यूसुफ किरमानी
तीनों कृषि क़ानून की वापसी में बड़ी जीत के अक्स नहीं देखे जाने चाहिए। जिस तरह एक वर्ग इसे किसानों की बड़ी जीत कह कर प्रचारित कर रहा है और “उत्सव” का माहौल बना रहा है, वो लोग ज़मीनी हक़ीक़त से नावाक़िफ़ हैं। एक तरह से ये कोशिश उन लोगों को ही खुश करने की पहल है जो प्रधानमंत्री मोदी की कथित “पवित्र घोषणा” बताकर वोट के लिए कैश करना चाहते हैं।
कॉर्पोरेट पूंजीवाद ने पिछले सात वर्षों में अपना जो ताना-बाना बुना है वो इस बाज़ी को इतनी आसानी से नहीं हार जाएगा। निश्चित रूप से यूपी विधानसभा चुनाव या 2024 का सत्ता का सेमीफाइनल जीतने के लिए मोदी सरकार ने किसानों के आगे झुकने का नाटक भर किया है, नाटक का मंच नहीं बदला है। कुछ हक़ीक़तें हैं जिनसे आपको रूबरू कराना है, कुछ पेशीनगोइयां हैं जिन्हें आपको बताना है।
अगर आप लोगों को याद न हो तो फिर से याद दिलाना चाहूँगा। अडानी समूह ने पंजाब में अमरिन्दर सिंह और हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर सरकार की मदद से जो अनाज स्टोरेज के विशालकाय हब या गोडाउन बनाए हैं, वे अब बंद रहेंगे या अनाज ढोने वाली अडानी की रेल बंद हो जाएगी? ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है।
किसानों का अनाज अब अडानी का मैनेजर ख़रीदेगा और इन हबों तक पहुँचाएगा। दरअसल, मंडी की व्यवस्था ऐसी होने जा रही है जहां अडानी किसानों से अनाज ख़रीदेगा। आढ़ती इनके मैनेजर होंगे। यह तंत्र इस सरकार ने इस तरह से विकसित कर दिया है कि वो तीनों कृषि क़ानूनों से कहीं ज़्यादा सुरक्षा कॉरपोरेट पूँजीपतियों को देगा।
आपका सवाल यही होगा न कि इसमें किसानों का कहाँ नुक़सान है? सवाल वाजिब है। किसान गाँवों में भी उस महंगाई का सामना या चुभन इस तरह महसूस करेंगे जो अभी तक शहरी मध्यम वर्ग करता आया है। यानी किसान अपना अनाज अडानी के आढ़ती मैनेजरों को जितना भी महँगा बेचेंगे, उसका कई गुना महंगाई का सामना गाँवों में किसानों को करना पड़ेगा। अभी हाल ही में डीएपी (खाद) ख़रीदने के लिए किसानों की लंबी लाइनें सभी ने देखी होंगी। इससे पहले क्या खाद ख़रीदने के लिए ऐसी लाइन लगती रही है?
गाँवों में अडानी के बैंक खुलने जा रहे हैं, जहां किसानों को कृषि लोन हाथोंहाथ मिलेगा। किसानों के खेत और फसल इनके बैंकों में गिरवी होंगे और फिर धीरे धीरे वहीं किसान इनका मज़दूर बन जाएगा। अब इसी तंत्र की तरफ़ सरकार बिना कोई कृषि क़ानून बनाए बढ़ेगी। हालाँकि इस तंत्र की बहुत सतही जानकारी ही मैं आपको दे पा रहा हूँ लेकिन कॉरपोरेट पूँजीपतियों ने ताना-बाना इससे भी ज़्यादा क्रूर बुना है। वक्त बीतने के साथ तमाम चीजें आप लोगों के सामने आती जाएँगी।
तीनों क़ानून वापस लेने की घोषणा करते समय प्रधानमंत्री मोदी ने एक बात कही है कि एमएसपी का मुद्दा तय करने के लिए सरकार अलग से एक कमेटी बनाएगी और वहाँ ये मुद्दा तय होगा। किसान संगठन इस कमेटी की हर गतिविधि पर नज़र रखें, उसके बयानों का विश्लेषण करें। उस कमेटी के ज़रिए कॉरपोरेट पूँजीपतियों के लूट का तंत्र और मज़बूत किया जाएगा। अगर इस बात को मैं स्क्रीन राइटर दाराब फ़ारूक़ी के अल्फ़ाज़ में कहूँ – क़ानून वापस लिया है। अपनी सोच नहीं, अपनी नफ़रत नहीं। कॉरपोरेट मीडिया के जो दलाल कल तक तीनों कृषि क़ानूनों के फ़ायदे बता रहे थे, अब वही इस क़ानून को वापस लेने के फ़ायदे बता रहे हैं।
आपकी सोच पर अडानी की सोच कब थोप दी जाएगी, आपको हल्का सा भी झटका महसूस नहीं होगा। क्या आपको लगता है कि गुजरात दंगों के लिए माफ़ी न माँगने वाले मोदी इतनी आसानी से कृषि क़ानूनों पर किसानों की माँग मान लेंगे, जिन किसानों को वो भरी संसद में “आंदोलनजीवी परजीवी” कह चुके हों। जिस किसान आंदोलन को हरियाणा का कृषि मंत्री जेपी दलाल “पाकिस्तानी आंदोलन” बता चुका हो। जिन किसानों को केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल माओवादी बता चुके हों और सांसद मनोज तिवारी किसानों को टुकड़े टुकड़े गैंग का बता चुका हो।
