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प्रचारकों की राजनीति और ईवीएम के बीच गोदी मीडिया का सर्वेक्षण

संजय कुमार सिंह

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चुनाव परिणाम आ गए ना दो मई को दीदी गई और ना अब बाबा जाएंगे। दिन चाहे जितने शेष हों, अखिलेश फिलहाल नहीं आएंगे। पर क्या मामला सिर्फ चुनावी था। मुझे लगता है नहीं पर उसे चुनावी बनाने के लिए कहा जा रहा है ईवीएम गड़बड़ होती तो पंजाब में आप को बहुमत कैसे मिलता और एक्जिट पोल सही निकले तो उसपर कोई टिप्पणी नहीं करेगा। दोनों ही मुद्दे वैसे ही हैं जैसे चुनाव के समय ईवीएम की बात करो तो कह दिया जाता है कि हार रहे हैं तो ईवीएम कर रहे हैं। दूसरी ओर जीतने वाले से कहा जाता है कि अब ईवीएम की बात नहीं कर रहे हैं। कुल मिलाकर, माहौल ऐसा बना दिया गया है कि आप जीतें या हारें ईवीएम की बात नहीं करें। चुनाव लड़ने वाले ऐसा न करें यह तो समझ में आता है पर मतदाता क्यों नहीं करें। हम क्यों नहीं मान लें कि जीतने वाले ने भी गड़बड़ की होगी। और ईवीएम को बेदाग होना चाहिए। हमें तो ईवीएम या चुनाव व्यवस्था के दुरुस्त होने से मतलब है। देश की अनपढ़, गरीब, भोली, धर्मभीरू और दुखी-पीड़ित, गरीब और कमजोर जनता को डराया जा सकता है तो जो नहीं डरें, उन्हें अपनी बात क्यों नहीं कहनी चाहिए।

प्रधानमंत्री प्रेस कांफ्रेंस नहीं करेंगे, मन की बात करेंगे यह उनका निर्णय़ है। समर्थक इसपर ताली बजाएं, नाचें – हम क्यों मान लें। हम तो कहेंगे ही प्रेस कांफ्रेंस नहीं करते हैं, जवाब नहीं देते हैं या ईवीएम पर हमारी शिकायतें दूर नहीं हुई या चुनाव आयोग पहले की तरह स्वतंत्र नहीं लगता है या प्रधानमंत्री हर मौके पर मुंह में दही जमा लेते हैं। दूसरी ओर, सवाल उठाने वालों पर उंगली उठाई जाए, उनका मजाक बनाया जाए इसका कोई कारण नहीं है। अगर आप भक्ति में ऐसा कर रहे हैं तो स्वागत है पर दूसरों को बेवकूफ या कमजोर तो मत समझिए। कोशिश कीजिए कि इसमें फूहड़ तर्क और दलील देकर अपना परिचय भी न दें। हालांकि वह आपका निजी मामला है और आपको ऐसा करने की पूरी स्वतंत्रता है। चुनाव के बाद जब एक जैसे ढेरों एक्जिट पोल पर सवाल उठ रहे थे तो एक सवाल यह भी था कि इससे किसे फायदा होगा और कोई क्यों जानबूझकर ऐसा करेगा। अव्वल तो कोई भी काम मुफ्त में नहीं होता है और कोई कर रहा है तो उसका उद्देश्य होगा ही। खाने-कमाने वाला व्यक्ति कुछ श्रम बिना लाभ के लिए भी करता है। वैसे ही जैसे सेठ-लाला जनसेवा करते हैं या कॉरपोरेट से सीएसआर की अपेक्षा की जाती है। इसलिए हम अगर सर्वे मुफ्त में करें या लेख लिखें या वोटर को जागरूक करें तो अपने-अपने समाज की सेवा ही कर रहे हैं। आप चाहे न मानें।

