कृष्णकांत
“आजाद हिन्दुस्तान में राज्य हिंदुओं का नहीं, बल्कि हिन्दुस्तानियों का होगा, और उसका आधार किसी धार्मिक पंथ या संप्रदाय के बहुमत पर नहीं, बल्कि बिना किसी धार्मिक भेदभाव के समूचे राष्ट्र के प्रतिनिधियों पर होगा।… धर्म एक निजी विषय है जिसका राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए।” (हरिजन सेवक, 9.8.42)
“मेरा हिंदुत्व फिरकावाराना नहीं है। इसमें इस्लाम, ईसाई धर्म, बौद्ध धर्म और जरदुश्त धर्म की उत्कृष्ट बातें शामिल हैं – सत्य मेरा धर्म है और अहिंसा उसकी प्राप्ति का एकमात्र रास्ता। तलवार के सिद्धान्त को मैंने सदा के लिए ठुकरा दिया है।” (हरिजन, 30.4.1938) “मेरी लालसा है कि यदि आवश्यक हो तो मैं अपने रक्त से हिंदू और मुसलमानों के बीच संबंधों को दृढ़ कर सकूं।” (यंग इंडिया, 25.9.1924)
“न कोई गरीब होगा न भिखारी, न कोई ऊंचा होगा न नीचा, न कोई करोड़पति होगा न आधा भूखा नौकर, न शराब होगी, न दूसरी कोई नशीली चीज। सब लोग अपने आप खुशी से और गर्व से अपनी रोटी कमाने के लिए मेहनत मजदूरी करेंगे। वहां स्त्रियों की वही इज्जत होगी जो पुरुषों की, और स्त्रियों और पुरुषों की अस्मत और पवित्रता की रक्षा की जाएगी। वहां अस्पृश्यता नहीं होगी, सब धर्म समान होंगे। वहां सब कोई समानता, भाईचारे और पवित्रता के आदर्श को प्राप्त करने के लिए जी तोड़ प्रयत्न करेंगे।” (पूर्णाहुति, खंड चार, पृष्ठ 383, जनवरी 1948 में अपनी शहादत से कुछ समय पहले एक उपवास के दौरान)
“मैं हिंदुओं को जितना प्रेम करता हूं उतना ही मुसलमानों को भी करता हूं। मेरे हृदय में जो भाव हिन्दुओं के लिए उठते हैं वही मुसलमानों के लिए भी उठते हैं। यदि मैं अपना हृदय चीरकर दिखा सकता तो आप पाते कि उसमें कोई अलग-अलग खाने नहीं है, एक हिंदुओं के लिए, एक मुसलमानों के लिए, तीसरा किसी ओर के लिए आदि-आदि।” (यंग इंडिया, 13.8.1921)
“मैं जानता हूं कि मेरे जीवनकाल में नहीं तो मेरी मृत्यु के बाद हिंदू और मुसलमान दोनों उसके साक्षी होंगे कि मैंने सांप्रदायिक शान्ति की लालसा कभी नहीं छोड़ी थी।” (यंग इंडिया, 11.5.1921) “जब मैं नौजवान था और राजनीति के बारे में कुछ नहीं जानता था, तभी से मैं हिन्दू, मुसलमान, वगैरा के हृदयों की एकता का सपना देखता आया हूं। मेरे जीवन के संध्याकाल में अपने उस स्वप्न को पूरा होते देख कर मैं छोटे बच्चों की तरह नाचूंगा।… ऐसे स्वप्न की सिद्धि के लिए कौन अपना जीवन कुर्बान करना पसंद नहीं करेगा? तभी हमें सच्चा स्वराज्य मिलेगा।” (पूर्णाहुति, खंड चार, पृष्ठ 322, 1948 में शहादत से कुछ दिन पहले एक उपवास के दौरान।)
“हम एक दूसरे के गमों में साझी होकर और परस्पर सहिष्णुता की भावना रखकर एक दूसरे के साथ सहयोग करते हुए अपने सामान्य लक्ष्य की ओर बढ़ेंगे तो यह हिंदू-मुस्लिम एकता की दिशा में सबसे मजबूत कदम होगा।” (यंग इंड़िया 11-5-1921)
