इस्लाम और धर्म स्वातंत्र्य फ्रांस एवं ऑस्ट्रिया में हालिया हमले और उनके पीछे की मानसिकता

इरफ़ान इंजीनियर

यह एक सामान्य धारणा है कि इस्लाम एक पिछड़ा हुआ धर्म है जो प्राचीन नहीं तो कम-से-कम मध्यकालीन मान्यताओं से अब भी चिपका हुआ है। इस्लाम की सोच परम्परावादी ही नहीं बल्कि कट्टर है और वह अपने अनुयायियों को असहिष्णु और हिंसक बनाता है। यह भी माना जाता है कि इस्लाम की आधुनिक मूल्यों और राजनैतिक प्रणालियों जैसे प्रजातंत्र, धर्मनिरपेक्षता, मानवाधिकार व धार्मिक स्वातंत्र्य आदि से पटरी नहीं बैठ सकती। सेम्युल हटिंगटन के अनुसार, पश्चिम और इस्लाम के बीच सभ्यताओं का टकराव होना निश्चित है।

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फ्रांस में हाल में हुई हिंसक घटनाओं ने इस धारणा को और पुष्ट किया है। घटनाक्रम की शुरुआत सेम्युल पेटी (47) नामक स्कूल अध्यापक की गर्दन काटे जाने की लोमहर्षक घटना से हुई। पेटी ने अपने विद्यार्थियों को अभिव्यक्ति की आज़ादी की कीमत समझाने के लिए व्यंग पत्रिका ‘शार्ली हेब्दो’ में प्रकाशित कुछ ऐसे कार्टून दिखाए थे जो पैगम्बर मुहम्मद पर आधारित थे। पेटी का हत्यारा अब्दुल्लाह अन्ज़ोरोव नामक एक 18 वर्षीय चेचेन मुस्लिम युवक था जिसके बारे में यह आरोपित है कि वह सीरिया के जिहादियों के संपर्क में था। इस क्रूर और अमानवीय हत्या के बाद, फ्रांस के राष्ट्रपति इम्मानुएल मैक्रॉन ने ‘फ्रांस की जीवन जीने के तरीके’ का हवाला देते हुए कहा कि उनके देश के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी अत्यंत महत्वपूर्ण है जिससे कोई समझौता नहीं किया जा सकता। फ्रांस के और पूरी दुनिया के अधिकांश मुसलमानों ने पेटी की हत्या की निंदा की और उसे आतंकी घटना बताया। निंदा करने वालों में ‘फ्रेंच कौंसिल ऑफ़ मुस्लिम फेथ’ शामिल थी। मैक्रॉन ने घटना के लिए इस्लामवादियों को दोषी ठहराया और सभी इस्लामवादियों को ‘फ्रांस के जीवन जीने के तरीके’ के लिए खतरा बताया। इससे इस विवाद ने एक अवांछनीय मोड़ ले लिया।

फिर, 2 नवम्बर 2020 को कुज्तिम फेज़ुलाई नामक हथियारों से लैस 20 साल के हमलावर ने विएना (ऑस्ट्रिया) के केंद्रीय इलाके में चार लोगों की गोली मार कर हत्या कर दी। इस्लामिक स्टेट (आईएस) ने इस हमले की ज़िम्मेदारी ली। ऑस्ट्रिया के चांसलर सेबेस्टियन कुर्ज़ ने इस हमले को “जीवन जीने के हमारे तरीके” पर हमला बताया। परन्तु उन्होंने यह साफ़ किया कि यह “ईसाईयों और मुसलमानों के बीच या ऑस्ट्रिया के मूल निवासियों और प्रवासियों के बीच की लड़ाई न होकर सभ्यता और बर्बरता के बीच की लड़ाई है।” उन्होंने अपने नागरिकों से यह याद रखने को कहा कि “किसी भी धर्म के मानने वाले सभी लोग हमारे शत्रु नहीं हैं; किसी भी देश के सभी निवासी हमारे दुश्मन नहीं हैं। हमारे शत्रु हैं अतिवादी और आतंकवादी।”

तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन ऑटोमन, ख़िलाफत की पुनर्स्थापना कर इस्लामिक दुनिया के नेता बनने की महत्वाकांक्षा पाले हुए हैं। यह अलग बात है कि इस दिशा में उनके प्रयासों को कोई ख़ास सफलता नहीं मिल पा रही है क्योंकि उनका जनसमर्थन लगातार कम हो रहा है और उनका देश आर्थिक संकट में फंसता जा रहा है। उन्होंने इस विवाद को हवा देते हुए फ्रांस के राष्ट्रपति से कहा कि वे अपनी दिमागी हालत की जांच करवा लें। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री देश में उनके खिलाफ हो रहे प्रदर्शनों से हैरान-परेशान हैं। उन्हें लोगों द्वारा नहीं बल्कि सेना द्वारा चुना गया प्रधानमंत्री माना जाता है। उन्होंने भी इस अवसर का उपयोग स्वयं को इस्लाम का रक्षक साबित करने के लिए किया। मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर बिन मुहम्मद ने कहा कि मुसलमानों को लाखों फ्रांसीसियों को जान से मारने का हक़ है।

इसके बाद, 30 अक्टूबर को फ्रांस के नीस शहर में प्रार्थना कर रहे ईसाईयों पर हमला हुआ जिसमें तीन लोग मारे गए। बीबीसी के अनुसार, हत्यारा तुनिशिया का निवासी था जो पिछली रात ही फ्रांस पहुंचा था। आतंकी तो हमला कर भाग जाते हैं परन्तु उनके किए का खामियाजा आम मुसलमानों को भुगतना पड़ता है जो सभी के साथ मिलजुलकर शांति के साथ रहना चाहते हैं। परन्तु राज्य और अन्यों द्वारा मुसलमानों के खिलाफ जो हिंसा होती है उसका फायदा आतंकियों को ही होता है क्योंकि इससे समाज का धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण होता है और मुसलमानों में अपने में सिमटने की प्रवृत्ति बढ़ती है। असुरक्षा के भाव से पीड़ित और अपने मोहल्लों में सिमटे मुसलमानों को जाल में फंसाना जिहादियों के लिए बहुत आसान होता है। वे अपने प्रचार से उनके दिमाग पर कब्ज़ा कर लेते हैं और उन्हें जानकारी, विचारों और ज्ञान के अन्य स्त्रोतों से काट देते हैं। सेम्युल पेटी और नीस शहर में तीन ईसाईयों की हत्या की दुनिया के सभी मुसलमानों को बिना किसी लागलपेट और किन्तु-परन्तु के कड़ी निंदा करनी चाहिए। ये हत्याएं अनुचित और जघन्य थीं, फिर चाहे इनके पीछे कोई भी कारण बताये जा रहे हों।

क्या इस्लाम सचमुच एक हिंसक, प्रतिगामी और कट्टर धर्म है, जैसा कि हमें जिहादियों की हरकतों से लगता है? क्या सभी मुसलमान धार्मिक आधार पर, ईशनिंदा के लिए, या अन्य किसी कारण या बहाने से गैर-मुसलमानों की हत्या का समर्थन करते हैं? इन सभी प्रश्नों का स्पष्ट उत्तर है ‘नहीं’। दुनिया के बहुसंख्यक मुसलमानों ने पेटी का गला काटे जाने का समर्थन नहीं किया है। क्या एर्दोगन, इमरान खान और महातिर मुहम्मद अपने देश के लोगों की सोच का प्रतिनिधित्व करते हैं? बिलकुल नहीं। इमरान खान के खिलाफ उनके देश में विशाल प्रदर्शन हो रहे हैं, एर्दोगन अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के प्रयासों में पूरी तरह असफल रहे हैं और मलेशिया में इस्लामिक कानून लागू करने की वकालत कर रहे महातिर के नेतृत्व वाले विपक्षी दल देश में खासे अलोकप्रिय हैं। अरब देश, ईरान और इंडोनेशिया  – जहाँ मुसलमानों की बड़ी आबादी रहती है – ने इन हमलों का समर्थन नहीं किया है बल्कि उनकी निंदा ही की है। मुसलमानों का केवल एक बहुत छोटा सा हिस्सा यह मानता है कि खुदा के बन्दों को न केवल शरिया कानून का खुद पालन करना चाहिए वरन गैर-मुसलमानों को बन्दूक की नोंक पर उसका पालन करने के लिए मजबूर करना चाहिए। इस छोटे से तबके के निशाने पर केवल गैर-मुसलमान नहीं हैं। वे लोग मुसलमानों को भी डराते-धमकाते रहते हैं। पाकिस्तान के शिया और अहमदिया, पूरी दुनिया की मुसलमान महिलाएं और वे सभी मुसलमान, जो उनकी निगाहों में सच्चे इस्लाम का पालन नहीं करते, उनके निशाने पर रहते हैं। वे सुन्नी मुसलमानों को भी यह इज़ाज़त नहीं देते कि वे इस्लाम के उस स्वरुप का पालन करें जिसे वे सही समझते हैं।

