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शिवराज पाटिल बनाम नरेंद्र मोदी का सूट और लोकतंत्र से विलुप्त हो चुकी जवाबदेही

सनातन धर्म का इतिहास तकरीबन 5000 साल पुराना है। हम सब ऐसे परिवारों से हैं जो घोर आस्तिक और परंपरावादी हैं। पूजा पाठ परिवारिक संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है, लेकिन हमारे घरों के बड़े बुजुर्ग अपनी प्राथमिकताएं तय करते हैं। वे हमारी सारी जरूरतें पूरी करके ​तब पूजा-पाठ में लीन होते हैं। उसके लिए हमारा पोषण, पढ़ाई, दवाई, देखरेख को नजरअंदाज नहीं किया जाता।

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चाहे परिवार चलाना हो या देश, प्राथमिकता और जवाबदेही मूलभूत चीजें हैं। इनको नजरअंदाज करना तबाही को आमंत्रण देना है। हमारे देश में तमाम तबाहियां धीरे धीरे हमारी ओर बढ रही हैं। फर्ज कीजिए कि आप घर के मुखिया हैं और परिवार में कुछ लोग ​बीमारी से, इलाज के अभाव में, या आपदा में, हमले में खत्म हो गए। इस दौरान आप क्या करेंगे?

कल जब लेजर लाइट शो का मजा ले रहे मोदी जी का वीडियो आया, उसी दौरान श्रीनगर में सेना की बस पर हमला हुआ। दो जवान शहीद हो गए, एक दर्जन से ज्यादा घायल हो गए। इसी दौरान नरेंद्र मोदी ने विश्वसुंदरी प्रतियोगिता जीतने वाली युवती को बधाई दी। सेना पर हुए हमले के बारे में उनके आफिस ने कुछ देर बाद रिपोर्ट तलब की, उसके बाद क्या हुआ, पता नहीं।

यह रवैया देखकर मुझे यूपीए के गृहमंत्री शिवराज पाटिल याद आए। सितंबर, 2008 में दिल्ली में सीरियल ब्लास्ट हुए। कांग्रेस के शिवराज पाटिल गृहमंत्री थे। दिन भर में दो तीन बार नये-नये सूट बदल कर दिखाई पड़े। जनता चिढ़ गई कि देश पर ऐसा गंभीर संकट है और ये आदमी घड़ी-घड़ी सजने-संवरने में लगा है। उनकी खूब आलोचना हुई। कांग्रेस ने उनका इस्तीफा तो नहीं लिया, लेकिन आपात बैठक में उनको नहीं बुलाकर यह संदेश दे दिया कि सुधर जाओ। कांग्रेस सरकार में शामिल कुछ नेताओं ने ही कहा कि वे सरकार पर बोझ बन गए हैं। इसके बाद नवम्बर में मुम्बई हमला हुआ तो पाटिल फिर निशाने पर आ गए कि इनसे आंतरिक सुरक्षा नहीं संभल रही। उनका इस्तीफा ले लिया गया। उन्होंने जिम्मा लेते हुए इस्तीफा दे दिया। उसके बाद चिदंबरम साब ने पद संभाला था।

हमारे मोदी जी आदत से मजबूर हैं। इन्हें लोकतंत्र का जनाजा निकालने में मजा आता है। आरएसएस को लोकतंत्र से तबसे चिढ़ है, जबसे उसका जन्म हुआ। मोदी के अधिकारियों को भी ‘टू मच डेमोक्रेसी’ खराब लगती है।

पुलवामा हमला हुआ तब ये भाई साब जिम कार्बेट में वन​ विहार कर रहे थे। एक फिरंगी के साथ नौकाविहार, आखेट और हाथी का गोबर सूंघने वाली क्रीडा में बिजी थे। किसी फिल्म शूटिंग भी कर रहे थे। हमले के दिन वे शाम तक गायब रहे और कहा गया कि अधिकारियों को निर्देश था कि उन्हें डिस्टर्ब न किया जाए। शाम तक उन्हें सूचना ही नहीं हुई के देश पर हमला हुआ है। हमले के अगले दिन ही मोदी रैलियां कर रहे थे और अमित शाह भी पुलवामा का पोस्टर लगाकर वोट मांग रहे थे। पुलवामा हमले को लेकर जब सर्वदलीय बैठक हो रही थी तब भी प्रधानमंत्री उस बैठक में न जाकर रैली कर रहे थे।

जब कोरोना पीक पर था, करीब 57 हजार लोग जान गवां चुके थे, तब देश के प्रधानमंत्री का एक वी​डियो जारी हुआ जिसमें वे मोर मोरनी को दाना चुना रहे थे। उस 1 मिनट 47 सेकेंड के वीडियो में गरीब मोदी जी 6 अलग-अलग आलीशान पोशाक में दिखते हैं। देश को पता नहीं चला कि जिस दिन तक कोरोना से 57 हजार मौतें हो चुकी थीं, वे किस बात का जश्न मना रहे थे?