यह हक़ीक़त है कि किसान एकजुटता से मोदी सरकार और उसकी जननी आरएसएस डर गए। इन दिनों आप देख रहे होंगे कि कोई दिन ऐसा नहीं जा रहा है जब यूपी के मुख्यमंत्री से लेकर छुटभैया मंत्री तक मुसलमानों को उकसाने वाले बयान दे रहे हैं। लेकिन इनकी बयानबाज़ी पर किसान आंदोलन भारी पड़ रहा था, क्योंकि उस आंदोलन की छत के नीचे हिन्दू – मुसलमान एकजुट होकर खड़े हो गए। उन पर इन बयानों का रत्ती भर असर नहीं हो रहा है।
लेकिन एक बात और…अभी उन चेहरों को बेनकाब होना बाकी है जो किसान हितैषी के नाम पर आंदोलन में शामिल थे लेकिन उनके विचार भाजपा-आरएसएस को लेकर नहीं बदले। वे यूपी चुनाव और नजदीक आते ही पाला बदलेंगे और मोदी को किसानों का मसीहा बताकर कम से कम पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों का वोट भाजपा को ट्रांसफर करा देंगे। क्योंकिन जिन लोगों का विचार ये रहा हो कि हम सरकार के खिलाफ हैं, किसी पार्टी के नहीं, उन चेहरों को बेनकाब होना बाकी है।
इस भविष्यवाणी को नोट कीजिए। संसद के जिस सत्र में इन तीनों कृषि क़ानूनों को वापस लिया जाएगा, उसी सत्र में सीएए-एनआरसी की क़वायद फिर से शुरू करने की घोषणा होगी। यानी भाजपा-आरएसएस किसानों को शांत करने के बाद अपने उसी ज़हरीले मुद्दे पर लौटेंगे। पता नहीं बैरिस्टर असददुद्दीन ओवैसी साहब को ये गलतफहमी क्यों है कि मोदी सरकार सीएए-एनआरसी कानून को कृषि कानूनों की तरह वापस ले लेगी। हालांकि ओवैसी ने अपनी मांग रख दी है लेकिन दरअसल उस मुद्दे को फिर से गरमाने की कोशिश है।
ओवैसी के बयान पर जल्द ही भाजपा की प्रतिक्रिया आएगी। हो सकता है कि गृह मंत्री अमित शाह यूपी की ही किसी रैली में इस तरह की घोषणा कर दें। क्योंकि इस सरकार के सभी कारकूनों के दिन-रात सिर्फ और सिर्फ “हिन्दू-मुसलमान” डिवाइड (बांटने) के तरीके खोजने में बीतते हैं। आप देख रहे होंगे कि मीडिया में अयोध्या में बन रहे मंदिर का कवरेज बढ़ता ही जा रहा है। यूपी सरकार ने अयोध्या केंद्रित विज्ञापन अखबारों और टीवी-रेडियो के लिए जारी किए हैं।
किसान आंदोलन से भाजपा-आरएसएस को यह समझ आ गया है कि अंग्रेजों की ही नीति पर चलते हुए भारत को हिन्दू-मुसलमान में बाँट कर निष्कंटक राज किया जा सकता है। इसलिए उन्होंने नाटक का विषय बदलने की कोशिश की है लेकिन मंच वही है और उसके सूत्रधार भी वही हैं।
किसी देश के प्रधानमंत्री की अपनी एक विश्वसनीयता होती है लेकिन प्रधानमंत्री मोदी विश्वसनीयता के उस घेरे को तोड़ चुके हैं। किसानों को लेकर प्रधानमंत्री की विश्वसनीयता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि जिस केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा टेनी के बेटे पर लखीमपुर खीरी में किसानों को गाड़ी से कुचलने का आरोप है, वो शख्स मोदी कैबिनेट में बराबर जगह बनाए हुए है। जाति समीकरण के चलते मोदी उस को अपने मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता तक नहीं दिखा पा रहे हैं।
अजय मिश्रा का मोदी कैबिनेट में होना इस बात की दलील है कि प्रधानमंत्री की सोच किसानों को लेकर नहीं बदली है, दावे वो चाहे जितना कर लें। नोटबंदी के दौरान उनके भाषणों और वादों को याद कीजिए। चुनाव पेट्रोल-डीजल के पैसे बढ़ने पर बतौर गुजरात मुख्यमंत्री उनकी प्रतिक्रिया को याद कीजिए। ब्लैकमनी लाने के उनके वादों को याद कीजिए। देश के कितने लोगों को पता है कि भारत में पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों के पीछे सिर्फ अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की बढ़ती कीमतें नहीं हैं, उसका संबंध रिलायंस समूह से भी है।
देश में रिलायंस तेल का सबसे बड़ा ट्रेडर है। देश की सरकार रिलायंस को नजरन्दाज कर न तो अपनी तेल कंपनियां चला सकती है और न मनचाहा पेट्रोलियम मंत्री नियुक्त कर सकती है। ऐसे में किसानों के खेत खलिहान पर जिन कॉरपोरेट पूंजीपतियों की नजर लगी हुई, वे आसानी से हार मान लेंगे, लगता नहीं है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव स्तंभकार हैं)