आज मुसलमानों का सबसे बड़ा मुद्दा क्या है? वही जो सत्तर – पचहत्तर साल पहले था। तालीम, शिक्षा, एजुकेशन। बिना इसके मुसलमानों का कुछ भी भला होने वाला नहीं है। उत्तर प्रदेश में चुनाव हैं। मुसलमानों की तादाद खासी है। करीब बीस प्रतिशत। मगर वे किसी को जिता या हरा नहीं सकते। लेकिन माहौल ऐसा बनाया जा रहा है जैसे इस चुनाव का फैसला मुसलमान ही करने वाले हों। मुसलमानों को इस जाल में नहीं फंसना चाहिए। यह मौका है जब सबसे ज्यादा ध्यान उन पर केन्द्रीत किया जा रहा हो तब वे अपने असली मुद्दे पर सबसे ज्यादा ध्यान दें।
हालांकि यह काम बहुत मुश्किल है। मुसलमानों में सामाजिक संगठन या ऐसा मध्यम वर्ग नहीं है जो उनके वास्तविक मुद्दों पर ध्यान केन्द्रीत करे। और उस दिशा में काम करने का माहौल बनाए। मुसलमानों के धार्मिक नेता बहुत हैं। और पिछले कुछ सालो में वे फिरकों ( गुटों, मतों) में बहुत बुरी तरह बंट गए हैं। इतने ज्यादा कि अब वे इस्लाम की भी कम और आपसी मत मतांतरों की बहस ज्यादा करते हैं। उनसे पहले भी तालीम के क्षेत्र में काम करने की कोई उम्मीद नहीं थी और अब तो कोई सवाल ही नहीं है। उन्होंने मस्जिदें तक अलग कर ली हैं। और शादी ब्याह के रिश्तों में भी फिरकों को देखा जा रहा है। मगर ऐसे में नाउम्मीदी से काम नहीं चलेगा। मुसलमानों को जहां जितनी हो सके एजुकेशन की, मार्डन एजुकेशन की बात करना चाहिए।
यहां याद दिला दें कि भारत के मुसलमानों में शिक्षा की क्रान्ति करने वाले सर सैयद ने भी हमेशा एजुकेशन नहीं, मार्डन एजुकेशन की बात की थी। और जब कोई सोच भी नहीं सकता था तब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बना कर मुसलमानों को आगे बढ़ने का एक जबर्दस्त प्लेटफार्म बनाकर दे दिया था। आज देश में ही नहीं विदेशो में भी जो पढ़े लिखे मुसलमान काम कर रहे हैं, नाम कमा रहे हैं उनमें से ज्यादातर एएमयू से निकले हैं। मगर अफसोस कि उन्होंने वहां से पढ़ने के बाद तालीम की उस मशाल को आगे नहीं बढ़ाया। शिक्षा क्यों जरूरी है इस माहौल को नहीं बनाया।
इसी तरह मुसलमानों के राजनीतिक नेताओं का हाल है। अभी कांग्रेस के तीन नेता भाजपा के पंसदीदा मुद्दे हिन्दु मुसलमान में उलझे हुए हैं। सलमान खुर्शीद ने अपनी किताब में संघ और हिन्दुत्व की तुलना आईएसआईएस और बोको हरम जैसे संगठनों से कर दी। गुलाम नबी आजाद ने तत्काल ट्वीट करके आग में और घी डाल दिया। और तीसरे नेता राशीद अलवी उत्तर प्रदेश में ही एक धार्मिक कार्यक्रम में रामायण की व्याख्या करने बैठ गए। तीनों ने आ बैल मोए मार की कहावत चरितार्थ की है। इस समय हिन्दु मुसलमान मुद्दा उठाने की क्या जरूरत थी? जब आपकी