शकील अख्तर
कश्मीर पर राजनीतिक दलों से बात करने की पहल तो प्रधानमंत्री मोदी को बहुत पहले करना चाहिए थी. आखिर वे ही थे जिन्होंने जम्मू कश्मीर में पीडीपी के साथ मिलकर दो बार सरकार बनाने की ऐतिहासिक शुरुआत की थी. उससे पहले वहां भाजपा वैसे ही अलग थलग थी जैसे 1967 से पहले पूरे भारत में. कोई भी दल उसके साथ मिलकर सरकार बनाने को राज़ी नहीं होता था. 1967 में लोहिया उस समय की भाजपा यानि जनसंघ का सामाजिक अलगाव दूर करके उसे मुख्यधारा में लाए थे. भाजपा के साथ मिलकर कई राज्यों में संविद (संयुक्त विधायक दल) सरकारें बनाई थीं.
मोदी ने भी उसी तरह 2014 में मुफ्ती मोहम्मद सईद के साथ भाजपा की सरकार बनवाकर जम्मू कश्मीर में भाजपा को मुख्यधारा की पार्टी बना दिया था. आप चाहें तो कह सकते हैं कि करीब 50 साल बाद इतिहास ने खुद को दोहराया और मोदी कश्मीर में लोहिया की भूमिका निभाते दिखे. लेकिन अपने दल भाजपा को सत्ता में लाने की भूमिका अलग बात है और आज कश्मीर जिस अनिश्चितता और अविश्वास के संकट से घिरा है उसे वहां से निकालने की भूमिका बिल्कुल अलग बात. यहां प्रधानमंत्री मोदी कौन सी भूमिका निभाएंगे? अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों की तरह सबको साथ लेकर चलने वाली या दो साल पहले कश्मीर का विभाजन करते समय निभाई इकतरफा भूमिका? इस बीच कश्मीर में झेलम में बहुत पानी बह गया. इधर देश में गंगा में पानी के साथ लाशें भी बहीं. बंगाल में भी चुनाव हो गए. जहां हारने के बावजूद भाजपा चुप बैठने को तैयार नहीं. ममता सरकार पर रोज हमले पर हमले हो रहे हैं. इसके साथ ही उत्तर प्रदेश में भी चुनाव आ गए. जहां एक बिल्कुल ही नया एंगल सामने आ गया. जो मीडिया कल तक इस तरह की बातों को कालीन के नीचे छुपाता जाता था वह खुलकर योगी बनाम मोदी की बात कर रहा है.
राजनीतिक अनिश्चितताओं की इन परिस्थितियों में प्रधानमंत्री ने कश्मीर पर बैठक बुलाई है. 2019 में जब अचानक संसद में बिल पेश करके कश्मीर का विभाजन कर दिया, राज्य के पूर्ण दर्जे से उसे दो केन्द्र शासित प्रदेशों में बांट दिया गया तब प्रधानमंत्री ने किसी से बात नहीं की. विपक्ष के सांसदों ने जब सवाल उठाया कि फारुक अब्दुल्ला कहां हैं? तो जवाब मिला कि अगर वे लोकसभा में आना नहीं चाहते तो क्या कोई उन्हें जबर्दस्ती ले आएगा? जबकि उस समय फारुक नजरबंद थे. वे और राज्य के बाकी दो और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला एवं महबूबा मुफ्ती लगभग एक साल तक अपने घरों में बंद रखे गए. इनके अलावा और भी बहुत से राजनीतिक नेता नजरबंद रहे. कश्मीर में कर्फ्यू रहा. मोबाइल सेवाएं बंद कर दी गईं. मगर अब प्रधानमंत्री द्वारा 24 जून को बुलाई बैठक का सबने स्वागत किया है.
केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने जिसपर गुपकार गेंग कहकर हमला किया था उसी के नेता बनकर फारुख अब्दुल्ला बैठक में अपनी पार्टी एनसी सहित महबूबा मुफ्ती की पार्टी पीडीपी का प्रतिनिधित्व करने दिल्ली आ रहे हैं. लगता है कि यह चुनाव की तैयारी है. चुनाव में कोई बुराई नहीं है. बिल्कुल होना चाहिए. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसी से सही मैसेज जाता है. नहीं तो कश्मीर के अलगाववादियों और पाकिस्तान को कहने का मौका मिलता है कि कश्मीर में फौज का शासन है. वहां लोकतंत्र नहीं है. ऐसा ही प्रचार पाकिस्तान ने 30 साल पहले किया था. 1989 में जब उसने सीमापार से आतंकवादी गतिविधियां शुरु की तो कश्मीर में राज्यपाल शासन लगाना पड़ा. उस समय इसे राष्ट्रपति शासन नहीं राज्यपाल शासन ही कहा जाता था. तब पाकिस्तान ने प्रचार शुरू किया कि भारत ने कश्मीर पर आयरन कर्टेन ( मोटा पर्दा) डाल दिया है. वहां के लोगों के नागरिक अधिकारों का हनन हो रहा है. तब केन्द्र सरकार ने दो स्तरों पर कश्मीर पर काम करना शुरू किया. एक पाक समर्थित आतंकवाद से सख्ती से निपटना और दूसरा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान के दुष्प्रचार का जवाब देना. विदेशी राजनयिकों और प्रेस को बुलाकर कश्मीर घुमाना और संयुक्त राष्ट्र में विपक्ष के नेता वाजपेयी के नेतृत्व में प्रतिनिधिमंडल भेजकर बताना कि कश्मीर पर भारत में कोई राजनीतिक मतभेद नहीं है. इन दोनों स्तरों पर सफलता मिलने के बाद तीसरी स्टेज थी राजनीतिक प्रक्रिया की. कश्मीर में उत्पन्न पोलिटिकल वैक्यूम (राजनीतिक शून्य) को दूर करना.
