1983 के वर्ल्ड कप क्रिकेट के समय मैं बारहवीं में पढ़ता था. हॉस्टल में रहता था जहाँ सुबह साढ़े पांच से शुरू होकर रात साढ़े दस बजे खतम होने वाली हमारी दिनचर्या के एक-एक मिनट पर अध्यापकों का पहरा रहता था. इस दौरान असंख्य दफा हमारी अटेंडेंस लगा करती. हमें हमारे फोलियो नम्बर से जाना जाता था. इस लिहाज से कुछ सालों तक मैंने खुद को अपने नाम से नहीं 411 नम्बर से ज्यादा याद रखा.
तीन पच्चीस पर क्लासेज निबटाकर हमें लॉकर रूम जाकर कपड़े बदलने होते थे. नेकर-टीशर्ट पहन कर पौने चार बजे ग्राउंड में पहुंचना होता था. कुछ खेलकर पौने पांच पर डाइनिंग हॉल में चाय-बिस्कुट के लिए जाना होता. फिर वापस हॉस्टल पहुँच पूरी स्कूली पोशाक पहननी होती थी. पौने छः से पौने आठ तक होमवर्क के लिए प्रेप का समय निश्चित था. प्रेप के लिए कभी वापस स्कूल कैम्पस जाना होता, कभी वह हॉस्टल के कॉमन रूम में हुआ करती.
हम सब क्रिकेट के मारे थे. दिल्ली में हुए 1982 के एशियाड के समय देश में रंगीन टीवी आया था. इस लिहाज से वह बहुत नई चीज थी. लाइव टेलीकास्ट बहुत दुर्लभ होते थे लिहाजा इस वर्ल्ड कप के लिए रेडियो का सहारा था. आधिकारिक रूप से हमें हॉस्टल में अपने पास किसी भी तरह की प्राइवेट प्रॉपर्टी रखने की इजाजत न थी. वार्डन को पता चलता तो रेडियो, कैमरा, पोर्नोग्राफी जैसी चीजें जब्त कर ली जातीं और माँ-बाप को बता देने की धमकी मिलती. कभी-कभार एकाध रैपट लग जाया करता. इसके बावजूद हमारे पास लॉकर रूम में अपना छोटा सा ट्रांजिस्टर था जिसे बीबीसी की शार्टवेव फ्रीक्वेंसी पर पर सेट कर रखा गया था. इसी में कमेंट्री आती थी.
इंग्लैण्ड में मैच सवा तीन बजे शुरू हो जाते थे. तो हमारे हॉस्टल पहुँचने तक तीन-चार ओवर निबट चुके होते थे. हमारी टीम ग्रुप बी में थी और तीन मैचों में से दो जीत चुकी थी. चौथा मैच नौसिखिया जिम्बाब्वे से होना था. हमें जीतना ही था. क्लास से भागकर हॉस्टल आये, ट्रांजिस्टर ऑन किया गया. पता लगा नौ रन पर हमारे चार खिलाड़ी घुस चुके हैं. हम यह कल्पना करते हुए आये थे कि इस कमजोर टीम के खिलाफ हमारी टीम चार-पांच सौ रन बना देगी मगर ऐसे दीनहीन स्कोरकार्ड को सुनना एक बड़ा सदमा था. हताशा की इसी हालत में हम ग्राउंड की तरफ जा रहे थे. पीछे से कोई बोला – “यशपाल शर्मा भी गया.” यानी सत्रह पर पांच!
किसी तरह ग्राउंड में बिताया जाने वाला घंटा बिताया और बगैर डाइनिंग रूम गए मैंने सीधे लॉकर रूम का रुख किया जहाँ दो-तीन लड़के मुर्दनी सूरत बनाए कमेंट्री सुन रहे थे. कपिल देव और शास्त्री खेल रहे थे – अस्सी रन भी नहीं बने थे. मेरे भीतर घुसते ही “आउट” की आवाज आई. इस दफा रवि शास्त्री.
