अगर राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष नहीं बनते तो क्या दो अक्तूबर से शुरू होने वाली उनकी भारत जोड़ो यात्रा का प्रभाव वैसा ही पड़ेगा जैसा कांग्रेस चाहती है? और अध्यक्ष न होने पर क्या 2024 के लोकसभा चुनाव में उन्हें विपक्ष का नेतृत्व करने का अवसर दिया जाएगा? विपक्ष के अन्य नेता जिनमें पश्चिम बंगाल में भाजपा का रथ रोकने वाली ममता बनर्जी और बाकी कई नेता हैं क्या बिना अध्यक्ष वाले राहुल का नेतृत्व स्वीकार करेंगे। और लास्ट बट नाट लीस्ट ( अंतिम सवाल मगर अमहत्वपूर्ण नहीं) कि क्या तब तक कांग्रेस में राहुल का वह प्रभामंडल बचेगा, जो आज है? जिस जोश से कांग्रेसियों ने ईडी से उनकी पूछताछ के दौरान प्रदर्शन किए थे, वह बचेगा?
सब कुछ राहुल की हां और ना पर टिका है। अगस्त सितम्बर में कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव होना है। और यह साधारण चुनाव नहीं हैं। पहली बार ऐसा हो रहा है कि कांग्रेसियों की मांग पर अध्यक्ष के चुनाव करवाए जा रहे हैं। दो साल पहले 23 वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखकर पार्टी के कामकाज और संगठन पर सवाल उठाए थे। पूर्णकालिक अध्यक्ष की मांग की थी। हालांकि सोनिया अध्यक्ष हैं। सारा काम देख रही हैं। मगर मीडिया उन्हें अंतरिम अध्यक्ष कहकर उनके प्रभाव को कम करता रहता है। जबकि कांग्रेस में अंतरिम अध्यक्ष जैसी कोई चीज नहीं होती है। लेकिन जब खुद कांग्रेसी ही उन्हें अंतरिम अध्यक्ष बताएं तो मीडिया एवं विपक्ष तो और ज्यादा इस बात को उड़ाएगा ही। कांग्रेस के नेताओं की मांग के बाद कई बार कोरोना की वजह से अध्यक्ष का चुनाव टला। लेकिन अब इसे टाला जाना संभव नहीं है। सितम्बर में अध्यक्ष का फाइनल फैसला करना ही होगा। नहीं तो कांग्रेस में बगावत हो जाएगी।
जी 23 के अलावा और भी कई नेता इस इंतजार में बैठे हैं कि कांग्रेस चुनाव टाले और फिर वे इसे मुद्दा बनाकर चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट ले जाएं। जहां उन्हें विश्वास है कि फैसला उनके अनुकूल होगा। राहुल मुसीबत में पड़ेंगे। कांग्रेस में यह चर्चा आम है कि अगर राहुल अध्यक्ष नहीं बने तो अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ( एआईसीसी) के 24 अकबर रोड पर पर दस कांग्रेस अध्यक्षों के बोर्ड टंग जाएंगे। और सब फैसले के लिए सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग भागेंगे। जहां से फैसला कुछ भी हो मगर कांग्रेस पूरी तरह टूट बिखर जाएगी। यह कई कांग्रेसी भी चाहते हैं। प्रधानमंत्री मोदी तो लगातार कहते ही रहते हैं कि कांग्रेस मुक्त भारत करना है। और विपक्ष में भी बहुत सारे नेता जिनकी महत्वाकांक्षा राष्ट्रीय नेता के तौर स्थापित होने की है कांग्रेस को कमजोर देखना चाहते हैं। अभी जितनी है उससे भी ज्यादा। और खासतौर से आपस में लड़ती हुई।
क्या राहुल को यह सारी कहानियां नहीं मालूम? ऐसा नहीं हो सकता। राहुल के पर्सनल स्टाफ में जितने लोग हैं और सब हाइली एजुकेटेड उतने आज तक किसी कांग्रेसी नेता ने नहीं रखे। हालांकि यह आज तक किसी को नहीं मालूम कि इनमें से कौन प्रमुख है और किससे किस संबंध में बात की जा सकती है। मगर टीम सारी प्रोफेशनली क्वालिफाइड है। सोनिया गांधी के शुरूआती समय में वी जार्ज हुआ करते थे। जिनसे बड़े नेता से लेकर सामान्य कार्यकर्ता तक बात करके के बाद कहता था सोनिया जी से बात हो गई। जार्ज से बात करने का मतलब होता था सोनिया जी तक बात पहुंच जाना। इससे पहले इन्दिरा जी के समय में आर के धवन हुआ करते थे। जिनसे तो पत्रकार और लेखक, कवि जाकर लड़ आते थे और समझ लेते थे कि इन्दिरा जी से लड़ आए। मगर आज कार्यकर्ताओं को भी यह नहीं मालूम की राहुल से मुलाकात कैसे हो सकती है।
