रवीश कुमार
गांधी को पश्चिम के प्रेस और समाज ने किस तरह से देखा, इस पर वृहद शोध हो चुका है। गांधी बहुत तेज़ी से दुनिया भर में लोकप्रिय हो चुके थे और भारत आने के कुछ साल के भीतर ही किंवदंती में बदल चुके थे। पश्चिम ने गांधी को नस्लीय पदानुक्रम के खांचे में रख कर देगा। उपनिवेश के मालिकों ने उपनिवेशित को कमतर साबित करने के लिए कपड़े से लेकर कई तरह की चीज़ें खोज निकालीं। गांधी को अवतार और चमत्कार के रुप में देखा जाने लगा। हैरानी से देखते देखते दुनिया के कई देशों में गांधी के जीवन काल के बाद कई गांधी हो गए। दुनिया अब उनमें गांधी देखने लगी। नस्ल भेद के ख़िलाफ़ दुनिया भर में लड़ाई के दो बड़े प्रतीक मार्टिन लूथर किंग जूनियर और नेल्सन मंडेला में लोगों ने गांधी को देखा और उन्होंने अपने संघर्ष को गांधी की प्रेरणा से ऊर्जा भरी। कई देशों के नाम गिनाए जा सकते हैं जहां गांधी की प्रेरणा से तानाशाह से लेकर ग़रीबी के ख़िलाफ़ प्रभावशाली आवाज़ उठी। उन आंदोलनों में गांधी ही दिख रहे थे। गांधी ही बोल रहे थे। जर्मनी की एकता को लेकर आंदोलन हुआ तो बर्लिन सत्याग्रह एसोसिएशन का गठन हुआ था। इटली में ग़रीबी के ख़िलाफ़ लड़ने वाले दानिलो दोलची को सिसली का गांधी कहा गया। म्यानमार की ऑन्ग सान सू ची में गांधी का अक्स देखा गया जो बाद में तानाशाह हो गईं। ऐसे लोग भी हुए जो गांधी के रास्ते पर चलते हुए सच्चे गांधी की तरह हुए और ऐसे लोगों से दुनिया भरी हुई है जिन्होंने गांधी के रास्ते पर चलते हुए गांधी को छोड़ दिया और अपने धंधे के लिए इस्तमाल किया। यह भी एक अध्ययन का विषय है कि पश्चिम और दुनिया के कई देशों ने गांधी को कैसे देखा और देखते-देखते उनके ही समाज में कितने गांधी बनने लगे।
Sean Scalmer की Gandhi in the West नाम की इस किताब से ही बता रहा हूं। यह किताब मुझे ग्वालियर के डॉ अरविंद शर्मा ने दी थी जो डॉक्टर होने के साथ-साथ गांधी के अध्येता भी है। 25 नवंबर 2018 को डॉ शर्मा ने गांधी पर और भी किताबें दी थीं। समाज में ऐसे लोग अपनी अलग ही भूमिका निभा जाते हैं जो किसी पत्रकार को अपने पसंद की कुछ किताबें देने चले आते हैं। इसलिए मैं मानता रहा हूं कि कोई अकेले कुछ नहीं होता। हज़ारों लोगों का हाथ लगा होता है किसी के निर्माण में। आपको तय करना होता है कि जो हाथ लगना है उसकी मंशा क्या है। हज़ारों सांप्रदायिक और तानाशाही प्रवृत्ति के लोग भी आपको तराश सकते हैं और हैवान बना सकते हैं।
इस किताब का पहला चैप्टर हमें उस दौर में ले जाता है जब आस्ट्रेलिया, फ्रांस, अमरीका और ब्रिटेन में गांधी को देखा जा रहा था। गांधी पहली बार उनकी निगाहों में आ रहे थे। प्रेस के कैमरे के लेंस के ज़रिए गांधी को देखते हुए इन समाजों के राजनेताओं, पत्रकारों, वकीलों और आम लोगों में गांधी विचित्र किन्तु सत्य जैसी कल्पनाओं के रूप में उतरने लगते हैं। ध्यान रहे कि अमरीका दासता और नस्लभेद से गुज़र रहा था और ब्रिटेन अपनी ख़त्म होती जा रही साम्राज्यवादी शक्तियों के दौर से। गांधी कभी अमरीका नहीं गए। ब्रिटेन कई बार गए।