अगर एक सरकार का समूचा कार्यकाल मोर का नाच साबित हो जाए तो प्रधानमंत्री के पास करने को यही बचता है कि वे मोर को दाना चुनाएं, मंदिर जाएं और उसका लाइव प्रसारण करवाएं, जनता का धन फूंकें और आस्था के नाम उल्लू बनाएं।

अगर शिवराज पाटिल का सूट बदलना उनकी जवाबदेही पर सवाल था, नरेंद्र मोदी का बार बार ये काम करना जवाबदेही का मसला क्यों नहीं होना चाहिए?

शिवराज पाटिल कम से कम सूट बदलकर ही सही, जनता के बीच मौजूद तो थे। अब वह समय जा चुका है। न जनता दबाव बनाने के मूड में है, न सरकार दबाव में आने के मूड में है। दिल्ली दंगा हुआ तो गृहमंत्री चार दिन तक लापता रहे। जब लोग शहरों से पैदल भाग रहे थे तब भी गृहमंत्री गायब थे। आज हजारों सरकारी बसें लगाकर रैलियों में भीड़ जुटाई जा रही है, वे बसें लोगों की जान बचाने के लिए नहीं लगाई गईं।

गजब है कि आजतक न पुलवामा हमले की गंभीर जांच हुई, न किसी की जिम्मेदारी तय हुई कि 300 किलो विस्फोटक भरी गाड़ी सेना के काफिले में कहां से आई? उसके पीछे कौन था? कुछ नहीं पता।

पाटिल सुरक्षा में नाकाम रहे थे तो इस्तीफा दे दिया था। लेकिन बीजेपी की नाकामी पर बीजेपी ने पुलवामा के पोस्टर लगाकर वोट मांगे कि हमारी नाकामी के लिए हमें वोट दे दो।

ये लोकतंत्र डेढ़ लोगों की प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन गया है, जहां सामूहिक जिम्मेदारी नाम की कोई चीज नहीं बची है। कर्तव्य, धर्म, ईमान, देश, संस्कृति और संसाधन सब बेचकर वोट और सत्ता सुख ही सबसे बड़ा मकसद बचा है।

जनता का ध्यान बांटने और फिजूल की बातों को चर्चा में बनाये रखने के लिए सरकार के पास 56 तरीके हैं। सरकारें सब ऐसी ही होतीं हैं, नेता भी। बस मोदी बाकियों से 56 कदम आगे हैं। जिस दिन कोरोना से मौतों का आंकड़ा 56 हजार पहुंचा हो, उसी दिन मोर के साथ “56 तरह की पोज” देते हुए वीडियो डालने के लिए भी 56 इंच का सीना चाहिए। कोई संवेदनशील आदमी हो तो हर दिन हजार मौतों का देखकर सदमे में आ जाए।

अंतर प्राथमिकता का है। उन्हें विश्वसुंदरी को बधाई देना जरूरी लगा, लेजरलाइट शो का मजा लेना जरूरी लगा, पोशाक बदलना जरूरी लगा, सो उन्होंने किया। आपको क्या जरूरी लगता है? क्या इस देश में सत्तारूढ़ पार्टी, व्यक्ति, सरकार या संस्थान की जवाबदेही जरूरी है कि नहीं है?

अगर प्रधानमंत्री का सार्वजनिक रूप से एक धर्म का आयोजन करना, हर महीने दो महीने में पूजा पाठ करना, हर कुछ महीने पर धार्मिक आयोजनों में अरबों रुपये फूंकना इतना जरूरी है, अगर यही राजकाज का लक्ष्य होना चाहिए तो प्रधानमंत्री किसी नेता को नहीं, शंकराचार्य को बनना चाहिए। मोदी जो कर रहे हैं वह हमारी आस्थाओं और हमारे राजनीतिक अधिकार, दोनों का मजाक है। सबसे बुरा यह है कि उनके इस मिस्कंडक्ट, इस लोकतांत्रिक दुर्व्यवहार को लेकर उनसे कोई सवाल नहीं पूछता।

(लेखक पत्रकार एंव कथाकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)