हाल (दिसंबर, 2021) में अहमदाबाद नगर निगम की नगर नियोजन समिति ने घोषणा की कि शहर में सार्वजनिक सड़कों और स्कूल, कालेज व धार्मिक स्थलों के 100 मीटर के दायरे में मांसाहारी खाद्य पदार्थ बेचने वाले स्टाल नहीं लगने दिए जाएंगे। इसी तरह का निर्णय बड़ौदा, भावनगर, जूनागढ़ और राजकोट के नगरीय निकायों ने भी लिया। मांसाहारी खाद्य पदार्थ के विक्रेता इस निर्णय के खिलाफ अदालत में गए जिसने इस निर्णय को रद्द कर दिया।
यह आश्चर्यजनक परंतु सत्य है कि हमारे देश में मांसाहार का विरोध साम्प्रदायिक एजेंडे का हिस्सा बन गया है। प्रचार यह किया जाता है कि मांसाहार करने वाले व्यक्ति स्वभाव से हिंसक होते हैं। हम अपने आसपास के कई लोगों से यह तर्क सुनते रहते हैं कि मुसलमानों की प्रवृत्ति इसलिए आक्रामक है क्योंकि वे मांसाहारी होते हैं। इसके अलावा यह भी कहा जाता है कि मुसलमान बीफ का सेवन करते हैं। हिन्दुओं के लिए गाय एक पवित्र पशु है परंतु मुसलमान बीफ खाते हैं और इस तरह हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाते हैं। गाय और बीफ के मुद्दे पर देश भर में लिंचिग की अनेक घटनाएं हो चुकीं हैं।
मांसाहार और मुसलमानों द्वारा बीफ के सेवन को एक-दूसरे से जोड़ दिया गया है। पहला तर्क यह है कि मांसाहार से व्यक्ति में हिंसक प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। दूसरा तर्क यह है कि मुसलमान बीफ खाते हैं और इस प्रकार हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाते हैं। मांसाहार की अनेक परिभाषाएं हैं। अक्सर ये परिभाषाएं स्थान और समुदाय के साथ बदलती रहती हैं। कुछ शाकाहारी अंडे खाते हैं तो कुछ अंडे से सख्त परहेज करते हैं। कुछ का मानना है कि सी फूड जैसे मछली इत्यादि शाकाहार है। अन्य लोग उसे मांसाहार मानते हैं। आज पूरी दुनिया में 80 से 90 प्रतिशत लोग मांसाहारी हैं। इंडियास्पेन्ड द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 80 प्रतिशत पुरूष और 70 प्रतिशत महिलाएं हफ्ते में कम से कम एक बार मांस खाते हैं।
मुसलमानों को बीफ खाने के लिए कटघरे में खड़ा किया जाता है परंतु यूरोप और अमरीका के निवासियों को नहीं, जबकि बीफ उनका मुख्य भोजन है। ऐसे देश जहां के लोग अहिंसा के सबसे बड़े पैरोकार गौतम बुद्ध में श्रद्धा रखते हैं, वहां भी मांसाहार आम है। भारत में भी कई ऐसे समुदाय हैं जिनके नियमित भोजन में बीफ शामिल था और है। विभिन्न सर्वेक्षणों से पता चलता है कि अधिकांश राज्यों में मांस खाने वाले समुदायों की आबादी, शाकाहारियों से कहीं ज्यादा है। और यह बात गुजरात के बारे में भी सही है।
आज राजनैतिक कारणों से इस सोच को बढ़ावा दिया जा रहा है कि मांसाहार करने वाले नफरत के पात्र हैं। हम बिना अतिश्योक्ति के खतरे के कह सकते हैं कि अल्पसंख्यक समुदाय को खलनायक सिद्ध करने के लिए शाकाहार का सामाजिक और राजनैतिक हथियार के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। हरेक को यह अधिकार है कि वह मांसाहार को त्यागकर शाकाहारी बन जाए। परंतु मांसाहार के प्रति असहिष्णुता के भाव को उचित नहीं ठहराया जा सकता। यह कहना कि मुसलमान हिंसक होते हैं और उसका कारण यह है कि वे मांसाहारी हैं, एक शुद्ध राजनैतिक प्रचार अभियान है जिसका न तो वैज्ञानिक आधार है और ना ही मनोवैज्ञानिक। इतिहास गवाह है कि वैदिक काल में बीफ और अन्य मांसाहारी पदार्थों का सेवन आम था। ‘अथो अन्नम् वै गौः’ (गाय ही वास्तविक भोजन है)। स्वामी विवेकानंद के अनुसार, “आपको आश्चर्य होगा यदि मैं आपको बताऊं कि प्राचीन रस्मों के अनुसार जो व्यक्ति बीफ नहीं खाता वह अच्छा हिन्दू नहीं है। कुछ मौकों पर एक अच्छे हिन्दू को बैल की बलि देकर उसे खाना चाहिए” (द कम्पीलट वर्क्स ऑफ स्वामी विवेकानंद, खण्ड 3, पृष्ठ 536, अद्वैत आश्रम, कलकत्ता, 1997)।
