जुल्म का ये किस्सा मध्ययुग का नहीं, उसी दौर का है जिसमें आप जी रहे हैं।

कानपुर देहात का एक मजदूर संतोष कुमार सुबह मजदूरी करने गया था। पत्नी रूबी सामान बेचने बाजार गई थी। घर में बच्चे और एक बूढ़ी मां थी। रूबी का सामान नहीं बिका तो वापस लौट आई। घर पहुंची तो देखा कि उनका घर जमींदोज हो चुका है।

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वहां पर कुल तीन मजदूर परिवार 50 सालों से रह रहे थे। घर के नाम पर झोपड़ी थी। सारी झोपड़ियां साफ कर दी गईं। परिवार घर पर नहीं था तो उनके सामान का क्या हुआ? जिंदगी भर की कमाई करके दस पांच हजार की टूटी फूटी गृहस्थी बसाई होगी। सब बंटाधार हो गया। उनका आरोप है कि कोई नोटिस नहीं दिया, न पहले से बताया। संतोष कुमार की एक बुजुर्ग मां और एक विकलांग बेटा है। अब ये परिवार खुले आसमान की नीचे रहेंगे।

नेता तो अपनी मां के साथ सुविधानुसार फोटो खिंचवा कर रिलीज कर देते हैं, लेकिन संतोष कुमार को यह राजरोग हासिल नहीं है। वह तो गरीबी काट रहा है। उसे तो अपनी मां को छत और रोटी देने की ललक रही होगी। जो था उसे छीन लिया गया और यह क्रूरतापूर्ण काम सरकार ने किया।

मुख्यमंत्री कह चुके हैं कि किसी गरीब को नहीं सताया जाएगा। लेकिन उनके कहने से क्या होता है? जब आपने तय कर लिया है कि प्रदेश कानून के शासन से नहीं, बुलडोजर से चलेगा तो अधिकारियों को मानव विवेक की चिंता क्यों होने लगी? अगर 50 साल की झोपड़ी अतिक्रमण है तो भी वे यह काम थोड़ी मानवीयता से कर सकते थे, लेकिन नहीं किया। एक गरीब के घर पर बुलडोजर चलवा दिया।

क्या किसी अमीर के साथ ऐसा होगा कि काम ढूंढने जाए और रात को घर लौटे तो घर तबाह मिले? नहीं होगा। सुना है कि दिल्ली में भाजपा प्रदेश अध्यक्ष ने भी सरकारी जमीन कब्जा कर रखी है। उन पर तो बुलडोजर नहीं चला।

संतोष कुमार ने पूछा है कि मेरी बूढ़ी मां और विकलांग कहां रहेंगे? सरकार हमें घर दे नहीं तो हम आत्महत्या कर लेंगे। अगर मैं होता तो संतोष कुमार को समझाता कि बहुत से युवा रोजगार न मिलने से निराश होकर आत्महत्या कर चुके हैं। यह सरकार मौतों से नहीं पसीजती। तुम इनके लिए नहीं मर सकते। तुम अगर मर भी गए तो ये साबित कर देंगे कि तुम प्राकृतिक मौत मर गए। जो लोग 47 लाख मौतें छुपा गए और झूठ बोलते रहे, अपनी तारीफ करते रहे, वे मौतों से विचलित नहीं होते। प्रशासक अगर क्रूर हो जाए तो जनता को एकजुट होकर उसे उखाड़कर फेंकना पड़ता है।

आज बुलडोजर के जरिये मीडिया फुटेज और हेडलाइन बटोरने के चक्कर में गरीब जनता को रौंदा जा रहा है। आजादी के बाद ऐसा जुल्म कभी सुनने में नहीं आया था। आप अमीर हों या गरीब, किसी तंत्र में अगर कानून का शासन खतम हो गया तो कोई सुरक्षित नहीं है। किसी दिन संतोष कुमार की तरह आप भी आंख में आंसू भरे अपने घर का मलबा निहार रहे होंगे।

(लेखक पत्रकार एंव कथाकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)