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किसान आंदोलन भारत की धर्मनिरपेक्ष परंपरा को एक स्वस्थ आयाम दे रहा है।

31 जनवरी को किसान संगठन फिर जुट रहे हैं, अपने अभूतपूर्व और शांतिपूर्ण आंदोलन की समीक्षा के लिये और वे 31 जनवरी का दिन, देश भर में “विश्वासघात दिवस” के रूप में मनाएंगे। यह विश्वासघात दिवस, उस आश्वासन के संदर्भ में आयोजित है, जो सरकार ने तीनों कृषि कानूनो की वापसी के समय किसान संगठनों से किया था। सभी जिला और तहसील स्तर पर प्रदर्शन आयोजित किए जाएंगे। उम्मीद है कि यह कार्यक्रम देश के कम से कम 500 जिलों में आयोजित किया जाएगा। संयुक्त किसान मोर्चा ने 15 जनवरी की अपनी बैठक में यह फैसला किया था। इन प्रदर्शनों में केंद्र सरकार के नाम ज्ञापन भी दिया जाएगा। पर इस बार इस आंदोलन में किसानों से जुड़े लोग और मुद्दे तो उठेंगे ही, साथ ही देश के मजदूरों और बेरोजगारों का भी मुद्दा उठेगा। यह जन आंदोलन न केवल देश मे बढ़ रहे कारपोरेटीकरण के खिलाफ एक सशक्त आवाज के रूप में उठा है, बल्कि, जनता की मूलभूत और असल समस्याओं के लिये भी मुखरित हो रहा है। इसी समय यूपी विधानसभा के चुनाव भी होने वाले हैं, अतः 31 जनवरी को होने वाले सम्मेलन का विशेष महत्व है। किसानों ने 3 फरवरी से मिशन यूपी की घोषणा की है। अब उसका क्या स्वरूप होगा, यह तो तभी बताया जा सकेगा, जब मिशन यूपी की रूपरेखा सामने आए।

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जब एक साल से अधिक समय से चल  रहे किसान आंदोलन को कल बल छल से खत्म कराने की सारी कवायद विफल हो गयी तो 2021 की गुरुनानक जयंती के दिन, प्रधानमंत्री जी ने तीनों कृषि कानूनो को रद्द करने की घोषणा की और यह कहा कि संसद मे आगामी सत्र के पहले ही दिन, संसदीय अनुमोदन से यह तीनों कानून रद्द कर दिए जाएँगे और ऐसा हुआ भी। जो कानून बिना पर्याप्त विचार विमर्श और विधि निर्माण की  संसदीय परम्पराओ को दरकिनार कर के बनाये गए थे, वे उसी प्रकार बिना बहस और विचार विमर्श के रद्द कर दिए गए। वे कानून लाये क्यों गए थे और वापस क्यों ले लिए गए, यह प्रधानमंत्री न तो देश को समझा पाए और न ही किसानों को। समझा न पाने की बात प्रधानमंत्री जी ने खुद स्वीकार भी की है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उम्मीद थी कि तीन नए कृषि क़ानूनों को रद्द करने के बाद, किसान अपना डेरा डंडा उखाड़ कर ‘मोदी है तो मुमकिन है’ का मंत्र जाप करते हुए दिल्ली छोड़ देंगे और वे एक साल से अधिक समय तक चले इस आंदोलन में विभिन्न कारणों से दिवंगत हुए सात सौ से अधिक किसानों की शहादत, आन्दोलन के दौरान झेली गयी दुश्वारियां देशद्रोही से लेकर खालिस्तानी तक लगाए जाने वाले लांछन, आंदोलन के दौरान दर्ज हुए मुक़दमे, एकता का दृढ़ संकल्प आदि सब भुला देंगे। पर यह गलत साबित हुआ है। इसके बजाय किसान यूनियनों ने घोषणा कर दी कि जब तक, केंद्र सरकार सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य मुहैया कराने के लिए कानूनी या वैधानिक गारंटी नहीं देती है, तब तक वे अपना एक साल पुराना समाप्त नहीं करेंगे।

