीभगत है। फिर भी मुख्यमंत्री खामोश हैं। यानी मुख्यमंत्री इस मुद्दे पर शिक्षा मन्त्री व शिक्षा निदेशक के खिलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं करना चाहते हैं।

उर्दू टीचर्स और मदरसा पैराटीचर्स की प्रमुख मांगें निम्न हैं :-

  • मदरसा पैराटीचर्स को नियमित करना।
  • मदरसा पैराटीचर्स को जब तक किसी तकनीकी कारण से नियमित नहीं किया जाए, तो माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक समान कार्य समान वेतन के तहत तृतीय श्रेणी अध्यापक के समान वेतन देना।
  • उर्दू टीचर्स भर्ती के सन्दर्भ में शिक्षा विभाग राजस्थान द्वारा जारी 13 दिसम्बर 2004 के आदेश की अक्षरशः पालना करना।
  • सरकारी कॉलेजों में उर्दू सब्जेकट शुरू करना करना।

 

लेकिन यह लेख लिखे जाने तक इन मांगों में से एक भी मांग पूरी नहीं की गई है, क्योंकि यह सभी मांगें मुख्यमंत्री स्तर की हैं और मुख्यमंत्री इन मांगों को लेकर गम्भीर नहीं हैं।

अब आप एक बात पर और गौर कीजिए, उर्दू टीचर्स या अन्य अल्प भाषाओं (पंजाबी, गुजराती व सिन्धी) के टीचर्स की भर्ती के सन्दर्भ में जो 13 दिसम्बर 2004 के शिक्षा विभाग के आदेश को लागू करवाए जाने की मांग की जा रही है, वो आदेश भाजपा के शासन में जारी किया गया था। तब मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे थीं और शिक्षा मन्त्री घनश्याम तिवाड़ी तथा अब जब इस आदेश को कचरे की टोकरी में डाला गया है, तब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत हैं और शिक्षा मन्त्री गोविन्द सिंह डोटासरा, जो अपने आपको गांधीवादी कहते हैं। क्या इनका यही गांधीवाद है?

अब एक और बात जो भी लोग उर्दू टीचर्स और मदरसा पैराटीचर्स के आन्दोलन से जुड़े हुए हैं, वे पानी पी पीकर इन मांगों को नहीं मानने या मनवाने के लिए कांग्रेस के मुस्लिम नेताओं व विधायकों को कोस रहे हैं। अपनी मांगों के लिए आवाज उठाना एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया व अधिकार है, लेकिन यह आवाज़ सही मायने में और सही सन्दर्भ में उठनी चाहिए, नहीं इसका कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकलता है। पहली बात यह है कि उक्त मांगें या समस्याएं मुख्यमंत्री स्तर की हैं और इनका समाधान भी मुख्यमंत्री ही कर सकते हैं, अगर उनको करना है तो। दूसरी बात यह है कि मुख्यमंत्री की नीयत में शुरू से ही खौट है और वे इन समस्याओं का समाधान नहीं करना चाहते, वरना अभी तक इन समस्याओं का समाधान हो जाता।

तीसरी बात यह है कि मुस्लिम नेता व विधायक अपनी तरफ से पूरा प्रयास कर रहे हैं या कर चुके हैं। एक भी ऐसा मुस्लिम विधायक नहीं है, जो इन समस्याओं का समाधान नहीं चाहता हो। लेकिन यह बेचारे क्या करें ? इनकी एक सीमा है, एक दायरा है, उसमें यह अपनी कोशिश कर रहे हैं। अब अगर मुख्यमंत्री इनसे नहीं मिलना चाहें या इनकी बात सुनकर भी समाधान नहीं करना चाहें तो यह बेचारे क्या करें ? बहुत से आन्दोलनकारी कहते हैं कि इन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए। यह बात कहने में आसान है, लेकिन अमल करने में बहुत मुश्किल है। अगर आप इनसे इस्तीफा दिलवाने की बात कह रहे हैं, तो फिर अपनी मांगों के समर्थन में अपनी टीचर या पैराटीचर की नौकरी से इस्तीफा क्यों नहीं दे देते ? आप में बहुत से ऐसे होंगे जिनके परिवार में कोई पंच, सरपंच, पार्षद या कांग्रेस के कोई पदाधिकारी होंगे, तो फिर उनसे इस्तीफा क्यों नहीं दिलवाते ? इसलिए यह जान लें कि आपकी समस्याओं का समाधान सिर्फ मुख्यमंत्री के हाथ में है और अकेला मुस्लिम नेताओं व विधायकों को कोसना कोई इन्साफ पसंदी नहीं है।

(लेखकर इकरा पत्रिका राजस्थान के संपादक हैं, यह लेख उनके ब्लॉग से लिया गया है)