मोहम्मद  ज़ियाउद्दीन उर्फ नेताजी सुभाष – गोमो से काबुल

नेताजी सुभाष, ने देश से स्वतः निर्वासित होकर, द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, आज़ाद हिंद फौज की कमान संभाली थी और अपनी तरह के एक अनोखे स्वाधीनता संग्राम का युद्ध छेड़ा था। यह सीरीज, नेताजी के कलकत्ता से, ब्रिटिश साम्राज्य के सभी सुरक्षा और खुफिया तंत्र को धता बताते हुए  निकल जाने की कहानी है जो उनकी जीवनी पर लिखी गयी कुछ किताबों में दिए गये तथ्यों पर आधारित है। पलायन की यह कथा रोचक तो है ही साथ ही नेताजी के दुर्दम्य व्यक्तित्व से भी परिचय कराती है। यह लेख इस सीरीज का दूसरा लेख है।

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18/19 की रात सुभाष बाबू, मोहम्मद  ज़ियाउद्दीन के वेश में गोमो से कालका मेल से प्रस्थान कर चुके थे। ट्रेन में उनका समय कैसे बीता, इसका विवरण नहीं मिलता है। उनकी मंज़िल पेशावर थी, और कालका मेल, पेशावर नहीं जाती थी। वह दिल्ली, अम्बाला पार करते हुए कालका चली जाती थीं। कालका, शिमला के लिए रेल का आखिरी स्टेशन  है। शिमला, ब्रिटिश भारत की ग्रीष्म राजधानी थी। वायसराय गर्मियां वहीं बिताते थे। जब दिल्ली वायसरॉय नहीं बैठा करते थे, तो कलकत्ता से शिमला वाया दिल्ली कालका वे और उनका पूरा लवाजमा हावड़ा से इसी ट्रेन से शिमला जाता था। कालका लंबे समय तक रेलवे बोर्ड की सबसे महत्वपूर्ण ट्रेन रही है। वन अप और टू डाउन इसका नम्बर हुआ करता था। सुभाष उर्फ ज़ियाउद्दीन को, कालका मेल से दिल्ली पहुंच कर ट्रेन बदलनी थी। वहां से उन्हें फ्रंटियर मेल मिलती जो उन्हें पेशावर तक ले जाती। जब तक वे दिल्ली स्टेशन पर, फ्रंटियर मेल में सवार नहीं हो जाते, तब तक, उन्हें दिल्ली स्टेशन पर अतिरिक्त सावधानी बरतनी थी। द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था। दिल्ली राजधानी होने के कारण ख़ुफ़िया जासूसों से पटा पड़ा था। ज़ियाउद्दीन साहब को इन्ही सब समस्याओं से खुद को बचाते हुए, दिल्ली से पेशावर की यात्रा करनी थी। दिल्ली में उन्होंने ट्रेन बदली और सुरक्षित रूप से पेशावर के लिए निकल गए। कोई समस्या नहीं हुयी।

19 जनवरी 1941 की देर शाम दिल्ली से आने वाली फ्रंटियर मेल पेशावर छावनी स्टेशन पर पहुंची। एक धर्मपरायण मुस्लिम और पठानी वेशभूषा में, मोहम्मद  ज़ियाउद्दीन स्टेशन पर उतरे। पेशावर छावनी रेलवे स्टेशन पर, सुभाष बाबू के राजनीतिक दल, फॉरवर्ड ब्लॉक के फ्रंटियर के नेता अकबर शाह, उनकी आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे थे। मियां अकबर शाह ने स्टेशन के निकास द्वार के पास से, सधे और आत्मविश्वास भरे कदमो से मँडराते हुए एक विशिष्ट दिखने वाले मुस्लिम सज्जन को स्टेशन से बाहर आते देखा। वे समझ गए कि, यह सुभाष बाबू ही हैं, क्योंकि, अकबर शाह ने सुभाष के लिये जो पठानी शलवार  कलकत्ता से खरीदा था, सुभाष उर्फ ज़ियाउद्दीन ने वही धारण किया था। अकबर शाह, ज़ियाउद्दीन के पास आये, दोनों ने एक दूसरे को पहचाना और अकबर शाह, सुभाष के हाथ से उनकी अटैची लेकर, पास ही खड़े एक ताँगे की ओर इशारा किया जो अकबर ने पहले से ही स्टेशन पर खड़ा करवा लिया था। अकबर शाह ने दो तांगों की व्यवस्था कर रखी थी। एक सुभाष बाबू के लिए और दूसरे अपने लिए। सुभाष, अपने तांगे पर बैठे, और अकबर ने तांगेवाले से कहा कि, वह खान साहब को लेकर होटल दीन की ओर चले। अकबर शाह, सुभाष के पीछे पीछे दूसरे तांगे से चले।

