नवेद शिकोह
मीडिया तेज़ी से बदनाम होती जा रही है। कोई कहता है कि पत्रकार दलाली का काम करते हैं। कोई सहाफियों को मुखबिर कहता है। कोई कहता है कि ये सरकारी चमचे होते हैं। कोई इल्ज़ाम लगाता है कि सियासी सुपारी पर ये नफरत की आग फैलाते है। कोई मजाक उड़ाता है कि पत्रकारों की एक टोली दिनभर फोटो खिचवाती रहती है। जो भी हो पर इन तमाम अंधेरों में दिखती रौशनी की किरण की बात कम ही लोग करते हैं।
इधर लखनऊ मीडिया पर भी तमाम दाग लगे हैं। लेकिन दाग़ों वाले चांद की रौशनी कम नहीं होती। अहले लखनऊ फख्र करो, हमारे शहर के पत्रकार अक्सर पत्रकारिका का सर ऊंचा करते दिखाई देते हैं। ग्राउंड रिपोर्टिंग के साथ ये गरीबों की मदद करते है। सामाजिक सरोकारों और शहर की गंगा जमुनी तहज़ीब की मिसाले क़ायम करती दिखती है लखनवी सहाफत।
शहर के ऐशबाग़ इलाके की धोबीघाट झोपड़पट्टी में आग लगने से पचास से अधिक परिवार बर्बाद गये। इसकी रसोई, राशन-पानी, जमा-पूंजी.. सब कुछ ख़ाक हो गया। सरकार,प्रशासन, चर्चित सामाजिक कार्यकर्ता और धर्म-जाति की पैरोकारी करने वाले सियासी लोग नहीं पंहुचे थे।
पंहुचा कौन ! कुछ पत्रकार। इन्होंने यहां के गरीब बच्चों के खाने का इंतजाम किया। ऐसे भी है लखनऊ के सहाफी। और अगर ये दिखावे के लिए है और ये सब फोटो खिचवाकर फेसबुक पर डालने के लिए है। तो ये दिखावा भी अच्छा है। ऐसे नेक कामों को दिखावा बताने वाले दिखावे के लिए ही किसी गरीब को दो रुपये का पारले जी का बिस्कुट देने का भी जिगरा नहीं रखते हैं।