पत्रकार श्याम सिंह का संस्मरणः हिन्दू से अच्छा पड़ौसी नहीं, मुसलमान से अच्छा दोस्त नहीं!

श्याम मीरा सिंह

दिल्ली से हैदराबाद के सफर में हूं। वेटिंग लिस्ट की वजह से टिकट कैंसिल हो गई थी तो सीट नहीं मिली। दिल्ली से हैदराबाद के बीच 1680 किमी का रस्ता है, घण्टों में नापें तो 27 से 28 घन्टें। एक आदमी के लिए इतनी देर खड़े रहना मुश्किल है। बैठना भी। मैं स्लीपर क्लास की दस नंबर की बोगी में चढ़ गया। थोड़ा सकुचाने वाला स्वभाव है तो किसी की भी सीट पर नहीं बैठा, खड़ा ही रहा। एक शख्स जिसकी नजर बार-बार मुझपर पड़ रही थी ने मुझे अपनी सीट ऑफर की। मेरा नाम नहीं पूछा, मजहब भी नहीं। बातचीत के दौरान पता चला कि वह बंगलौर(कर्नाटक) जा रहे हैं। मैंने भी बताया कि मेरे पास 900 रुपए की टिकट है लेकिन सीट नहीं है। तो मुझे टोकते हुए उसने कहा कि “ये सीट है तो सही आप इसपर ही मेरे साथ सो जाना”। आगे उसने कहा लेकिन एक छोटी सी समस्या होगी कि मेरे अब्बू जोकि हर्ट के पेशेंट  हैं वह भी नागपुर स्टेशन से साथ में होने वाले हैं उनकी भी सीट कन्फर्म नहीं हुई है। इसलिए उनके आने के बाद कुछ एडजस्टमेंट करना पड़ेगा।

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मतलब कुछ-कुछ ईशारा यही कुछ था कि सीट छोड़नी पड़ेगी। रास्ते भर उसने मुझे खाने-पीने के सभी सामानों में बराबरी पर रखा। पानी, बिस्कुट, संतरें, काजू मठरी, लंच। सबमें आधा-आधा। सफर लम्बा था सीट छोटी। समस्या स्वभाविक रूप से उसे हुई ही होगी। लेकिन उसने एडजस्ट किया। करीब 16 घन्टे के सफर के बाद नागपुर स्टेशन भी आ ही गया। अब्बू चूंकि हर्ट के पेशेंट और उमर में बुजुर्ग थे,उनकी व्यवस्था करना पहली प्राथमिकता थी। मैंने समय की नजाकत को समझते हुए खुद को उस सीट से अलग करना जरूरी समझा। और इधर उधर खड़ा होने लगा। एक चादर नुमा बिस्तर अगल-बगल की सीटों के ठीक बीच वाली जमीन पर लगा लिया गया। मैं वहां से कहीं और जाने के लिए अपना बैग संभालने लगा, इधर उधर पड़ा सामान रखने लगा। तभी उस बुजुर्ग ने कहा कि आप कहां जा रहे हैं, मैंने जवाब दिया कि “मैं इधर उधर ही कहीं देखता हूं, वैसे भी मैं दिन में सो ही लिया हूं सो अब सोने की अधिक आवश्यकता नहीं रही है, आप थोड़ा आराम करिए सीट पर, सर्दी भी अधिक है”

ये दोनों शख्स मेरा मजहब नहीं जानते थे, मेरी जाति नहीं जानते थे। अगर मेरे लिबास से अंदाजा भी लगाते तो हिन्दू ही मालूम पड़ता। लेकिन उनके लिबास और दाढ़ी से साफ मालूम चल रहा था कि वो लोग मुस्लिम हैं, बिना मूछ, लंबी दाढ़ी, कुर्ता पैजामा, और एक अलग ही तरह का लहजा, बोली  भारत में एक मुसलमान की पहचान करने के लिए यही काफी है। उन अंकल का नाम याद नहीं लेकिन उस लड़के का नाम याद है, सैय्यद वसीम।

