आज 27 दिसंबर है और आज मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म दिन भी है। मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू के महानतम शायर थे। साहित्य में अनेक विभूतियाँ जन्मती है और अपनी प्रतिभा से लोगों को चमत्कृत करती रहती हैं पर आकाशगंगा में कहीं खो जाती हैं। कुछ तो गुमनामी के अँधेरे में ब्लैक होल की तरह विलीन ही हो जाती हैं। पर कुछ प्रतिभाएं समय के अनेक प्रभाव को झेलते हुए , मौज़ ए वक़्त को पार करते हुए , कालजयी हो कर अनवरत रूप से दैदीप्यमान बनी रहती हैं। ऐसी प्रतिभाएं लगभग विश्व के हर साहित्य में मिलेंगी और उनकी प्रासंगिकता सदैव बनी रहती है। ग़ालिब उन्ही कालजयी शख्शियतों में से एक है।
आज भी हर अवसर पर उन्हें उद्धृत कर माहौल को वज़नदार और मौज़ू बनाया जा सकता है। ग़ालिब एक सामंत थे, सूफी थे, कला के पारखी थे, फक्कड़ थे और मद्यप भी। 1857 के विप्लव के समय एक बार अंग्रेजों ने विप्लव का दमन कर लेने के बाद जब उन्हें पकड़ा और जब पूछताछ की, तो एक सवाल , कि तुम्हारा मजहब क्या है, पर उन्होंने कहा कि ” मैं आधा मुसलमान हूँ, और आधा काफ़िर। शराब पीता हूँ , पर सूअर नहीं खाता हूँ।” यह ग़ालिब का व्यंग्य था या उनकी साफ़ बयानी, यह तो वही बता पाएंगे। पर इस उत्तर ने माहौल को हल्का कर दिया।
ग़ालिब मूलतः फारसी के शायर थे। फारसी राजभाषा थी तब। मुगल काल की वही भाषा थी । लश्करों में विभिन्न क्षेत्रों से आये सैनिकों की संपर्क भाषा के रूप में उर्दू का स्वरूप बन रहा था । फिर ग़ालिब ने भी इस स्वरुप को अपनाया और उर्दू उनकी प्रतिभा से समृद्ध हुयी। ग़ालिब की शायरी में दर्शन भी है , इश्क़ ए हक़ीक़ी भी और इश्क मजाज़ी भी। तंज भी और इबादत भी। उनका अंदाज़ ए बयाँ भी अलग और उनकी अदा भी अलग। इसी लिए ग़ालिब आज भी न सिर्फ समकालीनों में बल्कि अपने बाद की महान साहित्यिक प्रतिभाओं में भी अलग ही चमकते हैं। यही विशिष्टता , ग़ालिब को ग़ालिब बनाती है।
दिल्ली में हजरत निज़ामुद्दीन की दरगाह के पहले ही जाते समय ग़ालिब अकादेमी है और उसी के आगे ग़ालिब भी चिर निद्रा में लीन हैं। पर बहुत कम लोग ग़ालिब की मज़ार पर जाते हैं। शायद बहुत ही कम। किसी किसी की नज़र पड़ती है तो वहाँ एक सादगी भरा सन्नाटा पसरा रहता है। साहित्यकार पत्थरों से नहीं अमर होते हैं, वे अमर रहते हैं अक्षरों में। अक्षर का अर्थ ही है , जिसका क्षय न हो। और ग़ालिब की कीर्ति का कभी क्षय नहीं होगा। वह अक्षुण्ण रहेगी। नीचे उनका एक शेर प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह फारसी के शब्दों से भरा पड़ा है , इस लिए इसका शब्दार्थ और अर्थ भी दे रहा हूँ।
ग़ालिब –
असद हम वो जुनूं जौलां गदा ए बे सर ओ पा हैं,
कि है, सर पंजा ए मिज्गान ए आहू पुश्त खार अपना !!
असद – ग़ालिब का नाम असदुल्ला खान
जुनूं जौलां – उन्माद ग्रस्त.
गदा – भिखारी,
बे सर ओ पा – बिना सर और पैर के, यानी बिना सहारे.
मुज्गा – पलक,
आहू – हिरण.
पुश्त – पीठ.
हम ऐसे उन्माद ग्रस्त भाग्यहीन भिखारी हैं, हिरण की पलकें, जिसकी पीठ खुजाने का पंजा बनी हुयी हैं. यह उन्माद या धुन की पराकाष्ठा है. हिरण की पलकों से पीठ खुजाने की कल्पना, भूषण की एक प्रसिद्ध पंक्ति, जो तीन बेर खाती थीं, तीन बेर खाती हैं की याद दिला देती है। धुन में कुछ भी ज्ञात नहीं है, उन्माद में भी सिर्फ उन्माद का कारक ही दिखता है। उन्माद का कारक कुछ भी हो सकता है। दैहिक प्रेम हो या दैविक प्रेंम, जिसे सूफ़ी संतों ने इश्क हकीकी और इश्क मजाजी में बांटा है। पूरा सूफी दर्शन ईश्वर को माशूक, प्रेमिका के रूप में देखता है. ईश्वर के प्रति यह नजरिया भारतीय दर्शन परंपरा के लिए नया नहीं है। राधा कृष्ण का प्रेम, या कृष्ण गोपी प्रेम भी इश्क हकीकी ही था। भक्तिकाल का पूरा निर्गुण साहित्य इसी प्रेरणा से प्रभावित है. उन्माद की इस पराकाष्ठा में ग़ालिब यह भी विस्मृत कर गए हैं कि कहीं हिरण की पलकों से पीठ खुजाई जा सकती है. यह उन्माद और कुछ नहीं ईश्वर को पाने की उद्दाम लालसा है. जिसमे वेदना है, विरह है और भरपूर आशावाद है। ग़ालिब को उनके जन्मदिन पर, उनका विनम्र स्मरण।
(लेखक पूर्व आईपीएस हैं)