कश्मीर में ये सारी कवायदें दलगत राजनीति से उपर उठ कर चलीं. किसी भी दल का कोई भी प्रधानमंत्री हो उसने कश्मीर को राजनीति से उपर माना. नरसिंहा राव ने तो राजनीतिक प्रक्रिया की शुरुआत की ही उनसे पहले कुछ महीने ही रहने वाले चन्द्रशेखर जो की बहुत राजनीतिक मिज़ाज के प्रधानमंत्री थे ने भी कश्मीर के मामले में कभी अनावश्यक दखलंदाजी नहीं की. इसी तरह थोड़े थोड़े समय के लिए आए देवगोड़ा और गुजराल ने भी वहां राष्ट्रीय सहमति से ही काम किया. उनके बाद आए वाजपेयी ने तो वहां 2002 के ऐतिहासिक चुनाव करवाए थे जो 1977 के बाद कश्मीर के सबसे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव माने गए थे.
प्रधानमंत्री मोदी को यह सब बातें न केवल पता है बल्कि वे इसके हिस्सा भी रहे और खुद अपनी आंख से देखा कि कश्मीर में किस तरह राजनीतिक नफा नुकसान की परवाह किए बिना राजनीतिक दलों को काम करने दिया गया. 1992 में श्रीनगर के लालचौक में नरसिंहाराव सरकार ने उन्हें और उस समय के भाजपा अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी को किस तरह वायुसेना के जहाज से पहुंचाया और सेना के घेरे में तिरंगा फहरवाया. उस समय इन पंक्तियों का लेखक वहीं था और हमने लिखा था कि यह भारत की राजनीतिक परिपक्वक्ता का एक बड़ा उदाहरण है. कांग्रेस सरकार ने भाजपा की यात्रा को अहम का सवाल नहीं बनाया और समाधानकारी दृष्टिकोण अपनाते हुए मामले की सुखद परिणीति करवाई. आज मोदी प्रधानमंत्री हैं और जानते हैं कि प्रधानमंत्री और सेना कश्मीर में क्या कर सकती है! उस समय हमने यह भी लिखा था कि अगर भारत का कोई नेता या खुद प्रधानमंत्री जिद पकड़ जाए कि उसे लाहौर में तिरंगा फहराना है तो भारतीय सेना सिर्फ यही पूछेगी की कब?
इन दृष्टातों को बताने का मतलब यही है कि प्रधानमंत्री मोदी आज समझें कि कश्मीर का मतलब क्या है? वहां किस तरह मिलजुलकर काम किया जाता है. कांग्रेस को चाहे जितना कोस लें मगर यह समझें कि 2014 में मनमोहन सिंह ने एक शांति की तरफ बढ़ता हुआ, पाकिस्तान का मुंह बंद करता हुआ कश्मीर उन्हें सौंपा था. मनमोहन सिंह और उनसे पहले भाजपा के ही वाजपेयी और दूसरे सभी प्रधानमंत्रियों ने कश्मीर को कभी राजनीति का मोहरा नहीं बनाया. वहां विधानसभा चुनावों को दलगत रजनीति से उपर रखते हुए हमेशा यही कहा कि किसी पार्टी की हार या जीत महत्व नहीं रखती देश को जीतना चाहिए.
कश्मीर बंगाल नहीं है. वहां की तरह यहां राजनीति को उन्माद में लाने की गलती नहीं करना चाहिए. भाजपा वहां पहली बार अपना मुख्यमंत्री बनाने की योजना पर काम कर रही है. कहा यह भी जा रहा है कि कोरोना की दूसरी लहर से निपटने में हुई गलतियों से देश का ध्यान हटाने के लिए फिर कश्मीर का मुद्दा छेड़ दिया गया. जो भी हो कश्मीर में अब अगली गलती करने की गुंजाइश नहीं है. जरुरत है वहां बिना किसी को विश्वास में लिए राज्य के दो टुकड़े करने और पूर्ण राज्य का दर्जा खत्म करने के फैसले पर पुनर्विचार करने का. कश्मीर सीमावर्ती राज्य है. पाकिस्तान ही नहीं चीन और अमेरिका भी आंख गढ़ाए बैठा है. याद रहे खुद वाजपेयी ने यह कहा था कि कश्मीर में शांति वहां के लोगों की कोशिशों से ही वापस आई है. मोदी अगर उनकी बात भी न सुनें, किसी और प्रधानमंत्री का रास्ता न पकड़ें तो उन्हें खुद अपनी 2014 की वह पहल ही याद करना चाहिए जिसके तहत उन्होंने कश्मीर में समावेशी राजनीति को चुनते हुए पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाई थी. कश्मीर में फिर सबको विश्वास में लेकर राजनीतिक पहल करने की जरूरत है और बंगाल वाली मुठभेड़ की राजनीति से बचने की!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)