धोती और चादर ने पश्चिम के समाज की नज़रों को उलट दिया। उस समय के जितने भी प्रतिरोध के लिए जाने गए जितने भी लोग थेवे सचेत रुप से ख़ास तरह के महंगे पश्चिमी लिबास, हैट, वगैरह पहना करते थे ताकि उनकी पहचान एक सभ्य और तार्किक व्यक्ति के रूप में स्थापित हो सके। स्थापित हो सके। यहां एक शख़्स ऐसा है जो धोती पहन लेता है और चादर ओढ़ लेता है। अपने पहनावे से पश्चिम की नफ़ासत को नकार देते हैं। गांधी ने पश्चिम लिबास पहनी थी लेकिन पहन कर उतार दी। इस किताब में तस्वीर, जीवनियों, कविताओं, स्मृतियों और राजनीतिक सिद्धांतों में गांधी को कैसे देखा गया है इसकी पड़ताल की जा रही है। ध्यान रहे 1840 में टेलिग्राफ आ चुका था और उसके बाद वैश्विक स्तर की समाचार एजेंसियां वजूद में आ चुकी थीं। दुनिया भर के पत्रकारों के लिए गांधी लोकप्रिय विषय बन चुके थे। समाचार पत्रों में नियमित छपा करते थे। गांधी दुनिया भर में पहचाने लगे थे। दुनिया भर के पत्रकार इंटरव्यू के लिए लाइन लगाए रहते थे।
उनसे मिलने वाले लोगों और पत्रकारों ने लिखा कि फिल्म के स्टार की तरह हैं। सेलिब्रेटी हैं। 1940 के दशक में एक अमरीकी पत्रकार ने लिख दिया कि गांधी मिकी माउस की तरह लगते हैं। 1928 में मिकी माउस का कार्टून चरित्र अस्तित्व में आ चुका था। किसी ने उनसे मिलकर लिखा कि गांधी तो बहुत भद्दे दिखते हैं। केवल खोपड़ी है। कान इतने बड़े हैं जैसे जग के हैंडल। दांत ही नहीं हैं। एक पत्रकार ने लिखा कि इतना कुरुप आज तक नहीं देखा। गांधी के वज़न को लेकर भी तरह तरह की कल्पनाएं की गईं। किसी ने लिखा की कंकाल भर हैं। पत्ते की तरह हल्के लगते हैं। न्यूयार्क टाइम्स ने लिखा कि इतने पतले हैं कि कब क्षीण हो जाएं पता नहीं। द डेली टेलीग्राफ ने लिखा कि वे भूत की तरह लगते हैं। देखने वाले हैरान हो जाते हैं।
गांधी को देखने वालों ने उनकी आंखों को अलग नज़र से देखा। किसी को आध्यात्मिकता का सागर नज़र आया तो किसी को रहस्य तो किसी को चमत्कार। किसी को उनकी आंखों से ईश्वरीय ज्योति निकली दिखाई दी। उनकी आंखों को लेकर कई तरह के विवरण पढ़ने को मिलते हैं।
धोती को लेकर खूब लिखा गया है। किसी ने तिकोना पतलून लिखा है। किसी ने आधा नंगा फकीर तो किसी ने पूरा नंगा फकीर कहा। गांधी को लेकर खूब सारे कार्टून बनाए जाने लगे और कार्टून के ज़रिए गांधी को देखा जाने लगा। न्यूज़वीक ने उन्हें श्रद्धांजली देते हुए लिखा था कि वे कार्टूनिस्टों के लिए सपने की तरह थे। उनकी नग्नता कार्टूनिस्टों और फोटोग्राफरों के लिए एक प्रमुख विषय बन चुकी थी। 1931 में डेली एक्सप्रेस के स्टाफ ने गांधी के सर की तस्वीर को लेकर पश्चिम लिबास वाले व्यक्ति की धड़ पर लगा दिया। देखने के लिए कि गांधी मार्निंग कोट और हैट में कैसे लगेंगे। अंडर वेयर की एक कंपनी ने अपने विज्ञापन में Gan-dees लिख दिया और ताकत का प्रतीक बताया।
