साहिर लुधियानवी: कल कौन आएगा दुनिया में, तुमसे बेहतर कहने वाला?

प्रियदर्शन

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साहिर लुधियानवी की शायरी में जो चीज़ मुझे सबसे ज़्यादा खींचती है, वह उनका यथार्थ बोध है। अपने सारे रोमान के बावजूद यह शायर जैसे हक़ीक़त से आंख मूंदने को तैयार नहीं होता। वह सारे परदे हटा देता है और अपने पाठक या श्रोता को मजबूर करता है कि वे सच को बिल्कुल सच की तरह देखें। जहां इक़बाल लिखते हैं, ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’, वहीं साहिर पूछते हैं, ‘जिन्हें नाज़ है हिंद पर वे कहां हैं?’

यह तल्खी जैसे साहिर के मिज़ाज का हिस्सा है। सिर्फ़ इत्तिफ़ाक़ नहीं है कि उनके एक संग्रह का नाम भी ‘तल्ख़ियां’ है। हिंदी-उर्दू में खोज लीजिए, शायद ही कोई शायर मिलेगा जो इतने तल्ख़ लहजे में सच्ची बात कहता हो और फिर भी शायरी के पैमानों से सूत भर भी हिलता न हो। 1958 में आई फिल्म ‘फिर सुबह होगी’ में साहिर की यह तल्ख़ी व्यंग्य की ऐसी चुभन के साथ आती है जो किसी को तार-तार कर सकती है। उन जैसा गीतकार ही लिख सकता है-

चीनो अरब हमारा
हिंदोस्तां हमारा।
रहने को घर नहीं है
सारा जहां हमारा।
खोली भी छिन गई है
बेंचें भी छिन गई हैं
सड़कों पे घूमता है
अब कारवां हमारा
जेबें हैं अपनी ख़ाली
क्यों देता वरना गाली
वो संतरी हमारा
वो पासबां हमारा।

चाहें तो आप इसे फिर इक़बाल की मशहूर नज़्म की पैरोडी की तरह पढ़ सकते हैं। लेकिन यह पैरोडी भी ऐसी ग़ज़ब है कि इसके आगे मूल नज़्म फीकी जान पड़ती है।
कहा जा सकता है कि ये फ़िल्मी गीत हैं जिन्हें साहिर ने ‘सिचुएशन’ के हिसाब से लिखा है। आख़िर ठीक इस फिल्म से एक साल पहले आई ‘नया दौर’ में साहिर ही लिख रहे थे-

साथी हाथ बढ़ाना
एक अकेला थक जाएगा
मिल कर बोझ उठाना।

इस फिल्म में साहिर के गीतों का जो आशावाद है, वह ‘फिर सुबह आएगी’ के गीत से कतई अलग है। लेकिन यहां दो बातें हैं। एक तो यह कि यही ‘सिचुएशन’ किसी दूसरे गीतकार को दी गई होती तो क्या वह साहिर जैसे पंक्तियां लिख पाता? फिल्मी दुनिया में एक से एक शायरों और गीतकारों के होते हुए भी इस बात में बहुत संदेह है। इसलिए नहीं कि उनमें साहिर की तरह लिखने का हुनर नहीं है, बल्कि इसलिए कि उनमें साहिर की तरह देखने का हुनर नहीं है। बेशक, साहिर के अलावा शैलेंद्र ऐसे दूसरे गीतकार हैं जिनके यहां बहुत सहज-सरल भाषा में मामूली लोगों की गरिमा के, उनकी फक्कड़ता के, उनकी मासूमियत के गीत मिलते हैं। लेकिन शैलेंद्र भी समाजवादी की रोमानियत से लैस शायर हैं- बेशक, हक़ीक़त से बेख़बर नहीं- मगर साहिर वाली तीखी और गहरी नज़र उनमें भी नहीं दिखती।