अब कोई दिलचस्पी नहीं बची थी. उम्मीद के बिलकुल उलट खिलाड़ियों ने हमारे सारे अरमानों पर मठ्ठा डाल दिया था. ऐसा वे अक्सर करते आए थे. कमेंट्री बंद कर हम लोग गावस्कर-श्रीकांत-पाटिल वगैरह को गाली बकते हुए डाइनिंग हॉल पहुंचे जहाँ बिस्कुट निबट चुके थे. चाय पीकर वापस लौटे तो किसी ने कहा – “कपिल अब भी खेल रहा है! और आउट भी सात ही हैं.”
हमारी दिलचस्पी नहीं बची थी.
फिर प्रेप शुरू हुई. इत्तफाकन हॉस्टल में उस दिन जिन गुरुजी की प्रेप ड्यूटी लगी थी वे हमारे स्कूल में खेलों के सबसे बड़े जानकार थे. एम. डी. जोशी जी कॉमन रूम में घुसे, उन्होंने अटेंडेंस ली और हमें शोर न मचाने की हिदायत देकर वार्डन के घर में घुस गए. ऐसा वे कभी नहीं करते थे.
भारत की अवश्यम्भावी हार की शर्म उन दिनों देश का हर खेलप्रेमी झेलता था. ऐसे मौके अक्सर आते थे क्योंकि हमारी टीम जीता-जिताया मैच हार जाने में उस्ताद थी. हमारे बैट्समैन तेज बोलरों के सामने हिम्मत छोड़ देते थे. हमारे पास तेज बोलर नहीं होते थे. स्पिनर थे या मीडियम पेसर. दसियों सालों से हम अपनी ऐसी मरियल टीम का सपोर्ट कर रहे थे जिसके दस हारों के बाद एक बार जीत जाने पर हमें खुशी कम हैरत ज्यादा होती थी.
उस दिन हम ज़िम्बाब्वे जैसी फुद्दू टीम से हारने जा रहे थे. अपनी-अपनी शर्म में गड़े हुए हम होमवर्क पर झुके हुए थे. अचानक गुरुजी दरवाजा खोलकर बाहर आये और उत्तेजना में बोले – “क्रिकेट किस-किस को पसंद है?” दस-बीस हाथ उठे.
“आओ मेरे पीछे!” भीतर ड्राइंग रूम में बड़े वाले रेडियो पर वार्डन गुरुजी कमेंट्री सुन रहे थे. बच्चे भीतर घुसे तो उन्होंने ज़रा भी उज्र नहीं किया और इशारे से अपने लिए जगह बना लेने की हिदायत दी. टनब्रिज वेल्स के नेविल ग्राउंड में उस दिन जो घटा, क्रिकेट के डेढ़ सौ बरस के इतिहास में वैसा कभी नहीं हुआ. कभी नहीं!
पारी के आखिर तक कपिल देव आउट नहीं हुए. कुल 138 गेंदों पर 175 नॉट आउट रहे कपिल देव ने 16 चौके और 6 छक्के मार कर स्कोर को 266 तक खींच डाला था. यह टीम के कुल स्कोर का 66% था. अपनी रसोई से गुलाबजामुन लाकर लगभग नाचते हुए वार्डन सर ने हम सबका मुंह मीठा कराया. हम मैच जीत भी गए. यही जीत आगे चलकर हमारे वर्ल्ड चैम्पियन बनने की नींव बनी. एक अपराजेय नायक की उस अकल्पनीय रेकॉर्डतोड़ पारी के बाद भारत की क्रिकेट पूरी तरह बदल गयी.
अफ़सोस उस पारी की वीडियो रिकॉर्डिंग ही नहीं हुई. पर एक पूरी पीढ़ी की स्मृतियों में वह जितने तरीकों से दर्ज है उनकी चमक को कभी कोई नहीं मिटा सकता. उस बेहतरीन याद के लिए सलाम कुबूलिये जनाब कपिल देव. आप जैसा कोई नहीं हो सका. हो भी नहीं सकता. आज आपका दिन है. 18 जून 1983 को खेली गयी आपकी उस चैम्पियन पारी को याद करने का दिन है!