प्रतिद्वंद्वी पार्टी चाहती है कि इस विषय पर बात हो तो आपको तो इससे कोसों दूर रहना चाहिए। जैसे इस समय विपक्षी दल चाहते हैं कि किसान पर बात हो तो क्या भाजपा इस बहस में आती है? आप जब किसान की बात करते हो तो वह मुसलमान की बात करने लगती है। और फिर आप भी किसान, महंगाई, बेरोजगारी, कोरोना में हुई मौतें भूलकर मुसलमान की बहस में उलझ जाते हैं। और भाजपा का काम हो जाता है।
विपक्षी दलों के समझ में पता नहीं यह क्यों नहीं आता कि जो पिच उनकी नहीं है उस पर खेलने को वे क्यों भागने लगते हैं। अर्जुन को कोई गदा युद्ध में खींच सकता था? लाख कोई चैलेंज देता रहे मगर क्या अर्जुन गदा युद्दा की बात सुनेगा भी! वह धनुर्धारी है उसे गदा से क्या मतलब? कांग्रेस की राजनीति धर्म और जाति की नहीं है। उसके नेताओ को इसमें पड़ना ही नहीं चाहिए। लोग कह रहे हैं कि सलमान ने तो किताब लिखी। क्या नेहरु से बड़े लेखक हो गए वह। नेहरू ने इतनी किताबें लिखीं। मगर क्या अपने लिखे को लेकर वे कभी विवाद में फंसे? पिछले सौ साल में राजनीति में काम करने वाले किसी भी पार्टी का कोई नेता क्या नेहरू से बड़ा लेखक था।
मशहूर लेखिका पर्ल एस बक ने कहा था कि नेहरू का राजनीतिज्ञ होना विश्व के लिए वरदान हैं मगर किताबों की दुनिया के लिए बड़ा नुकसान। अगर नेहरू राजनीति में नहीं जाते लेखन जगत और समृद्ध होता। नेहरू की ऐसी बहुत प्रशंसाएं हुई हैं। मगर उन्हें मालूम था कि उनका मुख्य काम क्या है। आजादी के पहले देश को आजादी दिलाना और उसके बाद भारत को आधुनिक राष्ट्र बनाना। लेखन उसमें सहयोगी की भूमिका निभाता था। उसके मार्ग में बाधा नहीं बनता था। एक लेखक स्वतंत्र है अपने विचारों के लिए। उसकी प्रतिबद्धता ही विचार और उसकी अभिव्यक्ति के प्रति होती है। वह किसी विवाद की परवाह नहीं करता। मगर राजनेता ऐसा नहीं कर सकता। नेता के लिए लेखन अपनी पार्टी के लिए होता है। अगर उसे उस दायरे से बाहर जाकर लिखना है तो पार्टी से बाहर जाना होगा। जैसे खिलाड़ी जब तक खेलता है उसका मूल काम खेलना ही होता है वैसे ही नेता जब तक राजनीति में है तब तक उसका मूल काम राजनीति ही होगा।
लेकिन कांग्रेस के ये मुसलमान नेता उन सब विषयों पर तो बोलते हैं जिनसे उनकी पार्टी और समुदाय को नुकसान होता है मगर उस विषय पर नहीं बोलते जिसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। मुसलमानों की शिक्षा पर इनकी कोई आवाज कभी सुनाई नहीं देती। चाहे सलमान खुर्शीद हों या उनसे बहुत सीनियर गुलाम नबी आजाद जो हमेशा मंत्री, मुख्यमंत्री, पार्टी के पदाधिकारी रहे। इन लोगों से पूछा जाना चाहिए कि इन्होंने मुसलमानों की शिक्षा के लिए क्या किया?