“हिंदू-मुस्लिम एकता का अर्थ केवल हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच एकता नहीं है बल्कि उन सब लोगों के बीच एकता है जो भारत को अपना घर समझते हैं उनका धर्म चाहे जो हो।” (यंग इंडिया, 20-10-1921) “जितने मजहब हैं मैं सबको एक ही पेड़ की शाखायें मानता हूं। मैं किस शाख को पसन्द करूं और किसको छोड़ दूं। किसकी पत्तियां मैं लूं और किसकी पत्तियां मैं छोड़ दूं।” (गांधी महात्मा समग्र चिंतन- डॉ. बी.एन. पांडे-पृष्ठ 134)
नोआखली में गांधीजी को एक लिखित प्रश्न दिया गया- “क्या धार्मिक शिक्षा स्कूलों के राज्य-मान्य पाठ्यक्रम का अंग होनी चाहिए।’ गांधीजी ने उत्तर दिया, ‘मैं राज्य धर्म में विश्वास नहीं करता भले ही सारे समुदाय का एक ही धर्म हो। राज्य का हस्तक्षेप शायद हमेशा नापंसद किया जाएगा। धर्म तो शुद्ध व्यक्तिगत मामला है। … धार्मिक संस्थाओं को आंशिक या पूरी राज्य सहायता का भी मैं विरोधी हूं, क्योंकि मैं जानता हूं कि जो संस्था या जमात अपनी धार्मिक शिक्षा के लिए धन की व्यवस्था खुद नहीं करती, वह सच्चे धर्म से अनजान है। इसका यह अर्थ नहीं है कि राज्यों के स्कूलों में सदाचार की शिक्षा नहीं दी जाएगी। सदाचार के मूलभूत नियम सब धर्मों में समान हैं।” (गांधीजी की कहानी, लुई फिशर, पृष्ठ 225)
गांधीजी ने आदर्श समाज को रामराज्य का नाम दिया। 26 फरवरी, 1947 को एक प्रार्थना सभा में रामराज्य की भावना स्पष्ट करते हुए उन्होंने बताया, “कोई यह समझने की भूल न करे कि रामराज्य का अर्थ हिन्दुओं का राज्य है मेरा राम खुदा या गॉड का ही दूसरा नाम है। मैं खुदाई राज चाहता हूं। और इसका अर्थ है पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य।” (पूर्णाहुति खंड दो, पृष्ठ 259)
“यदि मुझसे हिंदू धर्म की व्याख्या के लिए कहा जाए तो मैं इतना ही कहूंगा- अहिंसात्मक साधनों द्वारा सत्य की खोज।” (24.4.1924, पृष्ठ 516-518, खंड 23, गांधी वाङ्मय)
“हिन्दू धर्म कोई वर्जनशील धर्म नहीं है। उसमें दुनिया के सब नबियों और पैगम्बरों की पूजा के लिए स्थान है। वह साधारण अर्थों में प्रचार का ध्येय रखनेवाला धर्म नहीं है। बेशक इसके अंचल में कई जातियां समा गई हैं, लेकिन यह विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया की तरह और अदृश्य रूप से हुआ है। हिन्दू धर्म सभी लोगों को अपने-अपने धर्म के अनुसार ईश्वर की उपासना करने को कहता है और इसलिए इसका किसी धर्म से कोई झगड़ा नहीं है।” (यंग इंडिया, 6.10.1921)
“हिन्दू धर्म के दो पहलू हैं। एक ओर वह पहलू है जिसमें अस्पृश्यता है, अन्धविश्वास है पत्थरों ओर प्रतीकों की पूजा है, पशु-यज्ञ है – इत्यादि-इत्यादि। दूसरी ओर गीता, उपनिषदों और पतंजलि के योगसूत्र से संबंधित हिंदू धर्म है, जिसमें अहिंसा की, प्राणिमात्र के साथ एकता की तथा एक अन्तर्यामी, अविनाशी, निराकार और सर्वव्यापक ईश्वर की विशुद्ध उपासना की चरम सीमा है। मेरी दृष्टि में अहिंसा हिन्दू धर्म का मुख्य गौरव है।” (पूर्णाहुति, द्वितीय खंड, पृष्ठ 49-50)
हमारे पुरखे जो इस देश के लिए जीवन भर लड़े वे कैसा भारत बनाना चाहते थे? विचार कीजिए कि आज हिंदुस्तान को किधर धकेला जा रहा है? कौन और किस स्वार्थ के चलते ऐसा किया जा रहा है?
(लेखक पत्रकार एंव कथाकार हैं)