एमएसपी को अक्सर एक विवादित मुद्दा कहा जाता रहा है और कमोबेश यह विवाद अब भी बनाया जा रहा है। एमएसपी पर कृषिअर्थशास्त्री और सामान्य अर्थशास्त्री, अपने अपने दृष्टिकोण के साथ, अलग अलग राय रखते हैं। एक पक्ष का कहना है कि, यह अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर देगा, औऱ दूसरा पक्ष, एमएसपी को किसानों को तबाही और मौत से बचाने के एक ज़रूरी उपाय के रूप में मानते हैं। प्रोफेसर सुखपाल सिंह पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना में मुख्य अर्थशास्त्री (कृषि विपणन) हैं और उन्होंने न्यूनतम समर्थन मूल्य, ग्रामीण संकट और कृषि सुधार पर कई शोधपत्र भी लिखे हैं। साथ ही वह अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र विभाग के प्रमुख और “मूल फसलों की खेती की लागत” के मानद निदेशक भी रहे हैं।

न्यूज़क्लिक वेबसाइड को दिए एक इंटरव्यू में, वे कहते हैं, “आर्थिक और राजनीतिक कारकों ने भारत की खाद्य नीति को निर्धारित किया था, जिसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) एक महत्वपूर्ण तत्व है। यह नीति 1943 के बंगाल अकाल से निकली थी, जिस अकाल में दस लाख से अधिक लोग मारे गए थे। यह अकाल मोटे तौर पर खाद्यान्न की अपर्याप्त आपूर्ति का परिणाम था, और इस स्थिति ने ब्रिटिश भारत सरकार को जॉर्ज थियोडोर की अध्यक्षता में खाद्यान्न नीति समिति बनाने के लिए मजबूर कर दिया था, जिसने उस वक़्त खाद्यान्नों की राशनिंग पर जोर दिया था।”

कई शोधकर्ताओं का भी यह मानना है कि अंग्रेजों ने भी सोचा होगा कि भोजन की कमी अशांति और अराजकता पैदा कर सकती है। उनका दावा है कि हरित क्रांति का एक प्रोटोटाइप भी तभी तैयार हुआ था, जिसे हमने 1960 के दशक में पूरा होते देखा था। 1964 में, खाद्य मूल्य निर्धारण नीति विकसित करने के लिए पहले आयोग का गठन किया गया था – जिसका नाम एलके झा समिति था। इसने कृषि मूल्य आयोग की स्थापना की सिफारिश की, जो मौजूदा कृषि लागत और मूल्य आयोग (CACP) के नाम से जाना जाता है। कृषि मूल्य आयोग ने न्यूनतम समर्थन मूल्य और खरीद मूल्य की अवधारणा पेश की। उसी समय एमएसपी की परिभाषा भी तय की गयी। “एमएसपी वह न्यूनतम मूल्य है जो किसान को खाद्यान्न उत्पादन के लिए चुकाना होता है।  यह कीमत लागत को कवर करने और किसान को लाभ का एक निश्चित प्रतिशत देने वाली होती है।” इसका मतलब-

● बाजार में खाद्यान्न को एक विशेष कीमत या खरीद मूल्य पर बेचा जाएगा।

● यदि खरीद के मूल्य पर खाद्यान्न खरीदने वाला कोई खरीदार नहीं मिलता है तो सरकार गारंटी देती है कि वह न्यूनतम मूल्य या एमएसपी पर किसान की उपज खरीदेगी।

एमएसपी प्रणाली के पीछे का विचार किसानों को उनकी फसलों के लिए लाभकारी मूल्य प्रदान करना और उन्हें उपभोक्ताओं को उचित मूल्य पर बेचना था। इसे लागू करने में एक बड़ी समस्या यह रही है कि सरकार एमएसपी पर कुल कृषि उपज का केवल एक छोटा सा हिस्सा ही खरीदती है। लेकिन भौगोलिक विविधताएं भी मौजूद हैं। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से, सरकार लगभग सभी खाद्यान्न यानी गेहूं और धान की खरीद एमएसपी पर करती है।

अब थोड़ी चर्चा एमएसपी पर, 2014 में गठित शांता कुमार समिति ने कहा कि, “चूंकि कुल कृषि उपज का केवल 6 प्रतिशत एमएसपी पर खरीदा जा रहा है, तो सरकार इस मात्रा की खरीद भी बंद कर सकती है।” इससे एक भ्रांति पैदा हो गयी कि, केवल 6 प्रतिशत किसानों को ही एमएसपी से लाभ होता है। जबकि यह सही नहीं है। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रत्येक किसान के साथ-साथ अन्य राज्यों के किसान बड़ी संख्या में एमएसपी प्रणाली के लाभार्थी हैं।

