Latest Posts

श्रीलंका के संकट के सबक

श्रीलंका के हालिया राजनैतिक संकट ने उस देश के नागरिकों के अलावा पड़ोसी देशों बल्कि पूरे विश्व के रहवासियों का ध्यान खींचा है. वहां के घटनाक्रम को देखकर दुनिया सन्न रह गई है. श्रीलंका एक ओर मानवीय त्रासदी से गुज़र रहा है तो दूसरी ओर सरकार की निरंकुश और भेदभावपूर्ण नीतियों के चलते आम लोग, विशेषकर श्रमिक और तमिल व मुसलमान अल्पसंख्यक परेशानहाल हैं. हजारों लोगों की भीड़ द्वारा राष्ट्रपति के आधिकारिक निवास पर कब्ज़े और प्रधानमंत्री के निजी आवास को आग के हवाले किये जाने के दृश्य डरावने हैं. भोजन, ईंधन और दवाओं की कमी के चलते लोग गंभीर समस्याओं से जूझ रहे हैं.

Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!

पिछले कुछ वर्षों से श्रीलंका में राष्ट्रपति को नई-नई शक्तियों से लैस करने का सिलसिला चलता रहा है. एक लम्बे समय से देश के शासक निरंकुश और एकाधिकारवादी हैं. इन तानाशाह शासकों की नीतियों ने देश की अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर दिया है. बिना किसी रोकटोक के देश में आयात होने दिया गया. इस आयात में ऐयाशी के साधनों की भरमार थी. बिना सोचे-समझे बड़े पैमाने पर सार्वजनिक संस्थानों का निजीकरण किया गया और भारी-भरकम परन्तु अनावश्यक परियोजनाएं, जैसे मत्ताला राजपक्ष हवाईअड्डे का निर्माण, शुरू की गयीं. इस सबके चलते सरकारी खजाना खाली हो गया.

देश में खाद्यान्नों की भारी कमी के पीछे रासायनिक खाद के आयात पर प्रतिबन्ध और जैविक खेती पर अत्यधिक जोर जैसे अदूरदर्शी निर्णय हैं. इनसे खाद्यान्नों के उत्पादन में भारी कमी आई है. इस तरह के आत्मघाती आर्थिक निर्णय इसलिए लिए जा सके या लिए गए क्योंकि सरकार तानाशाह थी और सत्ता एक व्यक्ति या एक परिवार के हाथों में पूरी तरह केन्द्रित थी. इसी तानाशाह सरकार ने अल्पसंख्यकों, जिनमें तमिल (हिन्दू), मुसलमान और ईसाई शामिल हैं, का घोर दमन किया और उन्हें समाज के हाशिये पर धकेल दिया.

श्रीलंका और भारत के बहुत लम्बे से नजदीकी सम्बन्ध रहे हैं. सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र एवं पुत्री संघमित्रा को तथागत गौतम बुद्ध की शिक्षा के प्रचार के लिए श्रीलंका भेजा था. भारत से बड़ी संख्या में तमिल (जिनमें से अधिकांश हिन्दू थे) बागानों में मजदूरी और व्यापार करने के लिए श्रीलंका गए. जहाँ श्रीलंका के मूल निवासी सिंहलों में से अधिकांश बौद्ध हैं वहीं तमिल हिन्दूओं (12 प्रतिशत) की भी खासी आबादी है. मुसलमान आबादी का 9.7 प्रतिशत और ईसाई, 1.3 प्रतिशत हैं.

भारत की तरह श्रीलंका भी ब्रिटेन का उपनिवेश था और भारत की तरह, अंग्रेजों ने श्रीलंका में भी लोगों को नस्लीय और धार्मिक आधार पर बांटने की भरपूर कोशिश की. सिंहली बौद्धों का कहना है कि वे देश के सबसे पुराने रहवासी हैं और इसलिए देश के संसाधनों पर उनका पहला हक़ है. हिन्दू तमिलों को वे ‘बाहरी’ बताते हैं और उन्हें कोई अधिकार देना नहीं चाहते.

श्रीलंकाई अध्येता और सामाजिक कार्यकर्ता रोहिनी हेन्स्मैन ने अपने एक लेख (नाईटमेयर्स एंड, न्यू लेफ्ट रिव्यु, 13 जून 2022) में देश में धार्मिक और नस्लीय विभाजनों की जड़ का सविस्तार विवरण देते हुए बताया है कि किस तरह प्रमुख राजनैतिक दलों ने इन विभाजनों का दोहन किया और किस तरह अंततः देश में महिंदा राजपक्ष और गोटाबाया की तानाशाह और जनविरोधी सरकार अस्तित्व में आई.

सन 1948 में देश के स्वतंत्र होने के तुरंत बाद दोनों प्रमुख राजनैतिक दलों में इस बात पर सहमति थी कि भारतीय मूल के तमिलों को मताधिकार और नागरिकता से वंचित किया जायेगा. रोहिनी लिखती हैं, “एक भेदभावपूर्ण कवायद शुरू की गई जिसके अंतर्गत अत्यंत गरीब और अत्यंत शोषित श्रमिकों के लिए यह आवश्यक कर दिया गया कि वे उनके पूर्वजों के श्रीलंकाई होने के दस्तावेजी प्रमाण प्रस्तुत करें. जाहिर है कि उनमें से अधिकांश के पास ऐसे दस्तावेज नहीं थे.” वे अपने बचपन के अनुभव साझा करते हुए लिखतीं हैं कि सन 1958 में उन्हें कोलंबो के निकट अपना घर छोड़ना पड़ा था क्योंकि तमिल-विरोधी जत्थे तमिलों को निशाना बनाते घूम रहे थे. रोहिनी के पिता तमिल थे.

