रवीश का लेखः जो इंसाफ़ की लंबी लड़ाई लड़ेगा, एक दिन अपराधी हो जाएगा?

जिस किसी को लगता है कि लोकतंत्र में न्याय के लिए लड़ना भी लोकतंत्र को बेहतर करना है, उसे अपूर्वानंद का यह लेख पढ़ना चाहिए। अमरीका में भारत के चीफ़ जस्टिस कहते हैं कि नागरिकों को लोकतंत्र के लिए अथक परिश्रम करना चाहिए और भारत में उसी कोर्ट के आदेश के बाद न्याय के लिए लड़ने वाले गिरफ्तार किए जा रहे हैं। इस फ़ैसले को लेकर पक्ष-विपक्ष लिखी जा रही एक-एक बात को ध्यान से पढ़िए।खोज कर पढ़िए।समझने का प्रयास कीजिए कि इसका इंसाफ को लेकर आपकी लड़ाई पर क्या असर पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट ही इजाज़त देता है कि उसके फ़ैसले की समीक्षा की जा सकती है। केवल जज की मंशा पर आप सवाल नहीं उठा सकते। हो सकता है कि मेरी समीक्षा पूर्ण न हो लेकिन मुझे जो समझ आ रहा है, उससे इस फ़ैसले और टिप्पणियों का असर दूर तक पड़ने वाला है।

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जिस देश में अवैध रूप से NSA लगता है, उस देश में कोई कैसे लड़ेगा, कहाँ से काग़ज़ और सबूत लाएगा? क्या यूपी में अवैध रूप से NSA नहीं लगा? क्या इलाहाबाद हाई कोर्ट ने फ़ैसला नहीं दिया और सुप्रीम कोर्ट ने सही नहीं माना? अवैध रुप से NSA लगाने वालों को क्या ATS उठा कर ले गई? उन अधिकारियों के ख़िलाफ़ क्या कुछ भी कार्रवाई हुई? आप इलाहाबाद हाई कोर्ट का जजमेंट उठा कर देखिए, NSA के कितने ही मामले रद्द किए गए लेकिन इसके दुरुपयोग से बेगुनाह लोगों को कई हफ़्तों या महीनों जेल में रहना पड़ा। ऐसा करने के आरोप में कोई जेल गया?

क्या हम सभी नहीं जानते कि सरकारी दस्तावेज़ों को हासिल करना असंभव होता जा रहा है।किसी भी सरकार के पास इतनी ताक़त है कि समानांतर दस्तावेज़ों का साम्राज्य खड़ा कर सकती है।क्या आप नहीं जानते कि सरकार के भीतर की फ़ाइलों में चीज़ें कैसे बदली जाती हैं? क्या आप नहीं जानते कि आँकड़े कैसे फ़र्ज़ी बना दिए जाते हैं? क्या आप पक्का जानते हैं कि सारा कुछ लिखित होता है? सरकार के भीतर मौखिक कुछ होता ही नहीं? तब आप वाक़ई बहुत जानते हैं। कितना आसान है कि आपके किसी दावे को फ़र्ज़ी साबित कर देना।

अब तो सरकारें सूचना के अधिकार के तहत दस्तावेज़ आसानी से नहीं देती, कई मामलों में देती ही नहीं हैं। इस देश में कितनी ही जाँच रिपोर्टों को मैनेज किया गया है। क्या यह बात आप नहीं जानते हैं? सही जाँच रिपोर्ट के होते हुए भी इंसाफ़ नहीं मि्ला, क्या इसके लिए कोई जेल गया? क्या आप नहीं जानते कि जाँच रिपोर्ट के बाद भी बरसों बिना लड़े इंसाफ नहीं मिलता? क्या बरसों लड़ना मामले को ज़िंदा रखना हो जाएगा? फिर एक टाइम लाइन होनी चाहिए कि मामले को कब मुर्दा घोषित कर देना है।

अब आप इस आधार पर गिरफ्तार किए जा सकते हैं कि आपका आरोप सही नहीं था। आपके दावे फ़र्ज़ी हैं। फॉल्स हैं। SIT ने तीस्ता के दावों को सही नहीं माना। SIT की बात पर मजिस्ट्रेट से लेकर कोर्ट ने मुहर लगाई। गुजरात पुलिस इस मामले में जाँच कर रही है।लेकिन इसके पीछे केवल यही पक्ष क्यों देखा गया कि किसी को बदनाम करने के लिए ऐसा कर रही थीं, यह क्यों नहीं देखा गया कि ज़किया के इंसाफ़ के लिए वे सुप्रीम कोर्ट तक गईं। सुप्रीम कोर्ट तक आने में, केस लड़ने में कौन सा सुख मिलता है? इंडियन एक्सप्रेस ने भी संपादकीय में लिखा है कि तीस्ता के मामले में क़ानून काम करेगा लेकिन इंसाफ़ के मामले में सुप्रीम कोर्ट के तमाम अच्छे कदमों पर इस आदेश का साया अच्छा नहीं पड़ेगा।

इस आदेश का क़ानूनी असर भले ही तीस्ता तक सीमित बताया जाएगा मगर इसका मनोवैज्ञानिक असर ताकतवर नेताओं और सरकारों के ख़िलाफ़ इंसाफ़ के लिए लड़ रहे हज़ारों लोगों पर पड़ेगा। सरकार और प्रशासन के अन्याय का शिकार होने वाला किस आधार पर इंसाफ मानेगा? क्या वह अपराधी हो जाएगा कि उसके पास दस्तावेज सही नहीं है? तब फ़र्ज़ी आधार पर जेल में डालने वाले अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई क्यों नहीं होती है?

