ये क्रोनोलॉजी 164 साल पुरानी है इसके तार अंग्रेजों से जुड़े हैं।

साल था 1857, यही आज वाली दिल्ली थी। शायर मिजाज बादशाह बहादुर शाह जफर दिल्ली की गद्दी पर हुआ करते थे। मंगल पांडेय के साथ भारतीय सैनिकों ने अंगरेज बहादुर से विद्रोह कर दिया। विद्रोही सैनिक मिलकर बादशाह के पास पहुंचे कि आप हमारी अगुआई करें। बादशाह ने अगुआई कबूल की। फिर क्या था! हिन्दू-मुसलमान दोनों मिलकर लामबंद हो गए। यह अलग बात है कि इसमें मुट्ठी भर लोग ही शामिल थे लेकिन जो भी थे वे अंगरेजों के खिलाफ एकजुट थे। एक ही सेना में एक साथ ‘हर-हर महादेव’ और ‘अल्लाह-हो-अकबर’ गूंजने लगा। अंगरेज बहादुरों ने कभी सोचा नहीं था कि अइसा भी हो जाएगा। देखके अलबला गया सब।

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फिर जब गदर शांत हुआ तो इसका तोड़ निकाला गया। दिल्ली में पकड़े गए विद्रोही हिंदू सैनिकों को छोड़ दिया गया। लेकिन मुसलमान सैनिकों को सजा दी गई। कहते हैं कि दिल्ली में एक ही दिन 22 हज़ार मुसलमान सैनिकों को फांसी दे दी गई। पूरे देश में ऐसा ही प्रयोग किया गया। मुसलमानों को सजा देने के साथ हिंदुओं को बड़े बड़े पद दिए गए। इसके दो दशक बाद इसी पॉलिसी को उलट दिया गया। अब मुसलमानों को ऊंचे पदों पर बैठाया जाने लगा और हिन्दुओं को प्रताड़ित किया जाने लगा। ऐसा इसलिए किया गया ताकि हिंदू और मुसलमानों में फूट पड़े।

यह संयोग नहीं, अंगरेजी प्रयोग था। 

अब 164 साल बाद की दिल्ली में आ जाइए। दिल्ली में सीएए विरोधी आंदोलन चल रहा है। आंदोलन में मुस्लिमों के साथ बड़ी संख्या में हिंदू शामिल हैं। इसी बीच सरकार का एक आदमी जाकर पुलिस की मौजूदगी में खुद प्रदर्शन खत्म कराने की धमकी देता है। इसके बाद दंगा शुरू होता है। दंगा होता है ​तब तक गृहमंत्री और गृहमंत्रालय गायब रहता है। दंगा शांत हो जाता है तब गृहमंत्रालय का काम शुरू होता है। दंगा भड़काने वाले नेता पर सवाल उठाने वाले जज का रात में ही ट्रांसफर कर दिया जाता है। उसे कोई छूता तक नहीं। जो लोग सीएए जैसे घटिया कानून के विरोध में थे, जो लोग सांप्रदायिकता के विरोध में थे, जो लोग दंगों के विरोध में थे, उन्हीं को पकड़ पकड़ कर केस दर्ज होता है और सैकड़ों लोगों को मुकदमे में फंसा दिया जाता है। ऐसा पूरे देश में कई घटनाओं में किया जाता है। हर लिंचिंग की घटना में लिंच मॉब को सम्मान और पीड़ित को प्रता​ड़ित किया जाता है। भीड़ किसी निर्दोष को पीटती है फिर पार्टी के लोग प्रदर्शन करके उसे छुड़ा लाते हैं।

एक नेता सरेआम जंतर मंतर पर एक समुदाय को काटने का नारा लगवाता है, लेकिन वह आराम से छूट जाता है।  अपराधी को सजा मिलनी चाहिए, निर्दोष को आंच नहीं आनी चाहिए लेकिन यहां अपराध और दंड सब हिंदू और मुसलमान के आधार पर तय हो रहा है। उन्मादी भीड़ भगवा लेकर मस्जिद पर चढ़ जा रही है, मुस्लिम बस्तियों में भीड़ जाकर घटिया नारे लगा रही है और कहा जा रहा है कि हिंदू बहुत प्रताड़ित हो रहे हैं।

यह संयोग नहीं, यह न्यू इंडिया का संघी प्रयोग है।

‘बांटो और राज करो’ की यह क्रोनोलॉजी डेढ़ सौ साल पुरानी है। आप कुछ रिलेट कर पा रहे हैं? एक तरफ कंपनी राज आ रहा है, सामाजिक न्याय और आर्थिक समानता के लिए बनी व्यवस्थाएं खत्म की जा रही हैं। दूसरी तरफ, समाज में अन्याय और भेदभाव को सरकारी स्तर पर बढ़ाया जा रहा है। क्या मुझे ये लिखने की जरूरत है कि ‘बांटो और राज करो’ की ऐसी नीति का क्या अंजाम इस देश ने भुगता है? आपके इस खूबसूरत देश को नरक में धकेला जा रहा है। इस बार अंगरेज बहादुर नहीं हैं, इस बार देसी अंगरेज हैं। हम उम्मीद करते हैं कि भारत की जनता यानी आप अपने अतीत से सीख लेंगे और आपस में लड़ने से इनकार कर देंगे। जय हिंद!

(लेखक पत्रकार एंव कथाकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)