दूसरी बात यह कि हम सब जानते हैं कि साहिर हमेशा ‘सिचुएशन’ पर नहीं लिखा करते थे। वे अपने लिखे हुए गीतों को ही कई बार फ़िल्मों में डाल देते थे। वे संगीत की धुन पर लिखने वाले गीतकार भी नहीं थे। शायद वह फिल्मी दुनिया के उन चुनिंदा गीतकारों में थे जो धुन से पहले गीत लिखा करते थे और फिर उस गीत को संगीतबद्ध किया जाता था। क्योंकि शायद अपनी सारी कारोबारी प्राथमिकताओं के बावजूद फिल्मी दुनिया भी साहिर की शायरी का मोल समझती थी। वैसे ऊपर के उदाहरण में एक तीसरी बात भी है। साहिर की तल्ख़ी और उनका आशावाद क्या एक-दूसरे के विरोधी हैं? साहिर अगर सिर्फ़ तल्ख़ होते, अगर वे जीवन और दुनिया की विडंबनाओं में छुपी हुई या संभव की जा सकने वाली रोशनियों को नहीं पहचान पाते तो शायद वे बस एक तरह की काफ़्काई हताशा से भरे एक गुस्सैल शायर होते- बेशक, तब भी महत्वपूर्ण होते- लेकिन उनमें वह बहुआयामिता नहीं होती जो उन्हें एक अपनी तरह का विलक्षण कवि बनाती है। लेकिन फिर पूछने की तबीयत होती है- यह बहुआयामिता उनमें कहां से आती है? जाहिर है, यथार्थ की बहुत सारी तहों को देख सकने की क़ाबिलियत से। उन्हें ख़्वाब पसंद हैं, ख़्वाब की ज़रूरत भी मालूम है, लेकिन इस ख़्वाब की ख़ातिर वे हक़ीक़त को दांव पर नहीं लगा सकते। इसी तरह जिस हक़ीक़त को वे बहुत साफ़ पहचानते हैं, उसी में उसके पार जाने की संभावना भी देख लेते हैं। यही वजह है कि वे एक साथ बहुत गहरी रूमानियत से भी लैस मिलते हैं और बहुत तीखी हक़ीक़त से भी रूबरू।

साहिर की पूरी शायरी दरअसल रूमानियत और हक़ीक़त को एक साथ साधने के नायाब कमाल से बनी है। आशिकों की दुनिया में वे ऐसे आशिक हैं जिन्हें मालूम है कि उनकी माशूका से ज़्यादा हसीन और ख़ूबसूरत माशूकाएं दुनिया में आती-जाती रही हैं। शायरों की दुनिया में वे ऐसे शायर हैं जिन्हें पता है कि उनका कलाम आख़िरी कलाम नहीं है। उनसे बेहतर लिखने वाले पहले भी हुए और आने वाले ज़मानों में भी होंगे-

कल और आएंगे, नग़मों की खिलती कलियां चुनने वाले
मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले।

लेकिन फिर दुहराना होगा- साहिर का यक़ीन पुराने सारे दिए हुए आईनों को तोड़कर नए सिरे से दुनिया को देखने में है। इस लिहाज से उनकी नज़्म ‘ताजमहल’ मील का नहीं, प्रकाश वर्ष का पत्थर है। जिसे दुनिया ने आठवां अजूबा कहा, जिसे मोहब्बत की बेमिसाल निशानी माना, जिस पर दुनिया भर के कवि और शासक रीझते रहे, उसे साहिर ने एक शहंशाह की दौलत का कमाल कहा जिसके सहारे उसने ग़रीबों की मोहब्बत का मज़ाक उड़ाया है। ऐसा नहीं कि साहिर सच की तलाश में कोई सनसनीखेज़ बात कहने के हामी थे। वे विस्तार से बताते हैं कि उन्हें ये ताजमहल क्यों मंज़ूर नहीं है। फिर ताजमहल ही नहीं, उनकी निगाह में नूरजहां और जहांगीर का इश्क भी आता है जिसे फिर वे एक बादशाह और एक मजबूर के गैरबराबरी भरे रिश्ते की तरह देखते हैं और अपनी माशूका से कहते हैं कि-