मुझसे उम्र में कुछ साल बड़े सैयद ने मेरी मदद की, यह नेकदिली थी लेकिन सामान्य बात थी, लेकिन उसके अब्बू ने जो कहा वह मुझे और इस देश के तमाम लोगों को शर्म और फक्र दोनों का अहसास एक साथ कराने वाली चीज थी, शर्म उनके लिए जो मुसलमानों के लिबास देखकर ही मन में पूर्वाग्रह भर लाते हैं। फक्र उनके लिए जिन्हें इस मुल्क की साझी विरासत पर नाज है। लंबी सफेद दाड़ी वाले उस बुजुर्ग ने कहा कि उनका बेटा जमीन पर सो जाएगा और मैं उनके साथ सीट पर लेट जाऊं। इसीलिए जमीन पर चादर बिछाई गई है। शीत लहर के मौसम में अपने बेटे को जमीन पर सोने के लिए कहना, और एक अनजान को अपनी सीट पर जगह देने की बात का नाम ही “हिन्दोस्तां” हैं। यही वह हिन्द है जिसने विश्व के तमाम देशों को अपनी समृद्धि, संस्कृति से जलने को मजबूर किया। ऐसे अनेकों उदाहरण दिन-रात यूं ही मिल जाएंगे, यहां इत्तेफाक से मुस्लिम थे, कहीं मदद करने वाले हिन्दू होते हैं और सामने वाला मुसलमान। इन सबसे मिलकर भारत बनता है। हिन्दुस्तां वह नहीं जो टीवी पर फुटेज दिखा दिखा कर जताया जा रहा है। हिन्दुस्तां वह है जो असल जिंदगी में एक ही मुल्क में एक हवा से सांस ले रहा है।

हिंदुओं के एक बड़े तबके में मुसलमानों के लिए अजीब तरह की घृणा है, यही घृणा मुसलमानों के भी एक तबके में हिंदुओं के लिए है। लेकिन घृणा उन्हीं लोगों के मन मे है जो एक दूसरे समुदाय के लोगों से कभी मिले नहीं, दोस्ती नहीं की। घर पर नहीं गए, स्कूल में साथ नहीं घूमे, प्रेमी नहीं बने, प्रेमिकाएं नहीं बनाईं, आधे से ज्यादा हिंदुओं ने व्हाट्सएप वाला मुसलमान ही देखा है। जिसकी लंबी सी दाड़ी है हाथ में चाकू है। जेब में बम है। उसे मदद करने वाले हाथ और मोहब्बत वाला दिल देखने को कभी नहीं दिखता। क्योंकि उसको तस्वीर ही एक ही रंग की भेजी जा रही हैं, मुसलमान से उसकी पहली मुलाकात ही इंटरनेट पर हुई थी। कुरान भी उसने आरएसएस के व्हाट्सएप ग्रुप पर पढ़ी है। आजसे 4 साल पहले मैं भी मुसलमानों के प्रति इन्हीं पूर्वाग्रहों में जीता था। मुस्लिम क्षेत्र से निकलते वक्त कदमों की गति जल्दी जल्दी बढ़ती जाती थी। उन्हें देखते ही अजीब तरह का शक, डर और घृणा एक साथ आती थी। लेकिन तभी तक जब तक कि मैं असल में मुसलमानों से नहीं मिला, दोस्ती नहीं की। आज मेरे तमाम दोस्त इस मजहब के मानने वाले हैं। मैंने अपने भाई को अपने मुसलमान दोस्तों में पाया है। आज मैं जामा मस्जिद में नमाज पढ़ रही भारी भीड़ में भी अकेले चला जाता हूं लेकिन कभी नहीं लगा कि ये मस्जिद वाली भीड़ मंदिर वाली भीड़ से थोड़ी सी भी अलग हैं, वह उतने ही भावुक हैं जितने कि हिन्दू, वह उतने ही मजहबी हैं जितने कि हिन्दू, वह उतनी ही मेहमानबाजी जानते हैं जितने कि और मजहबों के लोग। आरएसएस और भाजपा की सफलता का एक ही कारण है कि उसने दोनों कौमों की सबसे बदसूरत तस्वीरें आपके बीच रखी हैं, नहीं तो इस मुल्क से अच्छा मुल्क नहीं, हिन्दू से अच्छा पड़ौसी नहीं, मुसलमान से अच्छा दोस्त नहीं।