एक व्यर्थ रहस्य का आवरण राहुल पर डाल दिया गया है। जिससे नुकसान राहुल का ही हो रहा है। एक तरफ उन्हें कार्यकर्ताओं से मिलने नहीं दिया गया दूसरी तरफ रोज प्रेस कान्फ्रेंस में ला लाकर उनका असर कम कर दिया। 2019 में वे अमेठी से चुनाव हारे भी नहीं थे और उन्हें एआईसीसी में पत्रकारों के बीच लाकर कहलवा दिया गया कि मैं हार स्वीकार करता हूं। राहुल का इस्तेमाल करने वालों को यह नहीं पता कि हार राहुल की नहीं होती है कार्यकर्ता की होती है। उस दिन से आज तक कार्यकर्ता हार माने हुए बैठा है।
बंगाल में ममता बनर्जी ने बिहार में लालू जी या तेजस्वी ने फिर फिर कैसे वापसी की क्योंकि इन नेताओं ने कभी हार नहीं मानी। राजनीति में कहीं हारा जाता है! राजनीति इतना जेन्टलमेन गेम नहीं है कि आप अंपायर के उंगली उठाने से पहले ही क्रीज छोड़ दें। कार्यकर्ता तो अपने नेता को आखिरी आखिरी तक लड़ते देखना चाहता है। तभी उसमें लगातार हिम्मत बनी रहती है। आखिरी बाल में कोई चार विकेट नहीं ले सकता मगर मेन बालर अपनी टीम का हौसला बढ़ाने और सामने वाली का तोड़ने के लिए कहता है कि जब तक मेरे पास आखिरी बाल है मैच जीता हुआ मत समझ लेना!
राहुल को कांग्रेस में ही कुछ लोगों ने कैद कर रखा है। मगर अब वह समय आ गया जब राहुल को अपनी राजनीतिक जिन्दगी का सबसे बड़ा फैसला करना होगा। और उसमें अब समय नहीं बचा है। कांग्रेस को वापस लाने के लिए प्रतिबद्ध कुछ नेता राहुल की भारत जोड़ो यात्रा की तैयारी के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं। अगर यह यात्रा कामयाब हो गई तो कांग्रेस की 2024 की लड़ाई में बहुत मदद मिल जाएगी। याद रहे मध्य प्रदेश में 2018 के विधानसभा चुनाव से पहले दिग्विजय सिंह ने ऐसी ही एक पद यात्रा की थी। नर्मदा परिक्रमा के नाम से उनकी यात्रा ने 15 साल बाद मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनवा दी थी। राहुल की इस भारत जोड़ो यात्रा के संयोजक भी दिग्विजय सिंह ही हैं। दरअसल 2017 में अपनी पद यात्रा शुरू करने से पहले दिग्विजय ने राहुल से जो उस समय पार्टी अध्यक्ष थे कहा था कि उन्हें भी ऐसी पद यात्रा शुरू करना चाहिए। मगर जैसा कि आपको मालूम है कि कांग्रेसी महान होते हैं, उन्होंने राहुल को पद यात्रा तो शुरू करने ही नहीं दी दिग्विजय की नर्मदा यात्रा में भी नहीं जाने दिया।
पूरे मध्य प्रदेश वालों को उम्मीद थी कि राहुल चाहे कुछ देर के लिए ही सही यात्रा में शामिल हों मगर होंगे जरूर। मगर उनके इस विश्वास को कांग्रेस के कुछ नेताओं ने तोड़ दिया। खैर आज राहुल को भी समझ में आ गया कि उन्होंने देर कर दी। उन्हें उस समय दिग्विजय की यात्रा में शामिल होना था और फिर अपनी देशव्यापी यात्रा शुरू करना थी। अगर ऐसा हो जाता तो 2019 के नतीजे वह नहीं होते जो हुए। खैर बड़ी मशहूर कहावत है देर आयद दुरुस्त आयद। तो अब दो अक्तूबर से शुरू होने वाली यात्रा भी टर्निंग पाइंट हो सकती है।
मगर उससे पहले राहुल को वही बड़ा फैसला करना होगा कि क्या वे कांग्रेस अध्यक्ष पद की चुनौती स्वीकार करने को तैयार हैं या नहीं। हर कांग्रेसी की निगाहें इसी पर लगी हैं। राहुल को इसे अब बड़ी पहेली बनाकर नहीं रखना चाहिए। लोग अंदाजे से उत्तर लगाते लगाते थक जाते हैं। और फिर अनर्गल बातें करने लगते हैं। राहुल को दो काम तत्काल करना होंगे। पहला हां या ना। अगर ना तो फिर कौन? प्रियंका गांधी! कांग्रेसी इसके लिए तैयार हैं। लेकिन अगर उन्होंने कोई तीसरा विकल्प रखा तो कांग्रेस के लिए भी और उनके लिए भी बहुत मुश्किलें होंगी।