तू मेरी जान! मुझे हैरतो-हसरत से न देख
हममें से कोई भी जहांनुरो जहांगीर नहीं
तू मुझे छोड़ के ठुकरा के भी जा सकती है
तेरे हाथों में मेरे हाथ हैं ज़ंजीर नहीं।

यह सब पढ़ते, साझा करते हुए लगता है कि साहिर जैसे कोई बुतशिकन- मूर्तिभंजक- हों। वे ताजमहल को ढहा देना चाहते हों, हुस्न की मीनारों को गिरा देना चाहते हों। मगर सच्चाई इसके ठीक ख़िलाफ़ है। साहिर के भीतर रचना को लेकर बहुत गहरा सम्मान है। वे किसी भी विध्वंस का विरोध करते हैं। वे ताजमहल के ख़िलाफ़ लिखकर भी ये सुझाव नहीं देते कि इसे गिरा दिया जाए। वे अल्लामा इक़बाल के मशहूर शेर-

जिस खेत से दहकां को मयस्सर न हो रोजी
उस खेत के हर खोशा ए गंदुम को जला दो

को इसी आधार पर ख़ारिज करते हैं और अपनी नज़्म में कहते हैं कि वे इसे जलाने नहीं देंगे। उनका कहना है, फ़सल बची रहेगी तो उम्मीद बची रहेगी।

इस मोड़ पर अचानक हम पाते हैं कि साहिर में दरअसल जितनी तल्खियां हैं, उतनी ही उम्मीदें भी हैं। वे दुनिया में बदलाव की हवाओं का इस्तकबाल करते हैं। वे रूसी क्रांति के हक़ में लिखते हैं, नेहरू और गांधी की तारीफ़ में लिखते हें, गांधी के नाम पर हो रहे पाखंड पर भी कलम चलाते हैं। वे अंततः ग़रीबों, कमज़ोरों और सताए गए लोगों के शायर ठहरते हैं। स्त्रियों पर जितनी मार्मिक नज़्में उन्होंने तब लिखीं, वैसी अब भी नहीं दिखतीं। औरत की बराबरी उनके लिए एक बड़ा मूल्य थी जिसे उनकी शायरी में बार-बार पहचाना जा सकता है।

दरअसल साहिर से काफ़ी-कुछ सीखा जा सकता है- या कम से कम दुनिया को देखने और उसे शायरी में उतारने को सलीका तो सीखा ही जा सकती है। यह अलग बात है कि यह काम भी आसान नहीं। वे तरक़्कीपसंदगी की मीनार हैं। आने वाले वक़्तों में जिन बातों पर बहस चली या जिन पर अब भी बहस जारी है, उन्हें साहिर की शायरी में उस दौर में देखा-पहचाना जा सकता है, जब इन बहसों का वजूद नहीं था। ग़ालिब के अलावा साहिर दूसरे शायर हैं जिनके भीतर विडंबना की- आपस में टकराते यथार्थ की- ज़िंदगी की बहुत सारी तहों की- बहुत गहरी समझ है। यही चीज़ उन्हें अपने ज़माने का भी बनाती है और सारे ज़मानों का भी- समकालीन भी और सार्वकालिक भी। यह अनायास नहीं कि साहिर की रोशनी भारतीय अदब की दुनिया को अब भी अपने ढंग से रास्ता दिखा रही है।

साहिर ने भले ही लिखा हो कि कल को उनसे बेहतर लिखने वाले आएंगे- और बेशक वे आएंगे- लेकिन इसमें भी शक नहीं कि वे जब भी आएंगे, साहिर की कलम और साहिर के कलाम भी उन्हें रास्ता दिखाने वाली रोशनी का हिस्सा होंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, और एनडीटीवी में कार्यरत हैं, यह लेख उनके फेसबुक वाॅल से लिया गया है)