जब दीन होटल चलने की बात अकबर शाह के तांगे वाले ने सुनी तो उसने कहा कि, आप कहां, एक मुस्लिम आलिम मौलाना को दीन जैसे होटल में ले जा रहे हैं। वहां भीड़ भी बहुत रहती है, और इन्हें इबादत करने में दिक्कत भी आएगी। उसमे तो गैर मुस्लिम भी बहुत रुकते हैं। तांगे वाले ने सुझाव दिया कि, ‘आप इन्हें ताजमहल होटल में रुकवायें। वहां इबादत के लिए जा नमाज़, और उपयुक्त जगह भी मिल जाती है। अधिकतर मुस्लिम धार्मिक व्यक्ति वहीं रुकते हैं।’ अकबर दीन होटल इसलिए ले जाना चाहते थे कि, वह होटल पाश्चात्य सुखसुविधा वाला था, जबकि ताजमहल एक प्रकार से धार्मिक परिवेश और इस्लामी रहनसहन वाला होटल था। सुभाष को ताजमहल में दिक्कत आती। पर अकबर ने यह सोचा कि भीड़भाड़ कम होने से ताजमहल होटल में, सुभाष पर, किसी का शक भी नहीं होगा और वे वहां पर एकांत इबादत के बहाने आसानी से कुछ दिन छिपे रह सकेंगे। दीन होटल में पुलिस एजेंटों के आने का भी खतरा था, जबकि ताजमहल की शोहरत एक धार्मिक होटल की थी। इसके बाद, दोनों तांगों ने रास्ता बदल दिया।

सुभाष, होटल ताजमहल पहुंचे। होटल ताजमहल का प्रबंधक,  मोहम्मद  ज़ियाउद्दीन से मिल कर प्रभावित हुआ। उसने एक अच्छा सुसज्जित कमरा इस विशिष्ट मेहमान के लिये खुलवा दिया। सुभाष उस कमरे में बस एक दिन और एक रात ही रहे। धार्मिक परिवेश के इस होटल में वे शक शुबहे से बचे तो रह सकते थे, पर सुभाष को इस्लामी इबादत के तौर तरीके तो आते नहीं थे। इससे एक नया खतरा हो सकता था और वे इस धार्मिक होटल में शक के घेरे में आ सकते थे। अकबर शाह ने यह खतरा भांप दिया और अगली सुबह ही सुभाष बाबू को उन्होंने, अपने एक विश्वसनीय और अच्छे दोस्त के घर ले जाने का इरादा कर लिया। लेकिन ताजमहल होटल से वापस लौटते समय, रास्ते मे उन्हें उनके पार्टी कार्यकर्ता, आबाद खान मिले जो एक विनम्र और संपन्न पृष्ठभूमि के राजनीतिक व्यक्ति थे। उन्होंने खुद ही, सुभाष चंद्र बोस की मेजबानी करने पर जोर दिया। सुबह सुबह ही, मोहम्मद  ज़ियाउद्दीन को आबाद खान के घर में स्थानांतरित कर दिया गया, जहां अगले कुछ दिनों के लिए, उन्हें, एक उत्तर भारतीय मुस्लिम सज्जन से एक मूक-बधिर पठान के रूप में रहना था। यह परिवर्तन आवश्यक था, क्योंकि सुभाष बाबू, स्थानीय भाषा, पश्तो न बोल पाते थे और न ही समझ पाते थे।