सन 1956 में एसडब्ल्यूआरडी भंडारनायके इस वायदे के साथ सत्ता में आए कि सिंहली देश की एकमात्र राष्ट्र भाषा होगी. तमिलों को लगा कि यह उनके साथ भेदभाव है और उन्होंने इसके खिलाफ आन्दोलन शुरू कर दिया. एक दक्षिणपंथी सिंहली संगठन से जुड़े अतिवादी बौद्ध भिक्षु ने भंडारनायके की हत्या कर दी क्योंकि उसे लग रहा था कि वे तमिलों को कुचलने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं कर रहे हैं. भंडारनायके की पत्नी सिरिमा बण्डारनायक नई प्रधानमंत्री बनीं. उन्होंने भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किये, जिसके अंतर्गत 5 लाख तमिलों को वापस भारत भेजा जाना था.

सन 1972 में देश में नया संविधान लागू किया गया. इसके अंतर्गत सिंहली को देश की एकमात्र आधिकारिक भाषा घोषित किया गया. संविधान में बौद्ध धर्म को विशेष दर्जा दिया गया. अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा संबंधी प्रावधान समाप्त कर दिए गए.

इसके बाद, 1972 और 1975 में बागानों के राष्ट्रीयकरण के बहाने तमिलों को उनकी आजीविका से वंचित कर भूखा मरने के लिए छोड़ दिया गया. प्रशासन और अधिक दक्षिणपंथी होता चला गया. अभिव्यक्ति की आज़ादी और अन्य प्रजातान्त्रिक अधिकारों को दिन-ब-दिन और सीमित किया जाने लगा. सन 2005 में महिंदा राजपक्ष के सत्ता में आने के बाद से तमिलों पर हमले बढ़ने लगे और खून की प्यासी भीड़ द्वारा सरकार के आलोचकों की जान लेने की घटनाएं आम हो गईं.

इस सब की प्रतिक्रिया में तमिल यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट (टीयूएलएफ) ने स्वतंत्र तमिल ईलम का नारा बुलंद किया. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अनेक लड़ाका संगठन गठित हुए, जिनमें सबसे प्रमुख था लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम (लिट्टे). तमिलों में असंतोष बढ़ता गया और अंततः लिट्टे ने आतंकी हमले करने शुरू कर दिए. इससे हालात और बिगड़े. देश में तमिलों के खिलाफ एक तरह का युद्ध शुरू हो गया. संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुमानों के अनुसार नतीजतन हुई हिंसा में करीब 40,000 नागरिक अपने जीवन से हाथ धो बैठे. इसके दो कारण थे. पहला यह कि लिट्टे नागरिकों को ढाल की तरह इस्तेमाल करता था और दूसरा यह कि तत्कालीन रक्षा मंत्री गोटाबाया राजपक्ष ने अस्पतालों और सुरक्षित क्षेत्रों सहित नागरिक ठिकानों पर बमबारी करवाई. रोहिनी लिखतीं हैं, “…राजपक्षों ने लिट्टे से मुकाबला करने के लिए इस्लामिक अतिवादियों को धन उपलब्ध करवाया. सरकार को गुप्तचर अधिकारियों ने यह जानकारी दे दी थी कि उनमें से कई पूरी तरह से धर्मांध बना दिए गए हैं. परन्तु इसके बाद भी सरकार ने उन्हें अपना जासूस बनाये रखा और उन्हें धन मुहैय्या करवाया…सरकार की विश्वसनीयता को सबसे बड़ा धक्का 2019 में ईस्टर के दिन देश के कई हिस्सों में हुए आतंकी हमलों से लगा. इन हमलों में 269 लोग मारे गए गए. बाद में पता चला कि हमलावर वही इस्लामवादी थे जिन्हें राजपक्षों की सरकार धन दे रही थी.”

दक्षिणपंथी बौद्ध संगठनों जैसे बोडु बाला सेना के कार्यकर्ता सड़कों पर तमिलों पर हमले करने लगे. आम सिंहली पूरी तरह से राजपक्षों के साथ थे. लिट्टे के अंत के बाद, मुसलमानों के रूप में एक नया दुश्मन ईजाद किया गया. राज्य द्वारा प्रायोजित बौद्ध भिक्षुकों के गिरोह अल्पसंख्यक मुसलमानों को निशाना बनाने लगे. देश के आर्थिक हालात बिगड़ने लगे परन्तु सरकार पर प्रजातंत्र का अंकुश न होने के कारण उसने जनता की बढ़ती परेशानियों पर कोई ध्यान नहीं दिया. सरकारी की मनमानी ने श्रीलंका को बर्बाद कर दिया. समाज का हर तबका आक्रोशित और परेशान था. इसके नतीजा हम सबके सामने है.

शासन की इस विनाशकारी शैली से हम क्या सीख सकते हैं? धार्मिक विभाजक रेखाओं को गहरा करने, बहुसंख्यकों के धर्म (श्रीलंका के मामले में बौद्ध) को खतरे में बताने, अल्पसंख्यकों का हाशियाकरण करने और सारी शक्तियों को कुछ तानाशाहों के हाथों में केन्द्रित करने के जो परिणाम होते हैं, वे हम श्रीलंका में देख सकते हैं. तानाशाहों (चाहे वह एक व्यक्ति हो या गिरोह) को लगता है कि वे सब कुछ जानते हैं. परन्तु अंततः उनके निर्णय देश को बांटते है और बर्बाद कर देते हैं.

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया, लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)