श्याम सिंह
रघुवंश बाबू नहीं रहे…वैशाली बिहार से सांसद रहे रघु बाबू, लालू जी के खासम खास दोस्त थे। साल 2014 का चुनाव था, रघु बाबू के सामने थे रामा सिंह। रामा सिंह अपने समय में बिहार के सबसे बड़े बाहुबलियों में से एक रहे हैं। इनकी राजनीति रामविलास पासवान की छत्रछाया में गुजरी है। जबसे रामविलास पासवान दिल्ली पहुंचे हैं तबसे उनकी तूती दोबारा से बोलने लगी। रामासिंह पर छत्तीसगढ़ के एक व्यापारी के अपहरण का आरोप भी रहा है। दूसरी तरफ थे रघुवंश बाबू। रघुवंश बाबू गणित के प्रोफेसर रहे हैं, इमरजेंसी में इंदिरा के अलोकतांत्रिक निर्णय के खिलाफ लड़े, छात्रों का नेतृत्व किया।
लेकिन समय चक्र ऐसा था कि मोदी लहर में बाहुबली रामासिंह की विजयी हुए, लेकिन हार रघु बाबू की नहीं बल्कि वैशाली की जनता की हुई, जिसने गणित के प्रोफेसर को हराकर एक बाहुबली को चुना। रघु बाबू ने जीवन भर समाजवादी विचारधारा के साथ कभी समझौता नहीं किया। मनरेगा का क्रेडिट भी इन्हीं को जाता है। जिस वक्त मनरेगा लागू किया गया, इन्हीं के ग्रामीण विकास मंत्रालय ने पूरा प्रोपोजल बनाया था, रघु बाबू की मेहनत इस कानून को बनवाने में सबसे प्रमुख थी। मनरेगा इस देश के गरीबों के लिए क्या मायने रखती है वोट देते समय शायद ही ये देश कभी याद रखेगा।
2009 लोकसभा चुनावों में राजद पार्टी को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा। रघु बाबू की अहमियत को देखते हुए उन्हें कांग्रेस जॉइन करने का ऑफर मिला। कांग्रेस उस वक्त सरकार में थी, लेकिन आज के नेताओं की तरह रघु बाबू ने अपने नेता लालू जी का साथ नहीं छोड़ा। राजद के निर्माण से लेकर मरते दम तक लालू जी को ही अपना नेता माना।
मृत्यु के बाद नेताओं को गालियां पड़ती हैं या उनके लिए सिर्फ अच्छे शब्द कहे जाते हैं लेकिन रघु बाबू के में ऐब निकालने में मेरी आलोचनात्मक क्षमता बोनी पड़ जा रही है। मुझे बस इतना पता है वैशाली क्षेत्र की अगली पीढियां अपने पिताओं से इस प्रश्न को जरूर पूछेंगी कि विचारधाराओं का ऐसा कौन सा पर्दा आप के मस्तिष्क पर पड़ गया था जो एक बाहुबली और एक गणित के प्रोफेसर के बीच में आपको कोई अंतर न पता चल सका। समाजवादी विचारधारा और भारतीय जनता ने एक महामारी में अपना महान नेता खो दिया है, लेकिन वैशाली की जनता ने रघु बाबू की वैचारिक ईमानदारी की हत्या साल 2014 में ही कर दी थी।