भारत में लिंचिंग और सांप्रदायिक दंगों में मारे जाने वालों की संख्या, पूरी दुनिया में आतंकवादी घटनाओं में मारे जाने वालों से अधिक है परन्तु लिंचिंग और दंगों को केवल ‘कानून और व्यवस्था की समस्या’ माना जाता है। इन्हें ‘हम’ और ‘वे’ को बांटने वाली घटनाएं नहीं माना जाता। इन्हें धर्म स्वातंत्र्य के अधिकार से नहीं जोड़ा जाता। बंदूकधारी किशोरों ने अमेरिका के स्कूलों और अन्य स्थानों पर जितने निर्दोष लोगों की हत्या की है वह मुस्लिम आतंकवादियों के हाथों मारे जाने वालों की संख्या से कहीं कम है। फिर भी, जिहादियों बल्कि इस्लाम को ही ‘अमरीका के जीने के तरीके’ के लिए खतरा बताया जाता है।

इस्लाम और धर्म स्वातंत्र्य

कुरान संपूर्ण मानवता को सही राह दिखाने वाली पुस्तक है और वह सभी को धर्म और आस्था की स्वतंत्रता देती है। केवल क्षमाशील, दयालु और करुणामय ईश्वर ही मनुष्यों के आचरण को सही या गलत ठहरा सकता है। यह अधिकार किसी मनुष्य को नहीं है। मनुष्यों से अपेक्षा की जाती है कि वे मार्गदर्शन के लिए ईश्वर की ओर देखें, किसी मनुष्य, संस्था या राज्य की ओर नहीं। इस्लाम में बहस और विचार-विनिमय की अत्यंत समृद्ध परम्परा है। कुरान में ऐसी असंख्य आयतें हैं जो धर्म स्वातंत्र्य की वकालत करतीं हैं। यहाँ हम उनमें से कुछ आयतों को उद्दृत कर रहे हैं। कुरान कहती है, “हे ईमान लाने वालों! अल्लाह के लिए इंसाफ पर मजबूती के साथ कायम रहने वाले बनो और सही गवाही दो। ऐसा न हो कि किसी गिरोह की दुश्मनी तुम्हें इस बात पर उभार दे कि तुम इंसाफ करना छोड़ दो। इन्साफ करो। यही धर्म परायणता से लगती हुई बात है।” (3:8)  किसी भी धर्म के मानने वाले से नफरत करना, इंसाफ न करना है और इसलिए धर्मपरायण नहीं है। कुरान  (5:32) कहती है कि एक मनुष्य की जान बचाना पूरी मानवता को बचाने के बराबर है किसी निर्दोष की हत्या, पूरी मानवता की हत्या के बराबर है। और वह व्यक्ति जिसकी जान ली जा रही है या बचाई जा रही है वह किसी भी धर्म या आस्था का हो सकता है और नास्तिक भी। कई आयतों में कुरान अपने मानने वालों से कहती है कि वे अच्छा करें और बुरा करने पर रोक लगाती है (3:111)। धर्म के मामले में कोई ज़बरदस्ती नहीं हो सकती। कुरान (2:256) कहती है, “सही बात नासमझी की बात से अलग होकर बिलकुल सामने आ गयी।” अध्याय 109 में कुरान उन लोगों को संबोधित करती है जो उसके धर्म को नहीं मानती और उनसे कहती है, “तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन है और मेरे लिया मेरा दीन है।” कुरान में ईशनिंदा की कहीं चर्चा ही नहीं है, उसके लिए किसी सजा की बात करना तो दूर रहा। पैगम्बर साहब को भी अपने जीवन में अनेक अपमानजनक स्थितियों का सामना करना पड़ा। वे जिस रास्ते से गुज़रते थे, वहां रहने वाली एक महिला रोज़ उन पर कूड़ा-कर्कट फेंका करती थी। वे चुपचाप बिना कुछ कहे वहां से चले जाते थे। एक दिन जब पैगम्बर साहब को पता चला कि वह महिला बीमार है और बिस्तर पर है तो वे तुरंत उससे मिलने पहुंचे और उसके स्वास्थ्य लाभ के लिए ईश्वर से प्रार्थना की। स्थान की कमी के कारण हम इस्लाम के इतिहास की अन्य ऐसी घटनाओं का उल्लेख नहीं कर पा रहे हैं जो तार्किकता और सहिष्णुता का सन्देश देतीं हैं।