अकबर शाह जब सुभाष बाबू की नज़रबंदी की हालत में, फॉरवर्ड ब्लॉक के एक सम्मेलन के आयोजन के बहाने कलकत्ता गए थे तभी यह योजना बन गयी थी कि, सुभाष किसी भी तरह कलकत्ता से निकल कर पेशावर आ जाएंगे और वही से वे अफ़ग़ानिस्तान की सीमा में निकल कर काबुल चले जायेंगे। सुभाष काबुल में क्या करेंगे यह अकबर शाह को पता नहीं था। उनके जिम्मे यही काम था कि, वे सुभाष को सुरक्षित अफ़ग़ानिस्तान की सीमा में पहुँचा दें। अकबर अपने काम पर लग भी गए थे। सुभाष के आने से पहले, अकबर ने ब्रिटिश भारत की सीमा के पार, सुभाष बाबू की यात्रा के अगले चरण के लिए दो संभावित सहायकों को तय भी कर लिया था, जो अकबर शाह के बेहद विश्वसनीय थे। वे थे, मोहम्मद  शाह और भगतराम तलवार, जो फॉरवर्ड ब्लॉक के  सक्रिय सदस्य थे और नेताजी के प्रति समर्पित भी थे। भगतराम तलवार यह दायित्व निभाने के लिए खुशी खुशी तैयार हो गए। वे भी पठान बन गए और उनका नाम रखा गया, रहमत खान, और यह प्लॉट रचा गया कि, वे अपने गूंगे बहरे रिश्तेदार, मोहम्मद  ज़ियाउद्दीन को उनकी अपंगता को दूर कराने के लिए अफ़ग़ानिस्तान स्थित, दरगाह, अड्डा शरीफ में ले जा रहे हैं। भगतराम तो फ्रंटियर के ही थे, तो वे स्थानीय रीति रिवाज से अच्छी तरह से परिचित थे और पश्तो तो उनकी मातृभाषा ही थी। दूसरे सज्जन, मोहम्मद  शाह, उस दरगाह तक जाने और आगे काबुल तक पहुंचने का रास्ता जानते थे तो उनके जिम्मे रास्ता दिखाने का काम अकबर शाह ने दिया। धन की व्यवस्था, आबाद खान ने की, जिनके घर पर सुभाष बाबू फिलहाल रुके थे। सुभाष, पठान तो बन गए थे, पर, पठानों की तरह खाना पीना, बात व्यवहार भी तो आना चाहिए। यह दो बिल्कुल विपरीत संस्कृतियों का मेल था। सुभाष ठहरे यूरोपीय परिवेश में पढ़े लिखे, बंगाल के भद्रलोक समाज के व्यक्ति और इधर कबीलाई परिवेश। अब आबाद खान ने ज़ियाउद्दीन को कंडोली से पानी पीना सिखाया और  अपने साथी पठानों के साथ एक आम थाली से साथ साथ भोजन कैसे किया जाता है, यह बताया। सुभाष की वेशभूषा, एक कबीलाई पठान जैसी बनायी गयी और टोपी से लेकर अफगानी जूती तक बदले गयी। उन्हें बार बार यह हिदायत दी गयी कि, उन्हें बोलना नहीं है और यही अभिनय करना है कि, वह गूंगे और बहरे हैं।

सुभाष को कलकत्ता छोड़े दस दिन हो गए थे। वे 17 जनवरी की रात, पेशावर आ गए थे और एक रात, होटल ताजमहल में रुकने के बाद 18 जनवरी की सुबह वह आबाद खान के घर आ गए थे और आबाद खान के घर फ्रंटियर की रीति, तहजीब सीखते सीखते और आगे की यात्रा की योजना बनाते हुए, 26 जनवरी आ गयी थी। 26 जनवरी का दिन, पूरे देश में भारत के स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया तब मनाया जाता था। इसी दिन इंडियन नेशनल कांग्रेस ने लाहौर में रावी नदी के किनारे, पूर्ण स्वतंत्रता का संकल्प लिया था। सुभाष उसी संकल्प की पूर्ति के लिये तो अकेले ही एक ऐसी योजना पर निकले थे। सुभाष को याद आया, 31 दिसम्बर 1929 की अर्द्धरात्रि को ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारों के बीच रावी नदी के तट पर भारतीय स्वतंत्रता का प्रतीक तिरंगा झंडा फहराया गया था। इसके बाद 26 जनवरी 1930 को पूरे राष्ट्र में जगह-जगह सभाओं का आयोजन हुआ था, जिनमें सभी लोगों ने सामूहिक रूप से स्वतंत्रता प्राप्त करने की शपथ ली। इस कार्यक्रम को पूरे देश ने अभूतपूर्व उत्साह से मनाया था। शहरों की बात तो छोड़ ही दीजिए, यहां तक कि, गांवों कस्बों में भी सभायें आयोजित की गयीं थीं। स्वतंत्रता की शपथ को स्थानीय भाषा में पढ़ा गया तथा तिरंगा झंडा फहराया गया था। ग्यारह साल बीत चुके थे उस घटना को पर लगा यह तो अभी कल की ही बात है।