डी। एन। झा अपनी पुस्तक ‘मिथ ऑफ द होली काऊ’ में बताते हैं कि कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था के उदय के साथ गौतम बुद्ध ने गाय की बलि पर प्रतिबंध लगाया। इस प्रतिबंध का मुख्य उद्धेश्य मवेशियों को बचाना था। बौद्ध धर्म के समर्पित अनुयायी सम्राट अशोक ने अपने एक शिलालेख में लिखा है कि केवल इतने जानवर और पक्षी मारे जाने चाहिए जो रसोईघर के लिए पर्याप्त हों। इसका उद्धेश्य ब्राहम्णवादी रीति-रिवाजों के भाग के रूप में पशुबलि को रोकना था। इसके बाद ब्राम्हणवाद ने भी यह दिखाने के लिए कि उसे भी मवेशियों की चिंता है, गाय को माता घोषित कर दिया। समय के साथ गाय का माता का दर्जा ब्राम्हणवाद का हिस्सा बन गया और इस पर राजनीति शुरू हो गई।
जहां तक यह प्रश्न है कि क्या किसी व्यक्ति का स्वभाव और प्रवृत्तियां उसके भोजन से प्रभावित होती हैं इसके बारे में कोई वैज्ञानिक अध्ययन या तथ्य उपलब्ध नहीं है। हिंसक प्रवृत्ति किसी के व्यक्तित्व का भाग होती है और यह उसकी पारिवारिक, सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों का परिणाम होती है। एक ही व्यक्ति कई बार अपने जीवन के कुछ हिस्से में हिंसक और कुछ हिस्से में सहिष्णु और अहिंसक हो सकता है।
कुछ पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियां भोजन को सात्विक, तामसिक और राजसिक में विभाजित करती हैं। परंतु इस वर्गीकरण का भी कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। भले ही कुछ लोग यह मानते हों कि किसी मनुष्य का स्वभाव उसके भोजन पर निर्भर करता है परंतु किसी भी आधुनिक वैज्ञानिक अध्ययन से यह सिद्ध नहीं हो सका है। हिटलर, जिसने आधुनिक इतिहास में सबसे बड़ा कत्लेआम किया था, शुद्ध शाकाहारी था।
कुछ लोग आज शाकाहार को अपना रहे हैं। कुछ इससे भी आगे बढ़कर वीगन बन रहे हैं। परंतु वे धार्मिक कारणों से ऐसा नहीं कर रहे हैं और ना ही वे उन लोगों से नाराज रहते हैं जो मांसाहारी भोजन करते हैं। परंतु समाज का एक तबका, जो साम्प्रदायिक सोच से प्रभावित है, मांसाहार को धार्मिकता से जोड़ रहा है और शाकाहार को राजनैतिक एजेंडा बनाने पर उतारू है। जब खानपान की आदतों को धर्म से जोड़ दिया जाता है तब वे कई तरह की दुष्प्रवृत्तियों को जन्म देती हैं। लोग अपने आसपास मांसाहारियों को रहने देना नहीं चाहते और कई हाऊसिंग सोसाटियों में मांसाहारियों को घर खरीदने या किराए पर लेने नहीं दिया जाता।
अहमदाबाद में मैंने स्वयं देखा है कि मकान मालिक किरायेदारों के रसोईघर पर अचानक छापा मारते हैं ताकि वे यह सुनिश्चित कर सकें कि वहां मांसाहारी भोजन नहीं पकाया जा रहा। अब इन मुद्दों को मुसलमानों के दानवीकरण का उपकरण बना लिया गया है। गुजरात के कुछ हिस्सों में जिस आक्रामकता से शाकाहार का प्रचार किया जा रहा है वह सचमुच अजीब और डरावना है। हम निश्चित तौर पर यह कह सकते हैं कि इस तरह से शाकाहार का प्रचार करने वाले असहिष्णु हैं।
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया, लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)