यह भी कहा जाता है कि, “एमएसपी पर बड़े पैमाने पर केवल गेहूं और चावल की ख़रीद की जा रही है, जिससे फसल की विविधिता पर असर पड़ा है?” जैसे, गेहूं और धान जोखिम भरी फसलें नहीं हैं, जैसे कि कपास है। [कपास कीटों के लिए अतिसंवेदनशील है।] गेहूं और धान दोनों का उत्पादन और विपणन सुनिश्चित है। ये दो कारक हैं जो किसानों को गेहूं और धान की तुलना में या उससे भी अधिक लाभदायक फसलों की ओर बढ़ने से रोकते हैं।

इसके अतिरिक्त, एमएसपी की गणना करने के तरीके पर भी सवाल उठाया जाता। लेकिन एमएस स्वामीनाथन कमेटी ने एमएसपी का जो फॉर्मूला दिया है, उसे सरकार ने लगभग मान भी लिया है, और सभी राजनीतिक दल उसी फॉर्मूले के आधार पर एमएसपी देने का वादा भी अपने अपने घोषणापत्र में करते हैं, पर वे जब सरकार में रहते हैं तो उस वादे पर अमल नहीं करते हैं।

इस प्रकार यदि तीनो कृषिकानून जो अब अस्तित्वहीन हैं की चर्चा करें तो पाएंगे कि एमएसपी एक बड़ा और सबसे अहम मुद्दा है। हर उत्पादक की तरह किसानों को भी इस बात का हक़ है कि उनका उत्पाद, न सिर्फ लागत से अधिक मुनाफे पर बिके और यदि ऐसा न हो सके तो कुछ न कुछ ऐसा उपाय किया जाय जिससे उन्हें इतना लाभ और आय हो जिससे वे न केवल अपना घर बार चला सकें, बल्कि, वे अगली फसल के लिये भी खेत, उपकरण, बीज आदि की सुगमता से व्यवस्था कर सकें। पर फिलहाल ऐसा नही हो पा रहा है।

जब सरकार ने तीनों कृषिकानून रद्द करने की घोषणा की, तब किसानों ने एक कमेटी गठित कर, एमएसपी, किसानों पर दर्ज मुकदमों की वापसी, आंदोलन के दौरान, दिवंगत हुए किसानों को मुआवजा देने, सहित अनेक मांगो के संबंध एक कमेटी गठित कर उसे हल करने की मांग की थी। पर आज तक सरकार ने ऐसी कोई कमेटी गठित नहीं की जिससे किसानों में सरकार के प्रति जो पहले संशय था, वह जस का तस है बल्कि और वह बढ़ा ही है।

किसान आंदोलन को सामाजिक और आर्थिक नजरिए से लगातार विश्लेषण की जरूरत है। किसान आंदोलन अभी देशव्यापी नहीं हो पाया है। पर इसके कुछ उत्साहजनक और अलग तरह के परिणाम भी सामने आए हैं। सामाजिक तानेबाने पर असर के रूप में देखें तो यह आंदोलन भारत की धर्मनिरपेक्ष परंपरा को एक स्वस्थ आयाम दे रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जहां ग्रामीण समाज, हिंदू मुस्लिम के रूप में अलग अलग बंट गया था, वह अब खेती किसानी और अपनी असल समस्याओं को लेकर साथ साथ आ रहा है। लंबे समय बाद ग्रामीण समाज ने सोचा कि साम्प्रदायिक विभाजन ने जो दरार गांव गांव मे हो गयी है, उसने सिवाय नुकसान के उन्हें कुछ नही दिया। अब वे अपनी साझी समस्या चाहे वह गन्ना मूल्य के बकाए के भुगतान की हो, या एमएसपी या खाद, डीजल, बिजली के महंगाई की, का समाधान मिलजुल कर करना चाहते हैं।हिंदी भाषी प्रदेश बुरी तरह से साम्प्रदायिकता की बीमारी से ग्रस्त है। इस आंदोलन की यह सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि अब उस बीमारी के प्रति समाज मे जागरूकता आयी है।