मान लीजिए, आपके घर के सदस्य को भीड़ सड़क पर ले जाकर मार देती है और लाश ग़ायब कर देती है, जैसा कि एहसान जाफ़री के केस में हुआ। उस भीड़ से जान बचाने के लिए इस देश का एक पूर्व सांसद प्रशासन में कइयों को फ़ोन करते हैं। मदद नहीं पहुँचती है।ऐसी स्थिति में आरोप लगाना कि प्रशासन की लापरवाही और मिलीभगत थी, क्या यह मंगल ग्रह से खोज कर लाया गया आरोप है, जिसके लगाने पर जेल होगी? तीस्ता की गिरफ़्तारी से पहले गृह मंत्री के इंटरव्यू का प्रसारण और उसके तुरंत बाद गिरफ़्तारी भी संयोग है? क्या ज़किया जाफ़री भी जेल जाएँगी? जिनके पति को भीड़ ने मार दिया। वहाँ पर पचास से साठ लोग मार दिए गए थे।

क्या यह फ़ैसला केवल तीस्ता के लिए है? कितने लोगों ने गुजरात दंगों के मामले में

इंसाफ़ की लंबी लड़ाई लड़ी है। दोनों समुदाय के लोग जेल गए हैं। बेशक कई लोग बरी भी हुए हैं। इसमें तीस्ता का भी योगदान कम नहीं है। तीस्ता और उन्हीं की जैसी कई याचिकाओं पर अदालतें फ़ैसला देती रही हैं। बहुत सारे दावे ग़लत भी निकले हैं लेकिन बहुत सारे दावे सही भी निकले हैं।यही अनुपात सरकार की जाँच एजेंसियों का है और याचिकाकर्ताओं का भी होगा। तो क्या एक दिन उन सभी फ़ैसलों पर भी राजनीतिक सवाल उठेंगे? इस तरह की बातें क्यों हो रही है कि सब सामने आकर माफ़ी माँगे? क्या आरोप ग़लत होने पर बीजेपी माफ़ी माँगती है? क्या डॉ कफ़ील ख़ान पर अवैध रुप से रासुका लगाने पर सरकार ने किसी से माफ़ी माँगी थी?

क्या आप इंसाफ की लड़ाई की एक नई क़ानूनी परिभाषा स्वीकार करने के लिए तैयार हैं कि इंसाफ की लड़ाई लंबे समय तक नहीं लड़ी जानी चाहिए? सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की आड़ में सरकारों के आदेश पर जाँच एजेंसियाँ कितना दमन करेंगे, क्या अंदाज़ा नहीं है।गुजरात हाई कोर्ट में ज़किया जाफ़री केस हार गईं। हाई कोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट तक आना मामले को ज़िंदा रखना कैसे हो गया। अदालत की टिप्पणियों ने जाँच से ज़्यादा न्याय के संघर्ष को ही संदिग्ध बना दिया है। जाँच एजेंसियों को छूट मिल जाएगी। ऐसी लड़ाई लड़ने वाला एयर कंडिशन का सुख नहीं भोगता है। वह भी दूसरे के बदले यातनाओं से गुज़रता है।

यह भी याद रखिएगा कि भीमा कोरेगाँव केस में अमरीका की एक प्राइवेट सुरक्षा एजेंसी ने अपनी जाँच के बाद आरोप लगाया है कि भीमा कोरेगाँव केस में गिरफ्तार किए गए आरोपियों के लैपटाप को हैक करने में कथित रूप से पुणे पुलिस का भी हाथ हो सकता है।आरोप है कि हैक कर कंप्यूटर में सबूत छोड़ दिए गए ताकि उन्हें गिरफ्तार किया जा सके। अमरीका की इन जाँच एजेंसियों ने कई बार अपनी जाँच में इस बात को उजागर किया है।इस मामले में वाशिंगटन पोस्ट की निहा मसीह ने कई बार रिपोर्ट लिखी है।

ताज़ा रिपोर्ट में है कि कंप्यूटर हैक करने में कथित रुप से पुणे की पुलिस भी शामिल है।तब क्या कोर्ट ने तुरंत सज्ञान लिया? क्या किसी पुलिस की ATS शाखा या अदालत ने ऐसी रिपोर्ट पर तुरंत संज्ञान लिया?

अपूर्वानंद के इस लेख में आप तीस्ता का नाम मत देखिए, अपना नाम देखिए, जब आप  किसी के लिए इंसाफ की लड़ाई लड़ेंगे,याद रखिएगा कि इस देश की पुलिस ने कितने ही लोगों को आतंकवादी बना कर जेल में डाल दिया, कई कई साल के लिए और सबूत पेश नहीं कर पाई।पुलिस का कुछ नहीं हुआ।आपके हर दावे को फ़र्ज़ी साबित कर देना  बायें हाथ का खेल है।