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इतिहास बदल देती है, एक निर्भीक मीडिया, इन तीन घटनाओं में सामने आई थी मीडिया की पॉवर

विजय शंकर सिंह

“वो भी क्या दिन थे साक़ी तेरे मस्तानों के। टीवी पर अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन अपने इस्तीफ़े की घोषणा कर रहे हैं. फ़र्श पर बॉब वूडवर्ड और कुर्सी पर कार्ल बर्न्सटीन बैठे हैं। 28-29 साल के इन दो वाशिंग्टन पोस्ट के पत्रकारों ने राष्ट्रपति निक्सन के झूठ-फ़रेब का पर्दाफ़ाश कर उन्हें हटने के लिए मजबूर कर दिया था.” (Prakash K Ray)

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अमेरिकी राष्ट्रपति दुनिया के किसी भी निर्वाचित राष्ट्र प्रमुख की तुलना में सर्वाधिक शक्ति सम्पन्न व्यक्ति होता है। चार साल वह एक तानाशाह की तरह रह सकता है। पर उस शक्ति सम्पन्न महाबली राष्ट्र प्रमुख के झूठ, फरेब, और मिथ्यावाचन की, तब इन दो युवा पत्रकारों ने हवा निकाल दी और यह कालजयी खोजी पत्रकारिता, पत्रकारिता के इतिहास में वाटरगेट स्कैण्डल यानी कांड के रूप में जानी जाती है। जिसके नायक, बॉब उडवर्ड और कार्ल बर्नस्टीन हैं।

इसी क्रम में गौरव राठौर ने लिखा वो दोबारा चुनाव जीतना चाहता था पर आश्वस्त  नही था अपनी जीत के प्रति, तो उसने वह सब किया जो प्रजातन्त्र मे अपराध की श्रेणी मे दर्ज होता है। अपने विपक्षियों और सहयोगियों तक की जासूसी करवाई, उनके घरों, आफिसो मे जासूसी यन्त्र लगवाए, ख़ुद से मिलने वाले हर व्यक्ति की बातचीत तक टेप करवा ली। सरकारी जासूसी व अन्य एजेन्सियो का इस कार्य को करने के लिए जम कर दुरुपयोग किया। बात हो रही है अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की और इस कांड का नाम ही “वाटर गेट “था।

1972: वाटरगेट ऑफिस कॉम्प्लेक्स दरअसल वाशिंगटन में एक इमारत है जिसमें Democratic National Committee (DNC ) का हेडक्वाटर था । पाँच आदमी जासूसी यन्त्रों के साथ 17 जून 1972 को पकड़े जाते है इसी इमारत में घुसपैठ करते हुए। शुरूआती जाँच में सभी को यह एक साधारण मामला लगता है पर  “वाशिंगटन पोस्ट “ अख़बार यह ताड़ जाता है कि मामला इतना भी साधारण नहीं है और फिर जिस तरह की खोजी पत्रकारिता होती है वह अपने आप में मिसाल है दुनिया भर में। वाशिंगटन – पोस्ट के यंग रिपोर्टर बॉब बुडवर्ड और कार्ल बर्नस्टाइंन इस मामले के पीछे लग गए । एफ बी आई जाँच कर रही थी परन्तु दोनों युवा पत्रकार उससे दो क़दम आगे चल रहे थे । वे हर वो ख़बर प्रमुखता से छाप दे रहे थे जिनका सुराग़ जाँच एजेन्सि को मिलता था।

दोनों यंग रिपोर्टर्स को एक सोर्स से खबरें मिल रही थी, जिसे जानने के लिए प्रेसिडेंट निक्सन ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। ये सोर्स ‘डीप थ्रोट’ के नाम से जाना जाता था। ये डीप थ्रोट कोई और नहीं, बल्कि एफबीआई के उपनिदेशक डब्ल्यू मार्क फैल्ट थे। दोनों रिपोर्टर्स ने इनका नाम इतना सीक्रेट रखा कि घटना के तीस साल बाद (2005)उनका नाम सार्वजनिक हुआ था।

अंत में कोर्ट और मीडिया प्रेशर के कारण प्रेसिडेंट निक्सन ने स्कैंडल में उनका हाथ होना स्वीकार किया और आठ अगस्त 1974 को इस्तीफा दे दिया। वे अमेरिका के एकमात्र इस्तीफा देने वाले प्रेसिडेंट भी हैं। वॉशिंगटन पोस्ट के लिए इनवेस्टिगेटिव रिपोर्टिंग करने के लिए दोनों पत्रकारों  को पुल्तिजर अवॉर्ड मिला और वॉशिंगटन पोस्ट अमेरिका का सबसे विश्वसनीय अख़बार बन गया। बस एक अख़बार और दो कार्य के प्रति ईमानदार पत्रकार…. बस इतना ही काफ़ी होता है कभी – कभी।

आज गोदी मीडिया के इस चाटुकार काल मे ऐसे प्रकरण और ऐसे व्यक्तियों को याद किया जाना चाहिए। आज जनता सच जानना चाहती है, सच को ढूंढ कर सामने ला रही है, अनेक पत्रकार भी इस पवित्र पत्रकारिता धर्म में लग कर सच ढूंढ रहे हैं, पर परंपरागत मीडिया का एक वर्ग, न केवल उस सच से मुंह चुरा रहा है, झूठे नैरेटिव बना रहा है, बल्कि सच को ही मिथ्या साबित करने पर तुला है।  वह सरकार से कोई सवाल नहीं पूछता है। प्रधानमंत्री कर क्या रहे हैं, किया क्या है, उनके वादे क्या हैं, वादे पूरे क्यों नहीं हो रहे हैं, आदि आदि सवालात पूछने के बजाय, वह आम चूसने और खाने के तरीके, वे थकते क्यों नहीं है, जैसे अनर्गल सवाल को ही कालजयी इंटरव्यू कह कर बार बार दिखाता है। ऐसा मीडिया, मीडिया कम, एक व्यक्ति की पीआर एजेंसी अधिक लगता है। वह सरकार की खबर नहीं लेता है, बल्कि वह सरकार के प्रति सरकार से अधिक वफादारी दिखाता है।

इतिहास, बॉब उडवर्ड और कार्ल  बर्नस्टीन जैसे निर्भीक पत्रकारों को याद रखता है और निर्भीकता से अर्जित प्रतिष्ठा ही कालजयी होती है, इतिहास में दर्ज रहती है। शेष तो आत्मसमर्पण है, अपने दायित्व, उद्देश्य, लक्ष्यबोध, कर्तव्य से जानबूझकर विचलित होना, और तुलसी के शब्दों में जीवित शव सम चौदह प्राणी के समान है।

(लेखक पूर्व आईपीएस हैं )