इस हालांकि इस सुखद परिवर्तन के बाद भी साम्प्रदायिक एकता के लक्ष्य का मार्ग कठिन और लम्बा है, पर पिछले सात साल से समाज को असल मुद्दे से भटका कर, जिस विभाजनकारी एजेंडे पर सत्तारूढ़ दल, उसके थिंकटैंक और सरकार, हाँक ले जा रही थी, वह मोहनिद्रा अब टूटने लगी है। तंद्रा, अवश्य अभी शेष है, पर लोग अब जाग गए हैं। वे देख रहे हैं कि, उनके बच्चों का भविष्य अधर में है, सात सालों में ढंग का एक भी इम्तिहान नौकरी के निमित्त सम्पन्न नही हो पाया, सरकारी आंकड़ों के ही अनुसार, लोगो की आमदनी आधी हो गयी है और महंगाई ने खर्चे दुगुने से भी अधिक कर दी गयी और जब सरकार से इन सब मुद्दों पर सवाल उठाया जाता है तो वह 80 बनाम 20 का राग अलापने लगती है, जिन्ना का उल्लेख करती है और पाकिस्तान से डराती है। इसे आप सात साल की उपलब्धि कह लें या देश, समाज और अपनी नियति। पर दूरियां चलने पर ही मिटेंगी..दिल की नजदीकियों की शुरुआत दिमाग की गांठों के खुलने से होती है..अभी बस गांठे ढीली हुई है। गांठों के खुलने में वक्त लगेगा।

नेशनल फार्मर्स यूनियन, (NFU) अमेरिका का शायद सबसे बड़ा किसान संगठन है। इसका कहना है कि, भारत और अमेरिका के किसानों के हालात एक जैसे है। सोचिए, अमेरिका के किसानों को लगभग 12 लाख ₹ साल की सब्सिडी मिलती है..उसके बाद भी उनके हालात हमारे जैसे हैं। एनएफयू का कहना है कि भारतीय किसानों का आंदोलन किसानों की सार्वभौमिकता, ग्रामीण अर्थनीति और फेयर फ़ूड डिस्ट्रीब्यूशन के लिए जरूरी है। जबकि हमारे यहां ग्रामीण अर्थनीति यानी ग्राम आधारित अर्थव्यवस्था पर कभी जोर ही नहीं दिया गया। उपभोक्तावाद और पूंजीवाद के सबसे विकृत रूप क्रोनी कैपिटैलिज़्म यानी गिरोहबंद पूंजीवाद ने अर्थनीति में अपनी प्राथमिकता बनाये रखी और अब तो कृषि सेक्टर को ही कॉरपोरेट के चंगुल में दे देने की योजना थी, जिसे इस महान संघर्ष ने विफल कर दिया है।

एनएफयू का यह भी कहना है कि, ‘आज भारत मे किसानों के साथ जो हो रहा है वह अमेरिका में 1970, 80 के दशकों में हो चुका और अमेरिका का किसान बरबाद हो गया। पूरी अमेरिकन कृषि जमीन उद्योगपतियों के हाथों में चली गई और वहां का का किसान अपने मालिक पूंजीपतियों का एक प्रकार से बंधुआ मजदूर बन कर रह गया है। इन कानूनों में से एक कानून जो कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का था का पोशीदा एजेंडा अमेरिकी कृषि मॉडल की तर्ज पर, भारत की कृषि व्यवस्था को ले जाना था। आज अमेरिका की आधी कृषि ज़मीनों के मालिक बिल गेट्स हैं और जब पूंजी का एकत्रीकरण होने लगता है तो वह समाज को एक ऐसे विषम समाज मे बदल देती है जिसमे, आधी से अधिक सम्पदा पर, कुछ मुट्ठी भर लोगो का नियंत्रण होता है शेष में पूरी जनसंख्या जीवन बिताने को अभिशप्त होती है।

यह आंदोलन अभी खत्म न तो हुआ है और न ही खत्म होगा। जिस शांतिपूर्ण और गांधीवादी तरीके से किसानों ने यह आंदोलन संचालित किया वह एक अनोखा प्रयोग था और उस प्रयोग ने गांधी को आज भी प्रासंगिक कर दिया। अब इस आंदोलन के साथ, सार्वजनिक उपक्रमों, जिन्हें सरकार निजी कम्पनियों के हाथ बेचने जा रही है, के कामगार, और युवा भी शामिल होंगे। 31 जनवरी को किसान संगठन अपनी भावी रणनीति पर विचार करने के लिये बैठक करने जा रहे हैं। भारत मे कृषि एक उद्योग ही नहीं बल्कि एक हज़ारो साल से चली आ रही संस्कृति है। किसानों की समस्याओं से सरकारों का नज़रअंदाज कर जाना अब संभव नहीं है।

(लेखक पूर्व आईपीएस हैं)