न्याय व्यवस्था को ध्वस्त कर रहा है सत्ता का अहंकारी बुल्डोज़र

बुलडोजर किसी का घर नहीं, संविधान की उस इमारत को ढहा रहा है जिसके दम पर यह लोकतंत्र 70 सालों से निर्बाध चल रहा है। यह न सिर्फ अदालतों की तौहीन है, बल्कि एक तरह से न्याय व्यवस्था को खत्म कर देने जैसा अपराध है जिसके मूल में गुंडई है।

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सीएए-विरोधी आंदोलन के समय ही मैंने सवाल किया था कि सरकार किस अधिकार से किसी का घर गिरा सकती है? सरकार हो या चुना हुआ नेता, उसे किसी को दंड देने का अधिकार नहीं है। अपराधियों और गुंडों के केस में अगर वे लंबे समय तक अदालत में हाजिर नहीं होते हैं तो उनकी संपत्ति अदालती आदेश पर कुर्क की जाती है। नष्ट फिर भी नहीं जाती। यह अधिकार भी सिर्फ अदालत को है। अदालत वही संपत्ति कुर्क करने का आदेश देती है जो अपराधी के नाम हो। बाप का घर नहीं गिरवाती।

मान लिया कि आपके ऊपर कोई आरोप लगा तो बिना जांच हुए, बिना अदालत के निर्णय दिए आपको दोषी कैसे मान लिया जाएगा? यह कौन तय करेगा कि आप अपराधी हैं? अगर आप अपराधी हैं तो उसका दंड आपका घर तबाह करना कैसे हुआ? क्या घर मे सिर्फ वही रहता है जिसके ऊपर आरोप लगा? कथित अपराधी के मां-बाप, भाई-बहन, पत्नी-बच्चे भी हो सकते हैं? घर तो उनका भी है! आप किसी विशेष परिस्थिति में ही किसी का घर गिरा सकते हैं।

यह बुलडोजर न्याय न सिर्फ मानवाधिकारों का उल्लंघन है बल्कि अदालत और कानून का मजाक बनाना है। बुलडोजर न्याय मध्ययुगीन न्याय का तरीका है जिसके तहत राजा किसी पर नाराज हुआ तो तुरंत हाथी से कुचलने या सिर काट लेने का आदेश दे दिया।

भारत का कोई जनप्रतिनिधि मध्ययुगीन सुल्तान बनने की कोशिश न करे। सुल्तानों और बादशाहों को बहुत पहले दफनाया जा चुका है। नेताओं को लोकतंत्र का न्यूनतम सबक सीख लेना चाहिए। बुलडोजर न्याय अराजकता का राष्ट्रीय प्रोजेक्ट है। अगर आप अबतक बुलडोजर न्याय देखकर खुश हैं तो खुश मत होइए। यह आपका लोकतंत्र आपसे छीन लेने की शुरुआती प्रक्रिया है। देश बुलडोजर से नहीं, कानून के शासन से चलेगा।

(लेखक पत्रकार एंव कथाकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)