नवेद शिकोह
बिहार में पांच सीटें जीतने के बाद एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी की छवि में बड़ा बदलाव हो सकता है। अब वो सिर्फ वोट कटवा, भाजपा की बी टीम या कट्टर मुस्लिम राजनीतिज्ञ की पहचान से बाहर आकर भारतीय राजनीति का बड़ा फैक्टर बन सकते हैं। अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले वक्त मे ओवैसी या तो भाजपा के बड़े मददगार साबित होंगे या फिर भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बन जायेंगे।
मददगार कैसे होंगे!
यदि राज्यों का मुस्लिम समाज कांग्रेस और सपा- बसपा जैसे धर्मनिरपेक्ष छवि वाले क्षेत्रीय दलों के बजाय एआईएमआईएम का ही वोट बैंक बन गया तो ध्रुवीकरण को गति मिल जायेगी। ऐसे में दो धर्मों का समाज दो सियासी दलों में बंट सकता है। ऐसे हुआ तो भाजपा को बेहद लाभ होगा और जातियों के बिखराव का डर कम हो जायेगा।
अब जानिए ओवैसी भाजपा के लिए बड़ी चुनौती कैसे बनेंगे !
यदि एआईएमआईएम का गठबंधन बसपा जैसे संगठन से हो जाता है और मुस्लिम-दलित समाज को जोड़ने की सियासत सफल हो जाये तो ये भाजपा के लिए बड़ा खतरा हो सकता है। भारतीय सियासत का ये बड़ा प्रयोग एआईएमआईएम और बसपा जैसे दलों को राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी सफलता दिलवा सकता है। कुछ ऐसे ही छोटे प्रयोग में ओवैसी किसी हद तक बिहार में सफल हुए हैं। और एआईएमआईएम चीफ ने आगे इसी तरह पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने की बात कही है। ऐसे बयान के बाद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बेनर्जी और कांग्रेस व सपा के माथे पर चिंता की लकीरें स्वाभाविक हैं।
बिहार चुनाव में भले ही एनडीए जीता हो पर एआईएमआईएम अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी की राजनीति पर गंभीर चर्चा शुरू हो गई है। महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव लड़कर कुछ सफलता हासिल कर चुके ओवैसी ने बिहार में पांच सीटें जीत कर एआईएमआईएम के विस्तार को गति दे दी है। इसके बाद तमाम चर्चाओं में एक बार फिर दोहरायी जाने लगी है कि कट्टर मुस्लिम छवि वाला ये राजनीतिक दल भाजपा की बी टीम है। ओवैसी बीस सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करके मुस्लिम वोटों को नहीं काटते तो एनडीए बिहार चुनाव मे जीत की कगार तक पंहुचने की सफलता नहीं हासिल करता। कहा जा रहा है कि एआईएमआईएम ने वोट कटवा बनकर बिहार के सीमांचल इलाके की ग्यारह मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर महागठबंधन के जीतते हुए उम्मीदवारों को हरवा दिया। ऐसा नहीं होता तो गठबन्धन की जीत पक्की थी। ओवैसी समर्थक इसके विपरीत राष्ट्रीय जनता दल को दोष देते हुए कह रहे हैं कि एआईएमआईएम को महागठबंधन में शामिल किया होता तो एनडीए नहीं जीत पाता।
ओवैसी के साथ यूपी में दलित-मुस्लिम कार्ड खेल सकती हैं मायावती!
यूपी के आगामी विधानसभा चुनाव में ओवैसी के साथ बसपा का गठबंधन दलित-मुस्लिम कार्ड खेलकर विरोधियों को चुनौती दे सकती हैं। फिलहाल यूपी में भाजपा के साथ मायावती के सॉफ्ट रिश्ते हैं और बिहार में वो ओवैसी के साथ गठबंधन धर्म निभा कर एआईएमआईएम को पांच सीटें दिलवाने में मददगार साबित हुईं हैं। ये तय है कि भाजपा फिलहाल इतनी मोहताज है कि वो बसपा से दोस्ती की मोहताज नहीं। इसलिए बसपा का सियासी रिश्ता भाजपा से नहीं सेट होगा। और ये भी तय है कि बसपा बिना किसी सहारे के आगामी विधानसभा चुनाव में अच्छा परफॉर्म करने की स्थिति मे नहीं है। उच्च उच्च पदस्थ सूत्रों की मानें तो बसपा सुप्रीमों यूपी के आगामी विधानसभा चुनाव में असदुद्दीनओवैसी के एआईएमआईएम के साथ गठबंधन कर सकती हैं। इस तरह दलित-मुस्लिम का मजबूत सियासी कार्ड खेलकर बसपा यूपी में अपने विरोधियों को कड़ी चुनौती देने की रणनीति तैयार कर रही हैं।
