निसार अहमद सिद्दीक़ी
सत्ता की कुर्सी हमेशा लाशों पर रखी जाती है। लाशों से कुर्सी के चारो पाँये बुलंदी छुते हैं। अब इज़राइल और नेतन्याहू को देख लीजिए। 10 मई को नेतन्याहू को कुर्सी से बेदख़ल होना था। वह चुनाव हार चुके थे। लेकिन उससे पहले ही नेतन्याहू ने भड़काऊ क़दम उठाने शुरू कर दिए। पहले दक्षिणपंथी नेता एरियल शेरोन को मस्जिद अल अक़्सा का दौरा करने के लिए भेजा। फिर फ़िलिस्तीनियों को शेख जर्राह इलाके से निकाला जाने लगा। इसके बाद 7 मई को मस्जिद अल अक़्सा में इज़राइली पुलिस घुस जाती है। पुलिस वहां लोगों को नमाज़ पढ़ने और वहां आने से रोकने लगती है। जिसके बाद वहां हिंसा भड़कने लगती है।
ये हिंसा नेतन्याहू के लिए किसी जीवनदान से कम नहीं था। इसी के बहाने वह इज़राइली राष्ट्रवाद को फिर से चिंगारी देता है और दोनों तरफ़ से रॉकेट, बमबारी शुरू हो जाती है। इसके बाद जो नेतन्याहू कुर्सी से बेदख़ल होते दिख रहे होते हैं, वह अचानक फिर से सर्वमान्य नेता बनने लगते हैं।
दरअसल गणित ये है कि नेतन्याहू की पार्टी लिकुड़ को चुनावों में बहुमत नहीं मिला था। नेतन्याहू को दूसरी पार्टियों से गठबंधन करना था। लेकिन उनको गठबंधन नहीं मिल रहा था। दरअसल बहुमत से दूर रहने के बाद नेतन्याहू ने नफ्ताली बेनेट की यामीना पार्टी के साथ सरकार बनानी चाही, लेकिन बेनेट ने इनकार कर दिया। बेनेट दूसरी सबसे बड़ी पार्टी येश अतिद के यैर लैपिड के साथ सरकार बनाना चाहते थे। जिसमें अरब की पार्टी “राम” भी हो रही थी। मतलब नेतन्याहू सत्ता से बेदख़ल हो रहे थे, क्योंकि सरकार बनाने का मौक़ा वह खो चुके थे। राष्ट्रपति ने सरकार बनाने के लिए विपक्षी पार्टी यैर लैपिड को न्योता दिया था। लैपिड के पास 2 जून तक का वक़्त है।
लेकिन नेतन्याहू ने बीच में जंग के हालात पैदा कर माहौल अपने पक्ष में कर लिया है। उसने यामीना पार्टी के नफ्ताली बेनेट पर एक साइकोलॉजिकल प्रेशर बना दिया है कि वह नेतन्याहू की पार्टी लिकुड के साथ गठबंधन करे। अब बाज़ी नेतन्याहू के हाथ है साथ में सत्ता की चाबी भी। अंत में एक प्रश्न छोड़ रहा हूं जिसका जवाब आपलोग दीजिए। पड़ोसी देश के साथ जंग का माहौल पैदा कर किसने सत्ता पाई थी?
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में रिसर्च स्कॉलर हैं)