नवेद शिकोह
टीवी पत्रकार अर्नब गोस्वामी की लम्बी टीवी पत्रकारिता रही है। वो निष्पक्ष चैनलों में क़ायदे की निर्विवाद पत्रकारिता करते रहे। एक शॉटकट पर अमल करके वो फलसफा बन गये। उनका एक शॉटकट पत्रकारिता के लिए नुकसानदायक और व्यवसायिकता के लिए फायदेमंद साबित हुआ। मीडिया के प्रोफेशन में एक अदृश्य रिक्वायरमेंट होती है- “ज़माने के साथ चलना”। भले ही ज़माना गलत राह पर हो।
जब ज़माना एक अंधी दौड़ में भाग रहा हो तो उसके साथ दौड़िए तो आगे रहियेगा। ये महसूस करके अर्नब फर्जी राष्ट्रवाद और अंधभक्ति के पीछे भागे और टीआरपी और चर्चा में आगे आ गये। रेस में आगे निकलने की प्रोफेशनल मजबूरी में वो उंटपटांग पत्रकारिता/एंकरिंग करने लगे। क्योंकि वो जानते थे कि फिलहाल आज के दौर-ए-ज़माने को ये ही पसंद हैं। हां एक गलती उनसे ये ज़रूर हुई कि कुछ ज्यादा हो गया। पत्रकारिता के सिद्धांतों और जिम्मेदारियों से वो बखूबी वाकिफ थे लेकिन फिर भी टीआरपी की भूख में उन्हें एक कायदे के पत्रकार से एक मेंटल पत्रकार की भूमिका में आना पड़ा। और वो किसी हद तक कामयाब हो भी हुए।
हांलाकि इस तरह की कामयाबी क्षणिक होती है। इसके साइड एफेक्ट्स और बुरे रिएक्शंस भी होते हैं। जैसे कि अर्नब के रिपब्लिक भारत को नंबर वन की टीआरपी मिली और फिर कुछ ही दिनों में इस दावे को फर्जी कहा जाने लगा। जो लोग इन्हें पसंद करते थे वो भी कहने लगे कि इतना पागलपन और ड्रामेबाज़ी अब अखरती है। पत्रकार में संतुलन और शालीनता होना चाहिए है। चीखना-चिल्लाने और आस्तीने चढ़ाने वाली डिबेट का एक्शन तो शोहदों का होता है।
टीवी मीडिया पर इस तरह की बहस छिड़ने का श्रेय उन अर्नब गोस्वामी को ही जाता है जो पिछले चंद वर्षों से एक आम टीवी पत्रकार से ख़ास पत्रकार होते गये। उनकी चर्चाओं और मशहूरियत का ग्राफ बढ़ता गया। पहले राष्ट्रवादी पत्रकार के तौर पर पहचान बनी। फिर वो सबसे ज्यादा चीखने-चिल्लाने वाले जज्बाती पत्रकार बने। राष्ट्रवादी और जज्बाती पत्रकार के बाद वो जज्दबाजी पत्रकार कहलाये। जल्दबाजी पत्रकार का आशय है कि किसी को कुछ भी कह देने की जल्दबाजी करने वाला।
और अब इनके प्रशंसक और समर्थक रहे लोग भी इन महोदय को मेंटल कहने लगे हैं। टीवी पत्रकार अर्नब गोस्वामी का नाम सुनकर अब लोग हंसने लगते है। जैसे एक जमाने में राजनेता लालू यादव की एक अलग क़िस्म की छवि थी। फिल्म इंडस्ट्री में आइटम गर्ल्स कई हैं लेकिन राखी सावंत की अलग पहचान है। ऐसे ही टीवी पत्रकारिता में इन्होंने विशिष्ट पहचान बना ली।
अर्नब अपनी पत्रकारिता की व्यवसायिक मजबूरी में इतने ज्यादा संजीदा हो गये कि वो कॉमेडियन लगने लगे। उन्होंने राष्ट्रवाद की ओवर एक्टिंग का नमूना पेश किया। टीआरपी के लिए कुछ भी करेगा की ज़िद पूरी की। वो भूल गये कि इस अंधी रेस में पत्रकारिता का कितना नुकसान हो रहा है। उन्होंने दिखा दिखा कि किस तरह मीडिया को किस हद तक बदनाम किया जा सकता है। कितना इसका दुरुपयोग किया जा सकता है। कैसे असंतुलन और पक्षपात की सारी हदें पार की जा सकती हैं। ये साबित कर दिया कि पत्रकारिता द्वारा किसका किसकद्र विरोध और किसका कितना ज्यादा समर्थन किया जा सकता है।
इन सब से वक्ती लाभ के बाद अब शक्ति देने वाली गोलियों के साइड एफेक्ट दिखने लगे हैं। कभी जो इन्हें पसंद करते थे वे भी इन्हें नापसंद करने लगे हैं। राष्टवादी और भाजपाई भी कह रहे हैं कि अब ज्यादा हो गया। इतना ज्यादा ओवर होना और ड्रामेबाजी करना अर्नब को मंहगा पड़़ने लगा है । कभी प्रशंसक रहे लोग भी इन्हें मेंटल कहने लगे हैं। फिल्म इंडस्ट्री रखाये बैठी है। महाराष्ट्र सरकार पीछे पड़ गई है। और यदि ऐसे में मोदी सरकार ने अपने इस दीवाने की मदद नहीं की तो ये बुरे फंस सकते हैं!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)