फिलहाल इन दिनों बसपा सुप्रीमों मायावती का मौजूदा रुख़ एक ऐसी पहेली बन गया है जिसे बड़े से बड़ा राजनीतिक पंडित भी नहीं बूझ पा रहे हैं, लेकिन दिमाग़ की बत्ती जलाकर देखिए तो दिखेगा कि मायावती के दोनों हाथो में लड्डू हैं। उत्तर प्रदेश में राज्यसभा चुनाव में भाजपा द्वारा बसपा के लिए अप्रत्यक्ष रूप से एक सीट छोड़ने के बाद इन दोनो दलों की नजदीकियों की चर्चाएं तेज हुईं। इस बीच बसपा के विधायक टूट कर सपा के नजदीक आये और सपा-बसपा के बीच टकराव-टू का दौर आरम्भ हुआ। मायावती ने खुल कर कह दिया कि हम सपा को हराने के लिए भाजपा को जिता सकते हैं। इसके बाद फिर वो पलटीं और बयान दिया कि मरते दम तक भाजपा के साथ समझौता नहीं करुंगी।
भाजपा में बसपा की दाल गलना मुश्किल
एक दूसरे के विरोधाभास मायावती के बयानों के बाद भी इस बात से नहीं नकारी जा सकता कि यूपी में बसपा के साथ फिलहाल भाजपा का सॉफ्ट रिश्ता है। और बिहार में भाजपा के धुर विरोधी असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के गठबंधन संग बसपा ने चुनाव लड़ा। भाजपा में बसपा की दाल गलना मुश्किल है। बसपा के पास दूसरा मजबूत विकल्प है। जो यूपी में त्रिकोणीय मुकाबले की सूरत पैदा करेगा- एक तरफ बीजेपी। दूसरी तरफ सपा-कांग्रेस, रालोद का संभावित गठबंधन,और तीसरी तरफ बसपा और एआईएमआईएम का मजबूत गठबंधन। जिसमें दलित-मुस्लिम का ये गठजोड़ भाजपा और सपा-कांग्रेस गठबंधन को कड़ा मुकाबला दे सकता है।
बसपा का आधार दलित और मुस्लिम वोट है। लोग कह रहे हैं कि मौजूदा समय में भाजपा से मधुर रिश्तों के बाद बसपा के दामन से पूरी तरह से छिटक कर मुस्लिम वोट एक झटके में सपा-कांग्रेस के संभावित गठबंधन में चला जायेगा। और पूरे का पूरा यूपी का ये बीस फीसद मुस्लिम वोट सपा-कांग्रेस की झोली मेआ जायेगा। लेकिन मायावती जैसी परिपक्व नेत्री ऐसा नहींं होने देंगी। वो ओवैसी की एआईएमआईएम को कुछ सीटें देकर यूपी में दलित-मुस्लिम समीकरण का कार्ड खेल सकती है।
मौजूदा समय में भाजपा से सकारात्मक रिश्तों के संकेत देखकर कोई बसपा सुप्रीमों मायावती को कंफ्यूज कह रहा है, तो कोई कह रहा है कि वो भाजपा के गठबंधन का हिस्सा बनने जा रही हैं। व्यंग्यात्मक लहजे में ये भी कहा जा रहा है कि पहले मजबूरी का नाम महत्मा गांधी था पर अब मजबूरी का नाम मोदी-योगी है। पिछले आठ-नौ वर्षों में बसपा का जनाधार लगातार कम होता जा रहा है। सत्ता में वापसी के लिए वो अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंदी और धुर विरोधी सपा तक के साथ समझौता करने के बाद भी सफल नहीं हुईं। केंद्र और यूपी में भाजपा की सरकारे हैं। अपने आधार उत्तर प्रदेश में आक्रामक विपक्षी की भूमिका मे ना आने के पीछे तमाम मजबूरियां हैं। सीबीआई और ईडी जैसी एजेंसियों की तलवार कभी भी लटक सकती है।
इन तमाम दुश्वारियों में भी बसपा सुप्रीमों एक परिपक्व राजनीतिज्ञ की तरह मोहरें बिछा रही हैं। उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में बसपा अकेले लड़ेगी, भाजपा के गठबंधन का हिस्सा बनेगी या बसपा का किसी और दल के साथ गठबंधन होगा! ये तमाम प्रश्न यश्र प्रश्न बन गया। लेकिन बिहार में मुस्लिम, दलित और पिछड़ों के बेहद छोटे से गठबंधन में एआईएमआईएम की पांच सीटों की जीत की सफलता के बाद मायावती और ओवैसी मिलकर यूपी में कोई सियासी खिचड़ी बना सकती हैं। उत्तर प्रदेश में बीस फीसद मुस्लिम आबादी है। यहां बसपा ने एआईएमआईएम को मुस्लिम बाहुल्य बीस सीटें भी दे दें तो पूरे प्रदेश में घूम-घूम कर मायावती के पक्ष में एकतरफा मुस्लिम वोट बैंक समेटने की कोशिश कर सकते हैं। और इस तरह यूपी के इस प्रयोग के साथ देश में दलित-मुस्लिम एकजुटता की राजनीति को एक नई दिशा मिल सकती है।