जब वे ब्रिटेन की महारानी से मिलने जाते हैं तब वे क्या पहनेंगे इसे लेकर तरह तरह की खबरें छपने लगती हैं। न्यूयार्क टाइम्स ने ग़लत ख़बर छाप दी कि गांधी पतलून पहनने वाले हैं। एक अख़बार ने लिखा कि राजमहल की परिचारिकाओं ने इस्तीफा देने की धमकी दी है कि कोई नंगा व्यक्ति आ रहा है। अटकलें लगाई जाने लगी कि क्या चाय के वक्त गांधी यूरोपिय लिबास पहनेंगे। द न्यूज़ क्रोनिकल का रिपोर्टर एक डॉक्टर के पास पहुंच गया कि गांधी की धोती कितनी गरम है। लंदन की सर्दी के अनुकूल है या नहीं। एक कर्नल ने गांधी को पेटिकोट भेज दिया कि लंदन की सर्दी से बचने के लिए पहन लें।
धीरे धीरे पश्चिम का प्रेस उनमें बुद्ध, कबीर, कंफ्यूशियस, पैगंबर मोहम्मद, ईसा, सेंट फ्रांसिस देखने लगा और लिखने लगा। न्यूयार्क टाइम्स ने एक तस्वीर लगाकर उसके नीचे कैप्शन लिखा कि अ प्रोफेट स्पीक्स टू हिज़ पिपल्स। गांधी को किस तरह देखा गया है यह गांधी के इतिहास का अहम हिस्सा है।
गांधी से नफ़रत करने वालों ने भी ख़ास नज़र देखा। पश्चिम की नज़र गांधी को लेकर बदल गई। एक अजीबोग़रीब शख़्स की जगह उनमें नैतिक बल नज़र आने लगा। बुद्ध और ईसा नज़र आने लगे। लेकिन भारत में उनसे नफ़रत करने वालों का नज़रिया नहीं बदला।गांधी के समय ही लोग गांधी से इतनी नफरत भी करते थे कि उन्हें गालियों से भरा पत्र लिखते थे। आज भी गांधी को गाली दी जाती है। उनके मीम बनाए जाते हैं। गांधी हर किसी के लिए प्रासंगिक हैं। दो अक्तूबर और तीस जनवरी साल के ये दो दिन है जब तमाम गोड्सेवादियों की नींद उड़ जाती है। उन पर गांधी का भूत सवार हो जाता है। उनके लिए गांधी जयंती एक ऐसा दिवस है जैसे फेल हो चुका छात्र चाहता हो कि लोग जल्दी से यूपीएससी के टॉपर की बात बंद करें और उसकी तरफ देखना बंद कर दें। बीजेपी में गोड्से को महान बताने वाली सांसद हैं और गोड्से ज़िंदाबाद करने वाले लोग बीजेपी का समर्थन करते हैं। दोनों ही बातों से बीजेपी को एतराज़ नहीं है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौर में लोकतंत्र जितना कमज़ोर हुआ होगा लेकिन वे गांधी से पीछा नहीं छुड़ा सके। स्वच्छता के बहाने गांधी पर अपनी छाप लगाना चाहते थे। मगर गांधी एक विचार के गांधी नहीं है।गांधी की अहिंसा, करुणा और नैतिकता दूसरी तरफ़ से घेर लेती है। आज की राजनीति में गांधी का कोई अनुयायी नहीं है। यही गांधी की ताक़त है। हमारे नेताओं का गांधी के क़रीब भी नहीं होना साबित करता है कि उनमें नैतिक बल नहीं है। वे झूठ के भंडार हैं। वे असत्य के पुजारी हैं। आप कहेंगे कि गांधी फेल हो गए। नहीं नहीं। ये वो लोग हैं जो गांधी के सामने फेल हैं। गांधी इनके सामने फेल नहीं हैं। आप जो देख रहे हैं बस ये देख रहे हैं कि परीक्षा में फेल होने वाला रिज़ल्ट के लिए हाथ में गांधी की किताब लेकर घर आता दिखाई दे रहा है। राजघाट पर आज आपने यही देखा है।