जहां तक सर्वेक्षण में भाजपा को जीतते दिखाने का मकसद है, मेरी राय में वह ईवीएम के खेल को जायज बनाने के लिए किया-कराया जा सकता है। आप जानते हैं सरकार का काम काज कैसा था। ऐसा तो बिल्कुल नहीं कि जो जनता कभी किसी को दोबारा नहीं चुनती रही है उसे दोबारा चुन ले। अगर ऐसा कोई काम था या हो सकता है तो उसे भी हम जानते हैं और वह कत्तई ठीक नहीं है। ऐसे में क्या वोटर बहकाए-बरगलाए जा रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं है। गोदी मीडिया के प्रचार से यही लगता है। निश्चित रूप से यह गलत है और इसे ठीक करने की जरूरत है। लेकिन अगर आपको यह यकीन दिला दिया जाए कि वोटर ही ऐसा है। वह नमक की कीमत अदा करने के लिए आमादा है तो भी यह देखा जाना चाहिए कि कितना नमक, कितनी कीमत और कौन वसूलेगा। यह सब मीडिया का काम है जो नहीं होता है और प्रचारक चाहते हैं कि इन मुद्दों पर चर्चा नहीं हो या उन्हीं मु्द्दों पर हो जिसपर वे चाहें। इसलिए यह संभव है कि ईवीएम से गड़बड़ी की जाए, गोदी मीडिया बुरी तरह हारने वाले को जीतता बताए और वह जीत जाए तो जनता उसपर यकीन कर ले क्योंकि सर्वेक्षण तो ऐसा था ही।

दूसरी स्थिति यह भी है कि नहीं जीतने वाला जीत जाए। आम आदमी पार्टी के मामले में ऐसा ही हुआ है। कुछ सर्वेक्षणों को छोड़कर कोई भी उसे इतनी सफलता नहीं दे रहा था। यह योजना का भाग भी हो सकता है और इस बात की भी संभावना है कि वहां ईवीएम का खेल नहीं हो पाया हो या किया नहीं गया हो ताकि इस वाले को सही साबित किया जा सके। जब नैतिकता और ईमानदारी नहीं है तो कुछ भी हो सकता है। हम बोलने और सवाल पूछने से क्यों हटें। जहां तक मेरी समझ है, ईवीएम को भाजपा ने ही खराब बताया था। अगर वह तब गलत थी या वह भी जुमला था तो स्पष्ट हो जाना चाहिए। किताब लिखने वालों को कह देना चाहिए कि वे प्रचारक का काम कर रहे थे। पर वे आश्चर्यजनक से चुप हैं या कुछ कहा हो तो मीडिया बता नहीं रहा है। पूछ तो नहीं ही रहा है। दुखद यह है कि ऐसे संदिग्ध ईवीएम के नतीजे के बाद यह कहा जा रहा है कि जनता सब पसंद कर रही है। अब कर रही है तो ठीक है नहीं कर रही हो तो उसकी (यानी जनता की) साख और समझ भी दांव पर है। फिर भी ईवीएम पर सवाल नहीं है – यह कमाल है या ईवीएम पर कमल है?

ऐसा नहीं है कि ईवीएम के खिलाफ शिकायतें नहीं हैं पर उन्हें नजरअंदाज किया जाता है। कई साल से। इस बार भी सिराथू में भाजपा उम्मीदवार केशव प्रसाद मौर्य चुनाव हार गए हैं और अखबारों की खबरों पर विश्वास किया जाए तो उम्मीदवार केशव प्रसाद मौर्य के बेटे योगेश मौर्य ने आरोप लगाया मतदान के बाद जितने वोट नोट कराए गए थे ईवीएम में उससे ज्यादा निकले। इसके बाद विवाद हो गया पर शिकायत नहीं सुनी गई। मेरा मतलब इतने से ही है कि हारने पर शिकायत तो भाजपा भी करती है लेकिन उसे ठीक कराने की मांग क्यों नहीं करती है। जीतने वालों पर यह आरोप क्यों लगाया जाता है कि अब वे मांग नहीं कर रहे। जो सरकार में है और दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करती है वह इतना अनैतिक क्यों है? जहां तक सर्वेक्षण के सही होने की बात है, मुद्दा यही है कि गोदी मीडिया को भाजपा को ही जिताना है। सर्वेक्षण का मकसद पहले बता चुका हूं। ऐसे में जब भाजपा जीत रही होगी तो सर्वेक्षण सही लगेगा ही। लेकिन इससे यह साबित नहीं होता है कि ईवीएम का खेल नहीं हुआ। न ही जाब में आप के जीतने से यह साबित होता है कि उत्तर प्रदेश में ईवीएम का दुरुपयोग नहीं हुआ होगा।

ज्यादातर सर्वेक्षण पंजाब में आम आदमी पार्टी को वो बहुमत नहीं दे रहे थे तो मिला या दूसरे राज्यों में भाजपा को मिलता दिखाया जाता है। दो एक ने ही 90 या ज्यादा सीटें आने की बात कही थी तो ऐसा बंगाल में भी हुआ था और अखिलेश के बारे में भी कहा ही गया था। ईवीएम पर भरोसा नहीं होने का एक और कारण है वीवीपैट की पर्चियों से मिलान का। यह काम ठीक से हो तो भी शक न हो लेकिन उस ओर भी कोई ध्यान नहीं है।