यह आंदोलन किसानों का जरूर है, लेकिन ग़रीब, मजदूर, शहरी मध्यम वर्ग की लड़ाई भी किसान लड़ रहे हैं।

गर्मी, सर्दी, बरसात में फसलें उगाने वाला किसान 38 दिन से दिल्ली से धरने पर है। रविवार सुबह होने वाली बारिश ने उनकी मुसीबतें और बढ़ा दीं हैं, सर्दी से बचने के लिये किसानों ने जो तंबू लगाए हुए हैं उनमें पानी भर रहा है, किसानों के गर्म कपड़े जैसे कंबल, रजाई आदि पानी में भीग रहे हैं। लेकिन मंजाल भला जो सरकार के कानों पर जूं तक रेंगी हो। बहुमत के अहंकार में डूबी हुई सरकार को लगता है कि अगर यूटर्न ले लिया तो ‘अपमान’ हो जाएगा, या जिन पूंजीपतियों के हितों को ध्यान में रखते हुए क़ानून बनाए हैं वे नाराज़ हो जाएंगे। 50 के क़रीब किसान अपनी जान गंवा चुके हैं, इनमें से कई किसानों ने सरकार के रवैय्ये से निराश होकर आत्महत्या की है। सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है।

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क्या आंदोलन कर रहे किसान इस देश के नागरिक नहीं हैं? क्या सरकार की नज़रों में उनकी कोई औक़ात नहीं है? फिर ये बेरुखी क्यों? ऊपर से आंदोलनकारी किसानों को बदनान करने के लिये नये नये हथकंडे अपनाए जा रहे हैं, कभी खालिस्तानी, कभी पाकिस्तानी, कभी कनाडाई फंडिंग का आरोप लगाकर किसानों की अस्मिता को ललकारा जा रहा है। ऐसी ढ़ीट सरकार किसकी हितैषी हो सकती है? आज किसानों को ग़ुलाम बनाने की पटकथा लिखी जा रही है तो समझदार किसान आंदोलन कर रहे हैं, कल किसी और वर्ग के लिये ऐसे ही काले क़ानून लाए जाएँगे तब वह भी आंदोलन करेगा।

लेकिन ये क़ानून सिर्फ कृषि और कृषकों के ही ख़िलाफ नहीं हैं, बल्कि इसका बुरा असर तो मध्यमवर्गीय परिवारों पर पड़ने वाला है। क़ानून बनने से पहले ही अडाणी के गौदाम बनकर तैयार हो गए! उसके बाद क़ानून अध्यादेश लाकर क़ानून बना दिया गया। अब किसान आंदोलन कर रहे हैं तो सरकार की तरफ से उन्हें नए नए आश्वासन दिए जा रहे हैं। लेकिन एमएसपी और तीनों काले क़ानून वापस लेने पर कोई बात नहीं की जा रही है। किसान डटे हुए हैं, सरकार का अहंकार और आसमान से पड़ने वाली ठंड, बारिश उसका हौसला नहीं डिगा पा रही है। उसे तो हर मौसम को झेलने की आदत है। लेकिन सोचिए! क्या किसान सिर्फ अपने खेत और फसलों के दाम को लेकर लड़ रहा है? नहीं कल जब पूंजीपती अपने गौदामों में किसानों की फसल को मनमाने तौर पर खरीदकर भर लेंगे, फिर मार्केट में प्रचार किया जाएगा कि फलां चीज़ की कमी हो गई है, उसके बाद उसे मनमाने ढ़ंग से बेचा जाएगा। इसकी मार किस पर पड़ेगी? ज़ाहिर है उस वर्ग पर तो बिल्कुल भी नहीं पड़ेगी जिसका कुत्ता भी बीएमडब्ल्यू में सफर करता है। इसकी मार तो उसी वर्ग पर पड़ेगी जो बाज़ार में गोभी खरीदने के लिये दस दुकानों पर मोल भाव करता है।

भारत जैसे बड़े बाज़ार में चीज़ों की कमी का ढ़िंढ़ोरा पीटकर दो रुपये किलो की चीज़ 50 रुपये किलो कैसे बेची जा सकती है, इसका अंदाज़ा कोरोना काल में हुए लॉकडाउन से लगाया जा सकता है। जब बड़े बड़े ‘लाला’ वर्ग ने दस रुपये की बीड़ी का मंडल 30 रुपये तक में बेचा है। इसी देश में कई बार पांच रुपये किलो बिकने वाला नमक सिर्फ इसलिये पचास रुपये किलो तक बिक जाता है क्योंकि किसी ने अफवाह उड़ा दी कि नमक खत्म हो चुका है। सोचिए! जब एक अफवाह मात्र से नमक पर लूट मचाई जा सकती है, और दुकानदार उसी नमक को पचास रुपये किलो तक बेच सकता है तब भंडारण करके योजनाबद्ध तरीक़े से बेचे जाने वाली साग, सब्जी, आटा, नमक, तेल, चावल, और दूसरे तमाम खाद्य पदार्थों के नाम पर किस तरह मध्यमवर्ग का खून चूसा जाएगा। यह सच है कि आंदोलन सिर्फ किसान कर रहे हैं, लेकिन यह भी सच है कि यह लड़ाई सिर्फ किसान वर्ग की नहीं है, ग़रीब, मजदूर, शहरी मध्यम वर्ग की लड़ाई भी किसान लड़ रहे हैं।