सिद्धार्थ रामू
दलित होना सिर्फ सामाजिक अपमान, उत्पीड़न और अर्थिक वंचना का ही कारण नहीं बनता है, जेल जाने और जेल में सड़ने के लिए भी पर्याप्त वजह है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरों के कल जारी आकंडे ( 2019) आंकड़े बताते हैं कि जेल में सजा भुगत रहे कुल लोगों का 21.7 प्रतिशत दलित हैं, जबकि जनसंख्या में उनका अनुपात सिर्फ 16.6 प्रतिशत है यानि जनसंख्या में अपने अनुपात से करीब 6 प्रतिशत अधिक दलित जेल की सजा काट रहे हैं।
21 प्रतिशत दलित ऐसे हैं, जो बिना सजा के जेलों में हैं, जिन्हें अंडरट्रायल कहा जाता है। ऐसी ही बदत्तर हालात आदिवासियों की है। आदिवासियों का जनसंख्या में अनुपात 8.6 प्रतिशत है, जबकि 13.6 प्रतिशत आदिवासी जेलों में सजा भुगत रहे हैं और 10.5 प्रतिशत ऐसे हैं, जो बिना सजा के जेलों में ( अंडरट्रायल) हैं। यानि अपनी जनसंख्या में अपने अनुपात से 5 प्रतिशत अधिक आदिवासी जेलों में है। मुसलमानों का जनसंख्या में अनुपात 14.2 प्रतिशत है, जबकि अंडर ट्रायल ( बिना सजा) के जेल काट रहे, मुसलमानों का प्रतिशत 18.7 है यानि जनंख्या में अनुपात से 4.4 प्रतिशत अधिक। सजा काटने वालों का अनुपात 16.6 प्रतिशत है।
इसका निहितार्थ यह है कि जेलों में सजा काट रहे कुल लोगों का 51.6 प्रतिशत या तो दलित है, या आदिवासी या मुसलमान। जबकि जनसंख्या में इन तीनों का कुल अनुपात 39. 4 प्रतिशत है यानि जनससंख्या में अपने अनुपात से करीब 11 प्रतिशत अधिक दलित, आदिवासी और मुसलमान जेलों में हैं। इन तीनों में भी सबसे बदत्तर स्थिति दलितों-आदिवासियों की है।
इसका निहितार्थ यह है कि अपरकास्ट और पिछड़े वर्गों का अगड़ा हिस्सा अपनी आर्थिक ताकत, सामाजिक हैसियत एवं संबंधों, राजनीतिक हैसियत एवं संबंधों का फायदा उठाकर जेल जाने या जेल की सजा पाने बच निकलता है। दलित-आदिवासी अपनी कमजोर आर्थिक ताकत, कमजोर सामाजिक-राजनीतिक हैसियत एवं सबंधों के चलते आरोपी एवं अपराधी ठहरा दिए जाते हैं।
आजादी के बाद के 70 साल के बाद फांसी पाएं लोगों का आंकड़ा देखें तो में अपवाद स्वरूप ही अपरकास्ट के लोग रहे हैं। कहने के लिए संविधान है, सबके लिए न्याय व्यवस्था, कानून के नजर में सब समान है,लेकिन सच यह है कि भारत में आज भी सबकुछ आर्थिक ताकत एवं सामाजिक हैसियत के मेल से तय होता है। यह भी सच है कि अक्सर ऊंची सामाजिक हैसियत एवं संबंध रखने वाला अपरकास्ट आर्थिक तौर भी ताक़तवर है। जेल जाने के लिए और जेल में बिना सजा के सड़ने के लिए दलित-आदिवासी होना पर्याप्त है। यही सच है, चाहे जितना दुखद एवं कडुवा हो।
(लेखक फॉरवर्ड प्रेस मैग्ज़ीन के संपादक हैं)