उमय्यद काल में, इस्लाम के दो पंथों – जाबरिया और कादरिया – के बीच लम्बी बहस चली। जाबरिया पंथ के अनुयायी मानते थे कि दुनिया में जो कुछ हो रहा है या होने वाला है वह नियति है जो पहले से तय है। उमय्यद शासक जाबरिया पंथ को संरक्षण देते थे क्योंकि यह पंथ अपने मानने वालों का आव्हान करता था कि वे शासकों के आगे अपना सिर झुकाएं क्योंकि शासक जो कुछ भी कर रहे हैं या जो भी हो रहा है वह सब पूर्व निर्धारित है। इसमें शासकों के ऐश्वर्यपूर्ण जीवनशैली और आम नागरिकों की गरीबी शामिल है। कादरिया पंथ इससे सहमत नहीं था। उसका कहना था कि ईश्वर केवल लोगों को सही राह (सीरत अल-मुस्तकीम) दिखाता और यह लोगों पर निर्भर है कि वे ईश्वर के बताये रास्ते पर चलते हैं या शैतान के। ईश्वर लोगों पर यह निर्णय छोड़ देता है कि वे धर्मग्रंथों के आधार पर यह तय कर कि सही राह कौन सी है उस पर चलें या ईश्वर की दिखाई राह को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दें। कुदारिया पंथ के अनुयायी कहते थे कि चूँकि कुरान कहती है कि अल्लाह करुणामय, दयालु और न्याय करने वाला है इसलिए यह कुरान के खिलाफ होगा कि अल्लाह पहले से यह तय कर दे कि लोग क्या करेंगे और फिर लोगों की गलतियों के लिए उन्हें सजा भी दे।

अबासिद काल

अबासिद काल (750-1258), इस्लाम का स्वर्णिम काल माना जाता है। इस दौरान दुनिया भर की ज्ञान की पुस्तकों, जिनमें भारतीय और यूनानी दर्शन पर किताबें शामिल थीं, का अरबी में अनुवाद करवाकर उन्हें  बगदाद में एक विशाल पुस्तकालय में रखा गया। इस पुस्तकालय का नाम बाएत अल-हिक्मा (ज्ञान का घर) था।

भारत में सुधारवादी नेता और तार्किक दार्शनिक सर सैयद अहमद खान (1817-1898) ने कुरान पर अपनी टीका में लिखा कि ईश्वर के शब्द (कुरान) और ईश्वर के कार्य (प्राकृतिक दुनिया) के बीच कोई विरोधाभास हो ही नहीं सकता। इसलिए प्रकृति के सिद्धातों की खोज करना और उन्हें समझना उतना ही ज़रूरी है जितना कि कुरान को समझना। मौलाना शिबली नोमानी (1857-1914) का मानना था कि विज्ञान और धर्म अलग-अलग हलकों में काम करते हैं। विज्ञान, प्रकृति के सिद्धांतों की पड़ताल करता है तो धर्म, नैतिकता के सिद्धांतों की। उदाहरण के लिए, यह विज्ञान का काम है कि वह पता लगाये कि हवा का वजन कितना होता है या परमाणु विखंडन और परमाणु संलयन से किस तरह उर्जा उत्पन्न की जा सकती है। परन्तु इस उर्जा का क्या प्रयोग किया जाए, उससे बम बनाए जाएं या बिजली, यह तय करना धर्म का कार्यक्षेत्र है। प्रसिद्ध कवि और दार्शनिक मुहम्मद इकबाल ने लाहौर में अपने व्याख्यानों की श्रृंखला में इज्तिहाद और इस्लाम के कायाकल्प करने की ज़ोरदार वकालत की। उनका तर्क था कि हर पीढ़ी को अपने अनुभवों और सोच के आधार पर इस्लाम को समझना होगा। तो यह है इस्लाम की तार्किकता पर आधारित विरासत के कुछ उदाहरण।

मदीना के घोषणापत्र (दस्तूर अल-मदीना), जो पैगम्बर साहब द्वारा स्थापित पहले राज्य का संविधान था, में ईसाईयों, यहूदियों और मुसलमानों को अपनी-अपनी परम्पराओं और आस्थाओं के आधार पर अपने-अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता दी गयी थी। पैगम्बर के बाद के पहले खलीफा का चुनाव एकमत से हुआ था और तीन अन्य खलीफाओं का भी। उमय्यद और अन्य राजवंशों और शासकों के शासनकाल में अनुदारता का बोलबाला था और इज्तिहाद या कुरान की पुनार्व्यख्या और उसके सन्देश के सम्बन्ध में लचीला दृष्टिकोण अपनाने की राह में बाधाएं खड़ीं कर दीं गईं। इसका कारण यह था कि ज्ञान की गतिशीलता और कुरान की व्याख्या अलग ढंग से करने के अधिकार को साम्राज्यों के लिए खतरा माना जाने लगा। इसी दौरान, विभिन्न साम्राज्यों के बीच राजनैतिक युद्धों को जिहाद की संज्ञा दी जाने लगी। यह जिहाद की अवधारणा के साथ खिलवाड़ था। जिहाद का असली अर्थ होता है न्याय की राह पर चलने की कोशिश और समाज के सबसे ज़रूरतमंद तबके की देखभाल। चूँकि धार्मिक आस्थाओं में परिवर्तन से राजाओं के खिलाफ विद्रोह की आशंका थी इसलिए लोगों पर धर्म और धार्मिक सिद्धांत थोपे जाने लगे और ईशनिंदा कानून बना दिए गए।

