कृष्णकांत का लेख: जिन्हें कानपुर के गलियारे में एक दुधमुंही बच्ची की चीख नहीं सुनाई पड़ी, उन्हें काबुल-कांधार…

जिन्हें कानपुर के गलियारे में एक दुधमुंही बच्ची की चीख नहीं सुनाई पड़ी, उन्हें काबुल-कांधार की महिलाओं पर संभावित संकट की बड़ी फिक्र हो रही है। हाथरस में एक पीड़ित लाश को जिन्होंने पेट्रोल डालकर फूंक दिया था, वे अफगानी महिलाओं के दुख पर ज्ञान दे रहे हैं। जिन्हें इबादत और सियासत का फर्क तक नहीं पता है, जिन्हें अपने मजहब और दूसरे के जमहूरी हकूक में फर्क तक नहीं पता है, जिन्हें अपने मूर्ख बनाए जाने की कोशिशें तक देखना नहीं आता, उन्हें तालिबान का बचाव करने की बड़ी हूक उठ रही है। क्या इस पागलपन के नतीजे के बारे में भी आप सोच रहे हैं? असल में हो क्या रहा है, क्या इस पर आपकी निगाह है?

Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!

जो डॉगी मीडिया यूपी चुनाव के लिए मुद्दे खोज रहा था, उसे मुद्दा मिल गया है। तीन चार ठो झंड मौलानाओं ने चैनलों को मसाला दे दिया है। सभी चैनल मिलकर भारत के हिंदुओं को बता रहे हैं कि देखो भारत का मुसलमान रहता भारत में है, लेकिन समर्थन तालिबान का कर रहा है। कई चैनलों पर एक साथ यही तमाशा होना महज इत्तेफाक नहीं है।

आज एक चैनल की एंकर एक मौलाना से ऐसे सवाल पूछ रही थी जैसे वह कोई चार छह साल का बदमाश बच्चा हो और बदमाशी करने के बाद उसे पीटने आई मम्मी तंज करते हुए सवाल पूछती है। उस एंकर की निगाह में मौलाना दोषी था। क्या मौलाना को अपनी बेइज्जती महसूस नहीं हुई? वह पैसा लेकर बार-बार लात खाने क्यों जाता है? चैनल ऐसे मुसलमान वक्ता को क्यों नहीं बुलाते जो फारूक अब्दुल्ला की तरह छाती पर चढ़कर पूछ लें कि तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरी वफादारी पर सवाल करने की?

ऐसे मौके पर वही मौलाना छांटकर बुलाए जाते हैं, जिन्हें बातों में उलझाकर उनसे उल्टा-सीधा बुलवाया जा सके। दुखद है कि इस्लाम के ठेकेदार इन चैनलिया मौलानाओं को ये तक पता नहीं चलता कि उनका इस्तेमाल फिरकापरस्ती को बढ़ाने और एक समुदाय को गोलबंद करने के लिए किया जा रहा है।

यह कौन कर रहा है, इसे बताने की जरूरत नहीं है। जो ऐसा कर रहे हैं, या करना चाहते हैं, वे फिलहाल कुर्सी पर हैं और इसे सफलतापूर्वक अंजाम दे सकते हैं। अगर हम आप ऐसा नहीं चाहते तो हमें सावधान रहना है। क्या हम सावधान हैं?

देखते-देखते पूरा सोशल मीडिया दो धड़ों में बंट गया है। भारत सरकार अब तक इस घटनाक्रम पर मौन है और यहां हर कोई हर किसी से तालिबान पर उसका विचार पूछ रहा है। जिसका इतिहास बर्बरता का है, उसे आबे-जमजम जैसा पाक-पवित्र साबित करने की इतनी भी क्या जल्दी है? अभी जुमा जुमा दो दिन भी नहीं हुआ और रुझान आने लगे हैं।

जिनको हर किसी से तालिबान की निंदा करवानी है, वे भी जल्दी में हैं। क्योंकि देर हुई तो एजेंडा पूरा नहीं होगा। हो सकता है कि तालिबान की सरकार रह जाए और भारत सरकार बाकायदा उससे बातचीत करे। लेकिन तब तक यूपी चुनाव हो चुका होगा। फिलहाल तालिबान की चर्चा भारत में मौजूद बहुसंख्यक सांप्रदायिकता को और मजबूत करने का एक जरिया भर है। बाकी भारत पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। आप सोच रहे हैं कि आपकी निंदा या समर्थन से तालिबान का कुछ बनना बिगड़ना है? ऐसा होना होता तो पिछले दशकों में कुछ न कुछ हो गया होता। तालिबान रहेगा कि जाएगा, इसका कोई ठिकाना नहीं। अमेरिका और रूस अफगानिस्तान से कब तक बाहर हैं, इसका भी कोई ठिकाना नहीं है। मगर सोशल मीडिया पर हम आप इसे लेकर जो दो धड़ों में बंट गए हैं, यह यूपी चुनाव का मुस्तकबिल तय करेगा।

एक तरह का कट्टरपंथ दूसरे तरह के कट्टरपंथ का पूरक है। अगर मैं ऐसा आदमी होता जिसकी बात कोई सुनता तो मैं अपने देश के लोगों से अपील करता कि तालिबान और अफगानिस्तान पर लड़ने से पहले अपने सिर पर मंडरा रहे उस खतरे के बारे में सोचें जिसके तहत किसी को भीड़ पीट कर मार देती है, या कोई सनकी जंतर मंतर पर किसी को ‘काटने’ का नारा लगाकर जा सकता है। बेहतर हो हम आप इस फितूर से बाहर निकल जाएं कि हिंदू या इस्लाम से जुड़े हुए धार्मिक कानून से भारत या किसी देश की सरकार चलाई जा सकती है। सियासत में धर्म सिर्फ तबाही ला सकता है। वैसे भी यह दुनिया में वर्चस्व और सत्ता की लड़ाई है जिसमें धर्म एक हथियार मात्र है।

(लेखक पत्रकार एंव कथाकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)