26 जनवरी, 1941 की सुबह सुभाष उर्फ मोहम्मद ज़ियाउद्दीन की यात्रा शुरू हुयी। वही उपस्थित फॉरवर्ड ब्लॉक के अकबर शाह, आबाद खान, और भगतराम तलवार ने स्वतंत्रता का संकल्प नेताजी के साथ दुहराया और रहमत खान यानी भगतराम तलवार, पेशावर से मोहम्मद  शाह और एक अफरीदी गाइड के साथ मोहम्मद  ज़ियाउद्दीन के वेश में नेताजी सुभाष, एक कार, जिसकी व्यवस्था, आबाद खान ने की थी, से रवाना हुए। मोहम्मद  शाह, भारत अफगानिस्तान की वास्तविक सीमा से लगभग आधा मील पहले ही भगतराम तलवार, नेताजी सुभाष और लोकल गाइड को छोड़ कर वापस हो लिए। अब अगली यात्रा उन्हें पैदल ही करनी थी। कार आगे नहीं जा सकती थी। 26 जनवरी की दोपहर तक, सुभाष चंद्र बोस ने ब्रिटेन के भारतीय साम्राज्य की क्षेत्रीय सीमाओं को पार कर लिया था और उत्तर-पश्चिम सीमा से परे आदिवासी क्षेत्रों के ऊबड़-खाबड़ इलाकों में अपनी कठिन यात्रा शुरू कर दी। यात्रा भर नेताजी मौन बने रहे। मार्ग कठिन था, तो बातचीत भी कम ही होती थी। थोड़ी बहुत बात, सुभाष की, भगतराम से हो जाती थी, वह भी तब, जब लोकल गाइड कहीं दूर होता था। लोकल गाइड को तो बस यह पता था कि, यह गूंगा बहरा व्यक्ति, अपने दुःख के निवारण के लिये अड्डा शरीफ जा रहा है। उसे भगतराम और सुभाष की बातों मे कोई दिलचस्पी भी नहीं थी।

कठिन चढ़ाई और सीधी उतराई भरे पहाड़ी ठंडे रास्तों को पार करने में तीन दिन लगे। इन ‘तीर्थयात्रियों’ की पहली दो रातें,  रास्ते मे पड़ने वाले आदिवासी गांवों में बीतीं। ठेठ अफगानी खाना पीना और कबीलाई रहन सहन, भगतराम के लिये तो उतना अजूबा नही था, पर सुभाष बाबू के लिये यह सब अजूबा ही था। वे ज्यादातर पैदल यात्रा करते थे और कभी-कभी कोई काफिला रास्ते मे मिल जाता था तो उसके खच्चर पर भी सवार हो जाते थे। 26 जनवरी को पेशावर से सुबह वे घर से निकले थे, दोपहर तक वे अफगानिस्तान की सीमा में दाखिल हो गए थे, फिर कभी पैदल, कभी खच्चर से चलते चलते,  27-28 जनवरी की आधी रात को, वे अफ़ग़ानिस्तान के पहले गाँव में पहुँचे। उसके पहले का जो इलाका था वह आदिवासी कबीलाई इलाका था। इस गांव में पहुंच कर भगतराम ने, उस , आदिवासी गाइड को वापस भेज दिया। गांव के एक स्थानीय सराय में उन्होंने यह रात बिताई और अगली सुबह 28 जनवरी की सुबह, ज़ियाउद्दीन और रहमत खान ने अफगान राजधानी की ओर प्रस्थान किया और अपनी यात्रा जारी रखी।

अब तक वे पेशावर काबुल राजमार्ग से बचते हुए ग्रामीण और पहाड़ी रास्तो से, जिसका उपयोग, लोग पैदल या खच्चर से करते हैं, से आ रहे थे। अब वे ब्रिटिश भारत की सीमा से काफी दूर आ गए थे और अन्ततः वे पेशावर-काबुल राजमार्ग पर पहुँच गए। यह स्थान, अफ़ग़ानिस्तान का एक गांव गढ़ड़ी था। यहां से दोनों यात्री चाय की पेटियों से लदे एक ट्रक पर सवार हो गए और 28 जनवरी की देर रात, अफ़ग़ानिस्तान के एक प्रमुख शहर जलालाबाद पहुंचे। अगले दिन उन्होंने जलालाबाद के पास स्थित अड्डा शरीफ में दरगाह का दर्शन किया और अकबर शाह द्वारा बताए गए एक राजनीतिक सहयोगी हाजी मोहम्मद  अमीन से संपर्क किया। अब वे फिर तीन हो गए, रहमत शाह यानी भगतराम तलवार, मोहम्मद  ज़ियाउद्दीन यानी सुभाष और अब हाजी मोहम्मद  अमीन। तीनों,  30 जनवरी को एक तांगे में जलालाबाद से काबुल की ओर निकले। रास्ते मे एक ट्रक से लिफ्ट ली और अगली सुबह बड खाक नामक एक चौकी पर पहुँचे। वहां से उन्हें ट्रक छोड़ना पड़ा, क्योंकि ट्रक को यहीं तक आना था। अब उन्होंने फिर एक और तांगे की सवारी की तथा 31 जनवरी, 1941 की सुबह देर से वे तीनों काबुल पहुंच गए।

(लेखक पूर्व आईपीएस हैं)