इसके बाद, इस्लामिक देश, पश्चिमी राष्ट्रों के उपनिवेश बनने लगे। प्रथम विश्व युद्ध में उस्मानी (ओटोमन) साम्राज्य की हार के बाद इस प्रक्रिया में तेजी आई और मुस्लिम दुनिया का एक बड़ा हिस्सा पश्चिमी साम्राज्यवादी ताकतों के हाथों में चला गया। मुस्लिम राष्ट्रों को लम्बे समय तक उपनिवेशवाद से मुक्ति नहीं मिल सकी और अपनी आस्थाओं को संरक्षित रखने के लिए मुसलमानों ने अपने आप को एक खोल, एक घेरे में बंद कर लिया। अब समय आ गया है कि मुसलमान इस खोल से बाहर निकलें, ज्ञान अर्जित करें और इस्लाम की समृद्ध परंपरा के अनुरूप अपने धर्म के नैतिक सिद्धांतों का पालन करते हुए मानवता की बेहतरी के लिए काम करें।

असहिष्णु, अतिवादी, कट्टरपंथी और हिंसक लोग सभी धर्मों में होते हैं – मुसलमानों में भी हैं। गैर-मुसलमानों के मामले में समुदाय के अतिवादी व्यक्तियों की हरकतों के लिए पूरे समुदाय को दोषी नहीं ठहराया जाता। परन्तु यदि कोई मुस्लिम अतिवादी कोई कुत्सित हरकत करता है तो उसकी निंदा (जो बिलकुल उचित है) के साथ-साथ मीडिया सम्बंधित घटना के बारे में लिखते हुए जिस तरह के शब्दों और शीर्षकों का उपयोग करता है, जिस तरह की प्रमुखता से ऐसी ख़बरों को प्रकाशित करता है उससे यह सन्देश जाता है कि पूरा समुदाय उस व्यक्ति विशेष की हरकत के लिए ज़िम्मेदार है। भारत में भी उन्मादी तत्वों की कमी नहीं है। क्या हमें नहीं मालूम कि कथित गौरक्षक किस तरह निर्दोष मुसलमानों की लिंचिग करते हैं और किस तरह मुसलमानों को उनकी आस्थाओं के खिलाफ जय श्रीराम कहने पर मजबूर करते हैं? चाहे वह पेटी की हत्या करना वाला चेचन युवक हो या कोई जिहादी अथवा कथित गौरक्षक – ये सब न केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रजातंत्र के दुश्मन हैं वरन वे अपने-अपने धर्मों की शिक्षाओं और मूल्यों का सम्मान भी नहीं करते। आईये हम सब एक साथ मिलकर, एक स्वर में इस तरह की सभी क्रूर और अमानवीय घटनाओं की निंदा करें – चाहे उन्हें अंजाम देने वाले किसी भी धर्म के क्यों न हों। ऐसे मामलों में हम कानून को अपना काम करने दें और अपराधी के पूरे समुदाय पर हमलावर न हों। आईये हम धर्म के क्षेत्र में विविधता का उत्सव मनाएं और अपनी धार्मिक मान्यताओं और आस्थाओं को संवेदशीलता और विनम्रता से अभिव्यक्त करें ताकि हम सब सत्य की खोज की राह में आगे बढ़ सकें। अगर कोई व्यक्ति हमारे धर्म के बारे में कोई अपमानजनक बात कहता भी है तो समझदार लोगों को चाहिए कि वे कानून को उससे निपटने दें। ग्राहम स्टेंस की पत्नी ने अपने पति और दो बच्चों के हत्यारों को माफ़ कर दिया था। सेम्युल पेटी के हत्यारे नहीं बल्कि ग्लेडिस स्टेंस मानवता के असली हीरे हैं।

(अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनूदित)