मजदूरों की बेबसी “20 लाख करोड़ से अच्छा था कि बस दिला देते”

कृष्णकांत

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जिन्हें भोजन नहीं मिल रहा, जो डेढ़ हजार किलोमीटर पैदल चलने के लिए रास्ते में हैं, जिनके सामने जीवन का सबसे बड़ा संकट है, उनके लिए तो 20 लाख करोड़ का मतलब है माटी. लक्ष्मी साहु अपने पति और बेटे के साथ लखनऊ से छत्तीसगढ़ जा रही हैं. यह परिवार साइकिल से है. कभी साइकिल से चलते हैं, थक जाते हैं तो पैदल चलते हैं. वे रायबरेली पहुंचे थे, तभी रिपोर्टर ने लक्ष्मी से पूछा कि प्रधानमंत्री 20 लाख करोड़ का पैकेज दिया है, आपका क्या कहना है.

लक्ष्मी ने कहा कि “जब कोई काम नहीं है तो खुश होने के लिए क्या है? मैं एक दिहाड़ी मजदूर हूं और कोई रोजगार नहीं है… मैं क्या खाऊंगी? इससे अच्छा है कि मैं अपने घर लौट जाऊं और खेतों में काम करूं.” पैकेज के बारे में लक्ष्मी ने कहा, “क्या लाभ हुआ? हम जहां रह रहे थे वहां हमें राशन भी नहीं मिला, मैं तीन दुकानों में गई. सब ने मेरे आधार कार्ड के बारे में पूछा लेकिन राशन किसी ने नहीं दिया. इससे तो अच्छा होता है कि वे हमारे घर जाने के लिए बसों का इंतज़ाम कर देते. कम से कम हम यह तो कह सकते थे कि सरकार को हमारी परवाह है.”

सवाल जो उठ रहे हैं

जिसका एक बेटा कल पैदल चलते हुए हाईवे पर कुचल कर मरा है, दूसरा रास्ते में फंसा है, उस मां से जाकर कहिए कि अम्मा ‘वोकल होकर लोकल को ग्लोबल बनाना है.’ गारंटी है कि अम्मा वोकल हो जाएगी और मुंगरी, पहरुआ, झाड़ू, चप्पल… जो भी हाथ आएगा, उठाकर कपार पर दे मारेगी. लेकिन क्या कहा जाए! 48 दिन का अनुभव यही है कि इस संकट की सबसे बड़ी कीमत वे लोग चुका रहे है जो सबसे कमजोर लोग हैं. संतोष की बात ये है कि वे दो तीन हजार किलोमीटर के सफर पर निकल चुके हैं और इसके लिए उन्हें आत्मनिर्भरता या आत्मसंयम बढ़ाने वाले भाषण की जरूरत नहीं थी.