अभी मुसलमान स्टूडेंटों के एक संगठन ने कहा कि अजमेर की दरगाह शरीफ के व्यवस्थापकों को गरीब नवाज के नाम से एक यूनिवर्सिटी खोलना चाहिए। बहुत अच्छी बात है। अभी तक खुल जाना चाहिए थी। वहां पैसों की क्या कमी। वैष्णों देवी को शराइन बोर्ड बने तो अभी कुछ ही साल हुए हैं। मगर उसने एक यूनिवर्सिटी खोल दी। लेकिन यहां किसी की प्राथमिकता में यह चीज नहीं है। यूनिवर्सिटी तो बड़ी चीज है। यहां देश की राजधानी दिल्ली में माइनरटी कालेजों में मुसलमान स्टूडेंटों के लिए कोई कालेज नहीं है। दिल्ली विश्वविद्यालय में 6 माइनरटी कालेज हैं। मगर मुसलमानों का एक भी नहीं। चार सिख माइनरटी कालेज गुरु तेगबहादुर खालासा कालेज, गुरु नानकदेव खालसा कालेज, गुरु गोविन्द सिंह कालेज और माता सुंदरी कालेज फार विमन हैं, दो क्रिश्चियन माइनरटी कालेज सेंट स्टीफन और जीसस मेरी हैं। इनमें इन समुदायों के लिए 50 प्रतिशत सीटें रिजर्व होती हैं। जहां कम प्रतिशत पर भी इनके बच्चों को एडमिशन मिल जाता है। लेकिन किसी मुसलमान नेता ने इस मामले में पहल नहीं की। इस बार डीयू में सौ प्रतिशत पर एडमिशन मिल रहे थे। दलित, ओबीसी के लिए छूट थी। सिख और ईसाइयों के अपने कालेज थे। मगर मुसलमान लड़के और लड़कियां कहां जाएं इस पर आपने किसी मुसलमान नेता की चिंता सुनी?
ऐसा ही हाल स्कूलों का है। सिख, ईसाई माइनरटी के दिल्ली में कई अच्छे स्कूल हैं। जहां दूसरे समुदाय के लोग भी अपने बच्चों के एडमिशन के लिए लाइन लगाए होते हैं। मगर मुसलमानों का एक भी अच्छा स्कूल नहीं। शिक्षा को केवल सरकार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। इसलिए संविधान में अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों के लिए विशेष व्यवस्था है। सिख, ईसाइयों के साथ जैनों ने इसका पूरा फायदा उठाया। उनके मेडिकल कालेज से लेकर इंजीनियरिंग कालेज तक हैं। मगर मुसलमानों के नेताओं ने इस पर कभी ध्यान नहीं दिया। जाहिर है कि शिक्षा को महत्व न देने का नतीजा साक्षरता में कमी होना है। देश का साक्षरता प्रतिशत जहां 74 है वहां मुसलमानों का 67। और यह ध्यान रखा जाए कि यह साक्षरता का आंकड़ा है शिक्षित होने का नहीं। साक्षरता का मतलब केवल अपना नाम लिखना पढ़ना होता है। शिक्षितों की तादाद कितनी कम है वह इस आंकड़े से मालूम पड़ती है कि नौकरीपेशा लोगों में मुसलमानों की हिस्सेदारी सबसे कम है। केवल 3.3 प्रतिशत मुसलमान नौकरी में हैं। और महिलाएं तो केवल 1.5 प्रतिशत।
शिक्षा प्रगति का आधार है। बिना शिक्षा के कोई समाज तरक्की नहीं कर सकता। डा. आम्बेडकर ने यह कर दिखाया। उनका सबसे ज्यादा जोर शिक्षा पर था। उनका प्रसिद्ध कथन है कि शिक्षा शेरनी का दूध है। जो पिएगा दहाड़ेगा। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में यही कहा गया था कि मुसलमान दलितों से भी पीछे रह गए। मुसलमान नेताओं को बहुत बुरा लगा था। मगर किया उन्होंने कुछ नहीं। आज भी कुछ नहीं कर रहे। मुश्किल है मगर अब अपना अजेंडा मुसलमानों को खुद सेट करना चाहिए। देखना चाहिए कि कौन शिक्षा की आवाज उठाता है और कौन खाली हिन्दु मुसलमान करता है। चुनाव का टाइम है सबका असली इम्तहान हो जाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव राजनीतिक विश्लेषक हैं)